बॉम्बे हाईकोर्ट ने बलात्कार के मामले में 'महिलाओं के प्रति अपमानजनक' शब्द का प्रयोग करने वाले अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश को फटकार लगाई

Update: 2021-03-12 07:00 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट (औरंगाबाद बेंच) ने हाल ही में एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश की खिंचाई करते हुए अपनी नाराजगी व्यक्त की, क्योंकि न्यायाधीश ने बलात्कार की पीड़िता की गवाही दर्ज करते समय और बाद में अपने फैसले में 'महिलाओं के प्रति पूरी तरह से अपमानजनक' मानी जाने वाली अशिष्ट भाषा और अश्लील शब्दों का इस्तेमाल किया था।

न्यायमूर्ति रविंद्र वी घुगे और न्यायमूर्ति बी यू देबदवार की खंडपीठ ने कड़ाई के साथ कहा कि,

''ट्रायल कोर्ट ने 'एफ**' और ''एफ***'' शब्दों का इस्तेमाल किया है। इन शब्दों का इस्तेमाल अशिष्ट भाषा में किया जाता है, इसलिए इनको अश्लील शब्द माना जाता है और यह महिलाओं के प्रति पूरी तरह से अपमानजनक है।''

न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि यद्यपि पीड़िता की गवाही के मराठी संस्करण में उसके द्वारा इस्तेमाल किए गए कुछ मराठी शब्दों का संकेत दिया गया है, फिर भी ट्रायल कोर्ट ने उसकी गवाही का अंग्रेजी में अनुवाद करते समय बार-बार आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल किया।

कोर्ट के समक्ष मामला

न्यायालय राज्य की तरफ से दायर एक अपील पर सुनवाई कर रहा था,जिसमें अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, कोपरगाँव द्वारा सेशन केस नंबर 19/2010 में 14 अगस्त 2012 को दिए गए फैसले को चुनौती दी गई थी।

प्रतिवादी अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 376 और 506 के तहत किए गए अपराध के मामले में बरी कर दिया गया था।

पीड़िता की शिकायत यह थी कि आरोपी, जो उसका चचेरा ससुर है, उसने भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत अपराध किया था।

कोर्ट का अवलोकन

न्यायालय ने 'एक विशेष शब्द का उपयोग करने के मामले में अपनी कड़ी नाराजगी' दर्ज की, जिसका उपयोग बार-बार अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, कोपरगाँव (कोरमः एसवी रानपीसे) ने पीड़िता की गवाही दर्ज करते समय किया था और बाद में इस शब्द का इस्तेमाल सेशन जज द्वारा दिए गए फैसले में भी किया गया।

इसके अलावा, न्यायालय ने स्वीकार्य सबूतों को ध्यान में रखते हुए निष्कर्ष निकाला कि चूड़ियां टूटने के कारण घायल होने के संबंध में पीड़िता द्वारा दिया गया बयान कोई चिकित्सा साक्ष्य नहीं होने के मद्देनजर झूठा पाया गया है और न ही अपराध के स्थान पर चूड़ी का कोई टुकड़ा मिला था।

न्यायालय ने यह भी कहा कि उसके सिर पर कोई चोट या गांठ नहीं पाई गई थी, वहीं पीड़िता के पेटीकोट पर भी कोई वीर्य के दाग नहीं पाए गए थे और न ही उसकी जांघों या पैरों पर कोई चोट पाई गई थी। वहीं आरोपी को थप्पड़ मारने की उसकी कहानी को भी चिकित्सा साक्ष्य द्वारा समर्थन नहीं मिला है क्योंकि आरोपी के चेहरे पर कोई थप्पड़ की छाप नहीं थी।

कोर्ट ने कहा कि,

''अभियोजक यह समझाने में असमर्थ था कि हालांकि पीड़िता/शिकायतकर्ता के शरीर पर एक भी चोट का निशान नहीं था और ऊपर वर्णित कई चोटों का उसका पूरा बयान झूठा साबित हुआ है, उसके बाद भी हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि आरोपी ने ही यह अपराध किया था।''

इसके अलावा कोर्ट ने ओडिशा राज्य बनाम बानाबिहारी महापात्रा व अन्य [Special Leave Petition (Crl) No.1156/2021],के मामले में 12 फरवरी 2021 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले को भी ध्यान में रखा,जिसमें माना गया है कि संदेह, हालांकि मजबूत हो सकता है, परंतु वह मूल साक्ष्य का विकल्प नहीं हो सकता है।

अदालत ने कहा कि, ''संदेह कभी भी सबूत का स्थान नहीं ले सकता है और अदालत संदेह के आधार पर अपनी सजा का आदेश नहीं दे सकती है।''

उपरोक्त के मद्देनजर, अपील विफल रही और  इसे खारिज कर दिया गया।

केस का शीर्षक - महाराष्ट्र राज्य बनाम महादु दगडू शिंदे [Criminal Appeal No.146 of 2014]

जजमेंट डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



Tags:    

Similar News