बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2018 आत्महत्या मामले में अर्नब गोस्वामी को अंतरिम जमानत देने से इनकार किया

Update: 2020-11-09 11:12 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट ने सोमवार को रिपब्लिक टीवी के एंकर अर्नब गोस्वामी को अंतरिम जमानत देने से इनकार कर दिया। गोस्वामी को मुंबई पुलिस द्वारा गिरफ्तार करने के बाद 4 नवंबर को 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया था और 2018 में दो अन्य सह-अभियुक्तों भी हैं।

न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय द्वारा असाधारण क्षेत्राधिकार के प्रयोग के लिए कोई मामला नहीं बनाया गया, जबकि याचिकाकर्ताओं के पास सीआरपीसी की धारा 439 के तहत नियमित जमानत की मांगने करने का उपचार उपलब्ध है। गोस्वामी और अन्य सह-अभियुक्तों ने अनुच्छेद 226 के तहत अपनी गिरफ्तारी और रिमांड के खिलाफ हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका दायर की थी।

पीठ ने स्पष्ट किया कि अंतरिम आवेदन को तय करने के उद्देश्य से इसका अवलोकन प्रकृति में प्रथम दृष्टया है और अर्नब गोस्वामी द्वारा नियमित जमानत की मांग के लिए किए गए आवेदन पर लागू नहीं होगा।

'अंतरिम आवेदन की अस्वीकृति को वैकल्पिक उपायों की मांग करने वाले याचिकाकर्ताओं के लिए बाधा के रूप में नहीं माना जाएगा। पीठ ने कहा कि प्रकृति केवल मौजूदा आवेदन तक ही सीमित है।'

पीठ ने स्पष्ट किया कि अभियुक्त सत्र न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है और यदि ऐसा कोई आवेदन किया जाता है, तो संबंधित अदालत को 4 दिनों के भीतर इसका फैसला करना चाहिए।

पीठ ने अर्नब गोस्वामी के मामले की तरह सह-अभियुक्त नीतीश शारदा और प्रवीण राजेश सिंह की अंतरिम जमानत अर्जी को इन्हीं टिप्पणियों के साथ खारिज कर दिया था। जैसा कि अर्नब गोस्वामी के मामले में था।

बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा आदेश देने से पहले गोस्वामी ने अलीबाग सत्र न्यायालय के समक्ष नियमित जमानत की अर्जी दायर की। अलीबाग सत्र न्यायालय आज रायबाग पुलिस द्वारा अलीबाग के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के आदेश के खिलाफ अर्णब गोस्वामी की पुलिस हिरासत से इनकार करते हुए पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई कर रहा है।

जस्टिस एसएस शिंदे और जस्टिस एमएस कार्णिक की खंडपीठ ने इसके बावजूद कि दिवाली की छुट्टियों के लिए उच्च न्यायालय बंद है, सोमवार को अपराह्न 3 बजे गोस्वामी और दो अन्य अभियुक्त द्वारा दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं में अंतरिम जमानत के आवेदनों पर आदेश देने के लिए विशेष सुनवाई आयोजित की।

पीठ ने इस मामले की सुनवाई के लिए शनिवार को दोपहर 12 बजे से शाम 6 बजे तक विशेष सुनवाई की थी। इससे पहले पीठ ने गुरुवार और शुक्रवार को दोपहर 3 बजे से शाम 5 बजे तक मामले की सुनवाई की। इसने इस मामले में सह आरोपी नीतीश शारदा और प्रवीण राजेश सिंह के लिए अधिवक्ता विजय अग्रवाल और निखिल मेंगड़े को भी सुना।

हालांकि वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे और अबाद पोंडा ने गोस्वामी के लिए अंतरिम जमानत की मांग करते हुए याचिका दायर की। पीठ ने इसे मंजूरी देने से इनकार कर दिया। पीठ ने स्पष्ट किया कि उच्च न्यायालय में मामले की पेंडेंसी याचिकाकर्ताओं के लिए संबंधित अदालत के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 के तहत नियमित जमानत लेने के लिए बाधा नहीं होगी। यदि ऐसा कोई आवेदन किया जाता है, तो अदालत ने आदेश दिया कि उसी को संबंधित अदालत द्वारा दाखिल करने के चार दिनों के भीतर निर्णय लिया जाना चाहिए।

