'पीड़ादायक आपराधिक शिकायत' वापस लिए बिना वैवाहिक अधिकार बहाल करने का पत्नी का दावा पति द्वारा सही गई क्रूरता को कम नहीं करता: कलकत्ता हाईकोर्ट

Update: 2023-09-08 06:19 GMT

कलकत्ता हाईकोर्ट ने हाल ही में पति के पक्ष में ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई तलाक की डिक्री को बरकरार रखा। इस पति ने अपनी पत्नी के हाथों की गई 'क्रूरता' के आधार पर तलाक का दावा किया था।

जस्टिस राजशेखर मंथा और जस्टिस सुप्रतिम भट्टाचार्य की खंडपीठ ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए पत्नी की अपील खारिज करते हुए कहा:

अपीलकर्ता/पत्नी द्वारा दर्ज की गई एफआईआर प्रतिशोध में दायर की गई है, क्योंकि इसे तलाक के लिए वैवाहिक मुकदमे की शुरुआत के बाद दायर किया गया है। पति द्वारा पत्नी के खिलाफ कथित क्रूरता के कृत्यों को पति द्वारा माफ नहीं किया गया है। यह अदालत इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं कर सकती कि पति के परिवार के बुजुर्ग सदस्यों को उनके खिलाफ लगाए गए आरोपों की तुच्छता को ध्यान में रखते हुए उन्हें आपराधिक कार्यवाही से बरी कर दिया गया था। इसे दोहराने की कोई आवश्यकता नहीं है कि पक्षकार बिना किसी सुलह के अपने क्षयकारी और भिन्न जीवन-शैली जारी रख रहे हैं।

ये टिप्पणियां अपीलकर्ता/पत्नी द्वारा दायर उस अपील में आईं, जिसमें हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1ए) के अर्थ के तहत प्रतिवादी/पति द्वारा दायर वैवाहिक मुकदमे में ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित तलाक के फैसले को पलटने की मांग की गई थी।

अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि पत्नी ने शादी के बाद से ही पति के साथ रहने का इरादा जताया था, लेकिन प्रतिवादी/पति ने उसके साथ रहने से इनकार कर दिया। यह प्रस्तुत किया गया कि अपीलकर्ता अभी भी प्रतिवादी के साथ वैवाहिक संबंध जारी रखने का इरादा रखती है, क्योंकि उसे अपने पति के साथ उचित वैवाहिक जीवन जीने का कभी मौका नहीं मिला।

यह प्रस्तुत किया गया कि अपीलकर्ता ने प्रतिवादी और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498 ए के तहत मामला दर्ज किया। ट्रायल कोर्ट ने इस तथ्य के आधार पर वैवाहिक मुकदमे पर गलती से फैसला सुनाया कि उपरोक्त मामला तुच्छ है और पति पर मानसिक क्रूरता का सबूत भी है जिसमे आरोपी बनाए गए कई रिश्तेदारों को सबूतों के अभाव में जमानत दी गई है।

वकील ने तर्क दिया कि चूंकि आईपीसी की धारा 498ए का मामला अभी भी लंबित है, इसलिए ट्रायल कोर्ट यह नहीं मान सकता कि पति की ओर से क्रूरता को खारिज कर दिया गया है। इसके अलावा, विवाह के अपूरणीय रूप से टूटने का आधार एक पक्षकार द्वारा लिया गया है। साथ ही यह भी कहा गया कि विवाहित जीवन में सामान्य 'नोक-झोंक' तलाक का आधार नहीं हो सकता।

दूसरी ओर उत्तरदाताओं ने तर्क दिया कि पत्नी ने शादी की शुरुआत से ही न केवल पति बल्कि अपने ससुराल वालों और अन्य रिश्तेदारों पर भी क्रूरता की है बल्कि पति को भी लगातार यातनाएं झेलनी पड़ीं है, जिसके बारे में वह किसी को बता भी नहीं सकता था।

वकील ने बताया कि पत्नी ने पति और उसके रिश्तेदारों के खिलाफ आईपीसी की धारा 498ए के तहत मामला दायर किया है। इस मामले में उस पति के बुजुर्ग माता-पिता को जमानत लेनी पड़ी थी। इसके साथ ही इस तथ्य पर जोर दिया गया कि अन्य रिश्तेदारों को भी उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिलने के कारण बरी कर दिया गया था। यह तर्क दिया गया कि उपरोक्त मामला पत्नी द्वारा तब दर्ज कराया गया था जब पति ने वर्तमान वैवाहिक मुकदमा प्रतिशोध के रूप में दायर किया गया था।

दोनों पक्षकारों को सुनने के बाद अदालत ने इस सवाल की जांच की कि क्या पत्नी ने पति पर कोई क्रूरता की है, और क्या यह अदालत को हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तलाक की डिक्री देने की अनुमति देने के लिए पर्याप्त होगा।

यह देखा गया कि दोनों पक्षकारों की ओर से आरोप-प्रत्यारोप लगाए गए। इसमें उनके रिश्तेदारों को भी शामिल कर लिया गया। पति पर पत्नी द्वारा विवाहेतर संबंध रखने का भी आरोप लगाया गया, जो कि प्रतिवादी पक्षकारों को एक साथ तो नहीं ला सकता बल्कि इससे दोनों के बीच खाई जरुर बन गई है।

कोर्ट ने कहा कि 7 महीने के सहवास के दौरान भी दोनों पक्षकार आपस में लड़ते रहे और उनका एक साथ बिताया एक भी लम्हा दोनों पक्षकारों के लिए सौहार्दपूर्ण नहीं रहा।

यह देखा गया कि दोनों पक्षकारों की ओर से आरोप-प्रत्यारोप लगाए गए। इसमें उनके रिश्तेदारों को भी शामिल कर लिया गया। पति पर पत्नी द्वारा विवाहेतर संबंध रखने का भी आरोप लगाया गया, जो कि प्रतिवादी पक्षकारों को एक साथ नहीं ला सकता है। इसके बजाय दोनों के बीच अंतर की खाई बन जाती है।

तदनुसार, न्यायालय ने तलाक की डिक्री को बरकरार रखा और निष्कर्ष निकाला:

खाने-पीने और शराब के सेवन से लेकर विवाहेतर संबंध और शारीरिक और मानसिक यातना के पहलू तक शादी से पहले दहेज के लिए दबाव बनाना और शादी के बाद पैसे के लिए दबाव बनाने वाले सभी पहलू सामने आ गए हैं। इस न्यायालय के विचार में दोनों पक्षकार कुछ दिनों के लिए भी शांति से एक साथ नहीं रहे हैं। इसके विपरीत, विवाह से पहले की अवधि से ही पक्षकारों के पास एक-दूसरे के खिलाफ शिकायतें हैं, जो अब भी जारी हैं। उपरोक्त चर्चा की पृष्ठभूमि में अपील विफल हो जाती है। इस न्यायालय को ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित निर्णय और आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं मिला।

कोरम: जस्टिस राजशेखर मंथा और जस्टिस सुप्रतिम भट्टाचार्य

Tags:    

Similar News