मुख्यमंत्री, सत्ता पक्ष या राज्यपाल का आश्वासन देश का कानून नहीं बन जाता: तेलंगाना हाईकोर्ट

Update: 2021-11-08 06:36 GMT

तेलंगाना हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि किसी सत्ताधारी पार्ट‌ी या मुख्यमंत्री या महामहिम राज्यपाल द्वारा दिया गया आश्वासन देश के कानून नहीं बन जाता।

चीफ जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस ए राजशेखर रेड्डी की पीठ ने उक्त टिप्पणी के साथ सरकारी नौकरियों के लिए सेवानिवृत्ति की आयु 58 या 60 वर्ष से बढ़ाकर 61 वर्ष करने के राज्य सरकार के फैसले को पूर्वव्यापी स्तर पर लागू करने की मांग वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया।

पृष्ठभूमि

राज्य विधानमंडल ने तेलंगाना लोक रोजगार (अधिवर्षिता की आयु का विनियमन) (संशोधन) अधिनियम, 2021 पारित किया, था जिसके तहत सार्वजनिक कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की आयु 58 वर्ष से बढ़ाकर 61 वर्ष कर दी गई थी।

इस विशेष अधिनियम में अधिनियम के प्रवर्तन की तारीख शामिल नहीं थी, हालांकि, एक सरकारी आदेश के माध्यम से राज्य सरकार ने 30 मार्च, 2021 को अधिसूचित किया कि उक्त अधिनियम 30 मार्च, 2021 को लागू हुआ माना जाएगा।

इसका मतलब यह हुआ कि जो कर्मचारी 30 मार्च या उसके बाद सेवानिवृत्त होने वाले थे वे राज्य सरकार द्वारा पारित अधिनियम के लाभ के हकदार थे। सरकार के आदेश को चुनौती देते हुए कुछ सेवानिवृत्त कर्मचारियों (30 मार्च से पहले) ने हाईकोर्ट से संपर्क किया।

याचिकाकर्ताओं की दलीलें

याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि मार्च 2021 से पहले सेवानिवृत्त हुए कर्मचारियों के साथ सरकार द्वारा भेदभाव किया गया और इसलिए उन्होंने दावा किया कि 2021 का संशोधन अधिनियम और सरकारी आदेश भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 16 और 20 का उल्लंघन है।

उन्होंने यह भी तर्क दिया कि वेतन संशोधन आयोग की रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुए संशोधन अधिनियम को पूर्वव्यापी प्रभाव से यानी 31 ‌‌दिसंबर 2020 से लागू किया जाना चाहिए था।

गौरतलब है कि याचिकाकर्ताओं ने यह भी दलील दी कि सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति ने 2018 में तेलंगाना सरकार के कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की आयु को बढ़ाकर 61 वर्ष करने का आश्वासन दिया था और मामला विचाराधीन था।

याचिकाकर्ताओं ने आगे कहा कि तेलंगाना के राज्यपाल ने भी 2021 में दिए गणतंत्र दिवस भाषण में सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने के संबंध में वादा किया था।

इस पृष्ठभूमि में किए गए वादों का हवाला देते हुए याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया कि राज्य सरकार ने विधानसभा चुनाव के समय वर्ष 2018 में सेवानिवृत्ति की आयु 58 वर्ष से बढ़ाकर 61 वर्ष करने का वादा किया है। राज्य सरकार सेवानिवृत्ति की आयु में वृद्धि के लाभ से इनकार नहीं कर सकती है।

न्यायालय की टिप्पणियां

शुरुआत में कोर्ट ने कहा कि कट-ऑफ तारीख का निर्धारण किसी भी हस्तक्षेप की मांग नहीं करता है क्योंकि कट-ऑफ तिथि के निर्धारण से हमेशा बड़ी संख्या में कर्मचारी असंतुष्ट छूट जाते हैं।

यह देखते हुए कि याचिकाकर्ता न्यायालय के समक्ष यह स्थापित करने में सक्षम नहीं हैं कि यह भेदभावपूर्ण, मनमाना या भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 16 और 21 का उल्लंघन कैसे है, न्यायालय ने कहा, 

"किसी सत्ताधारी दल या मुख्यमंत्री या महामहिम राज्यपाल द्वारा दिया गया आश्वासन देश का कानून नहीं बन जाता। अधिनियम बनाना या अधिनियम में संशोधन करना विधायिका का अधिकार क्षेत्र है और उसी का अधिकार है और यह राज्य विधानमंडल द्वारा ..तेलंगाना लोक रोजगार (अधिवर्षिता की आयु का विनियमन) (संशोधन) अधिनियम, 2021 (2021 की अधिनियम संख्या 3) के जरिए किया गया है।"

तेलंगाना हाईकोर्ट ने संशोधन अधिनियम और सरकार के आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं पाया इसलिए, रिट याचिकाएं खारिज कर दी गईं।

उल्लेखनीय है‌ कि इस साल जुलाई में दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा था कि मुख्यमंत्री द्वारा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में किया गया वादा या आश्वासन एक लागू करने योग्य वादे के बराबर है और एक मुख्यमंत्री से इस तरह के वादे को पूरा करने के लिए अपने अधिकार का प्रयोग करने की उम्मीद की जाती है।

जस्टिस प्रतिभा एम सिंह पीठ ने कहा था,

"मुख्यमंत्री द्वारा दिया गया वादा/आश्वासन/अभ्यावेदन स्पष्ट रूप से एक लागू करने योग्य वादे के बराबर है, जिसके कार्यान्वयन पर सरकार द्वारा विचार किया जाना चाहिए। सुशासन की आवश्यकता है कि शासन करने वालों द्वारा नागरिकों से किए गए वादों को बिना वैध और उचित कारण के तोड़ा न जाए।"

हालांकि, दिल्ली हाई कोर्ट की खंडपीठ ने बाद में इस आदेश पर अस्थायी रूप से रोक लगा दी थी ।

इसके अलावा, COVID-19 महामारी के बीच रेमेडे‌सिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी के आरोपी की हिरासत को बरकरार रखते हुए मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने जुलाई 2021 में कहा था कि एक मुख्यमंत्री के सोशल मीडिया पोस्ट की तुलना एक प्रशासनिक आदेश/निर्देश के साथ नहीं की जा सकती है।

जस्टिस सुजॉय पॉल और जस्टिस अनिल वर्मा की खंडपीठ ने कहा था कि यह जरूरी नहीं है कि एक सरकारी अधिकारी के हर सोशल मीडिया पोस्ट को प्रशासनिक पदानुक्रम में देखा/पढ़ा जाए और उसका पालन किया जाए।

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