गोस्वामी को 2 नवंबर, 2020 में सुबह रायगढ़ पुलिस ने 2018 में अनवी नाइक और उनकी मां कुमुद नाइक नामक 52 वर्षीय इंटीरियर डिजाइनर की आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में गिरफ्तार किया था। उसे सीजेएम अलीबाग द्वारा न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया था और उसे एक स्थानीय स्कूल में रखा गया था जिसे अलीबाग जेल के लिए COVID​​-19 केंद्र के रूप में नियुक्त किया गया था।

रिमांड आदेश के खिलाफ याचिका राज्य सरकार ने याचिकाओं के सुनवाई योग्य होने पर सवाल खड़ा किया। एडवोकेट अमित देसाई ने दलील दी कि जमानत के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका सुनवाई योग्य नहीं है। उन्होंने कहा कि रिमांड के न्यायिक आदेश के खिलाफ याचिका सुनवाई योग्य नहीं है।

देसाई ने तर्क दिया,

"यदि किसी व्यक्ति को न्यायिक आदेश के तहत हिरासत में रखा गया है, तो बंदी प्रत्यक्षीकरण का रिट जारी नहीं किया जा सकता है...." देसाई ने कहा, "याची के पास वैकल्पिक कानूनी उपाय हैं। हम कानून में उपलब्ध उन उपायों के रास्ते में नहीं आ रहे हैं।" उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता को मजिस्ट्रेट से नियमित जमानत की मांग करनी चाहिए। महाराष्ट्र राज्य व अन्य बनाम तसनीम रिजवान सिद्दीकी, 2018 (9) एससीसी 745 पर भरोसा कायम किया गया।

देसाई ने दलील दी,

"अर्नब गोस्वामी मजिस्ट्रेट के 4 नवंबर के आदेश के तहत हिरासत में हैं। मजिस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र को चुनौती नहीं दी जाती है। न्यायिक आदेश होने के नाते, यह विशेष याचिका जीवित नहीं रहेगी।"

देसाई ने कहा कि अर्नब गोस्वामी को "गैरकानूनी हिरासत" में नहीं रखा गया है। वह न्यायिक आदेश के आधार पर हिरासत में है। उन्होंने कहा कि गोस्वामी ने मूल रूप से मजिस्ट्रेट के समक्ष जमानत की अर्जी दी थी, लेकिन उसे वापस ले लिया गया।

उन्होंने कहा,

"याचिकाकर्ताओं ने जमानत अर्जी वापस लेने का फैसला किया। इसमें राज्य की कोई गलती नहीं है। हम लंबे समय तक के लिए स्थगन नहीं मांग रहे हैं। हम इस बात से भी अवगत हैं कि नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रताएं शामिल हैं।"

देसाई ने कहा कि याचिकाकर्ता का पूरा मामला अवैध गिरफ्तारी के आरोप पर आधारित है और उन्होंने "अवैध हिरासत" के किसी भी मुद्दे को नहीं उठाया है क्योंकि उन्होंने रिमांड आदेश को चुनौती नहीं दी है।

देसाई ने कहा,

"मजिस्ट्रेट के सामने किसी व्यक्ति को पेश किए जाने से पहले गिरफ्तारी होती है। जिस क्षण आपकी" अवैध गिरफ्तारी" न्यायिक रिमांड में बदल जाती है, गिरफ्तारी का सवाल प्रासंगिक नहीं रह जाता है।"

उन्होंने कहा,

"गिरफ्तारी का मुद्दा हिरासत के मुद्दे से अलग है। अपराध का खुलासा नहीं करने के कारण एफआईआर को रद्द करने का सवाल, अवैध गिरफ्तारी का सवाल और हिरासत का सवाल अलग है। एफआईआर में अपराध का खुलासा नहीं करने सवाल अंतरिम रिहाई के लिए प्रासंगिक नहीं है क्योंकि उन्होंने न्यायिक रिमांड का आदेश को को चुनौती नहीं दी है।"

दूसरी ओर, अर्नब गोस्वामी की ओर से पेश हरिश साल्वे ने उत्तर प्रदेश के जागिश अरोड़ा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल पत्रकार प्रशांत कनौजिया को हिरासत से रिहा करने का आदेश दिया था।

साल्वे ने अदालत से कहा,

"यह तर्क कि बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका सुनवाई योग्य नहीं हैं, वहां उठा था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्वीकार नहीं किया और प्रशांत कनौजिया की हिरासत को रद्द करने का आदेश दिया।"

दुर्भावना के आरोपों पर शुक्रवार को सुनवाई साल्वे ने आरोप लगाया था कि राज्य दुर्भावना के साथ काम कर रहा है। इस पर प्रतिक्रिया देते हुए, देसाई ने कहा कि दुर्भावाना या द्वेष वास्तव में प्रासंगिक नहीं हैं क्योंकि मजिस्ट्रेट ने रिमांड का आदेश पारित किया है।

उन्होंने कहा,

"रिमांड का आदेश एक न्यायिक कार्य है ... याचिकाकर्ता के पास उचित न्यायालय के समक्ष जमानत मांगने का प्रभावशाली उपाय है। भले ही एक रिमांड आदेश यांत्रिक रूप से पारित किया गया है, बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका उपाय उपाय नहीं है ... कानून के रूप में और एक औच‌ित्य रूप में, अदालतों के पदानुक्रम में परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए।"

इसके अलावा, साल्वे द्वारा महाराष्ट्र विधानसभा में गृहमंत्री के बयान के आधार पर लगाए गए दुर्भावना के आरोप पर देसाई ने तर्क दिया कि उनकी जांच उस घटना से पहले की है।

उन्होंने बताया,

"विधानसभा की चर्चा सितंबर में हुई थी। जबकि इस मामले की प्रक्रिया पहले से ही चल रही थी। मई में दोबारा जांच की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। जून में पुलिस द्वारा बयान लिए गए। इसलिए हरीश साल्वे की दुर्भावना के तर्क निराधार हैं। यह तर्क जांच " पूरी तरह अवैध" है, निराधार है।"

पीड़‌ित का निष्पक्ष और पूर्ण जांच का अधिकार शिकायतकर्ता की दुर्दशा की चर्चा करते हुए, जिसने अपने पिता और दादी को खो दिया, देसाई ने कहा कि वह लगभग एक साल से "न्याय के लिए दरवाजे खटखटा" रही थी।

उन्होंने कहा,

"आज राज्य सबूत जुटाने की प्रक्रिया में है। अनुच्छेद 14 पीड़िता पर भी लागू होता है। पीड़िता को भी निष्पक्ष और पूर्ण जांच का मौलिक अधिकार है ... फरवरी से, पीड़ित (अदन्या नाइक) न्याय के लिए दरवाजे खटखटा रही है। पीड़ित को ट्विटर में क्लोजर रिपोर्ट के बारे में पता चला... याचिकाकर्ता के पास अधिकार हैं, पीड़ित के पास भी अधिकार हैं। यह राज्य का कर्तव्य है कि वह पीड़ित और आरोपी के अधिकारों को संतुलित करे।"

उन्होंने कहा कि जब जांच चल रही हो तो उसे रोका नहीं जा सकता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि एक सुसाइड नोट है, जिस पर लोगों के नाम है और इस प्रकार यह एक ऐसा मामला है जिसकी जांच की जानी चाहिए। नारायण मल्हारी थोराट बनाम विनायक देवरा भगत पर भरोसा कायम किया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने आत्महत्या के एक मामले को रद्द करने के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट की आलोचना की थी, जहां सुसाइड नोट में आरोपी का नाम था। शिकायतकर्ता की ओर से पेश हुए, सीनियर एडवोकेट सिरीश गुप्ते ने आरोप लगाया कि पिछली जांच एजेंसी ने कठोरता से जांच की थी।

उन्होंने आग्रह किया, आरोपी (अर्नब गोस्वामी) को रिहा करना, जबकि जांच लंबित है, पीड़ित के साथ अन्याय है। उसे धारा 439 सीआरपीसी के तहत उचित प्रक्रिया का पालन करने दें।" साल्वे ने दलील दी कि नाइक परिवार को यह बताना होगा कि उन्होंने न्यायालय से अब संपर्क क्यों किया है, वे अप्रैल 2019 और आज तक क्या कर रहे थे। गुप्ते ने न्यायालय से यह भी पूछा कि ऐसी क्या आवश्यकता है कि एक खंडपीठ तीन दिनों से याचिकाकर्ता के मामले में सुनवाई कर रही है, जबकि COVID 19 के दौर में कई याचिकाओं को नहीं सुना गया।

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