इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पिछले हफ्ते 18 साल से (छूट के साथ) अधिक समय से जेल में बंद बलात्कार के एक दोषी को बरी कर दिया। कोर्ट ने पाया कि न तो चिकित्सा साक्ष्य और न ही अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयानों में बलात्कार के दोषी के खिलाफ मामले का समर्थन किया गया है।
जस्टिस अश्विनी कुमार मिश्रा और जस्टिस शिव शंकर प्रसाद की पीठ ने कहा,
"एक बार जब हम रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों का विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि न तो मेडिकल साक्ष्य और न ही पीड़िता या उसके पिता ने अदालत के सामने अपने बयान में अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन किया। इसलिए सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दिए गए पीड़िता के बयान को अलग करके नहीं देखा जा सकता है ताकि आरोपी-अपीलकर्ता को दोषसिद्धि का आधार बनाया जा सके, जबकि पीड़िता ने खुद अदालत के सामने दिए अपने बयान में अपने पिछले रुख का समर्थन नहीं किया है।"
उक्त टिप्पणी के साथ बेंच ने ट्रायल कोर्ट के फैसले और आदेश पर असहमति व्यक्त की।
अदालत ने ट्रायल कोर्ट द्वारा लौटाए गए अपराध के निष्कर्ष को टिकाऊ ना मानते हुए कहा कि निचली अदालत ने एफआईआर की सामग्री के साथ-साथ सीआरपीसी की धारा 164 के तहत पीड़िता के बयान पर भी भरोसा किया था, जिसे ठोस साक्ष्य के रूप में नहीं माना जा सकता है।
मामला
अभियोजन पक्ष के मामले के अनुसार, शिकायतकर्ता/पिता (पीडब्ल्यू-1) ने 5 मार्च, 2008 को एक रिपोर्ट दर्ज कराई, जिसमें कहा गया कि लगभग 5 दिन पहले उसकी आठ वर्षीय नाबालिग बेटी को आरोपी-अपीलकर्ता ने बहला फुसला कर ले गया था और उसने अप्राकृतिक यौनाचार किया और उसके साथ दुष्कर्म भी किया और उसके गाल काट लिए।
ऐसी रिपोर्ट के आधार पर, जांच अधिकारी ने कार्रवाई की और धारा 161 और 164 सीआरपीसी के तहत पीड़िता का बयान दर्ज किया गया, जिसमें उन्होंने एफआईआर के आरोप का समर्थन किया था।
हालांकि, उसकी चिकित्सकीय जांच में गाल काटने के अलावा कोई चोट नहीं पाई गई। उसका हाइमन बरकरार था और उसके निजी अंगों पर कोई चोट नहीं देखी गई थी। पीड़िता की उम्र 11 साल बताई गई। पैथोलॉजिकल रिपोर्ट में भी कोई शुक्राणु नहीं पाया गया।
फिर भी, आरोपी-अपीलार्थी- राज कुमार को 9 नवंबर, 2009 को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश/फास्ट ट्रैक कोर्ट नंबर 2, आगरा ने आईपीसी की धारा 376 (सी) के तहत दोषी ठहराया और सजा सुनाई। इस फैसले के खिलाफ दोषी ने हाईकोर्ट के समक्ष मौजूदा आपराधिक अपील दायर की।
निष्कर्ष
हाईकोर्ट ने कहा कि एफआईआर दर्ज करने में 5 दिनों की देरी हुई थी, और देरी के लिए दिए गए स्पष्टीकरण की पुष्टि नहीं हुई थी। दरअसल, शिकायतकर्ता ने कहा था कि चूंकि उसने पहले पीड़िता का मेडिकल करवाया और उसके बाद ही 5 मार्च, 2008 को एफआईआर दर्ज की गई, हालांकि, अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष ने कोई सबूत पेश नहीं किया था कि पीड़िता का पहले भी ईलाज किया गया था या उसे कोई चोट लगी थी, जिसके लिए उसे अस्पताल में भर्ती करने की आवश्यकता थी, आदि।
अदालत ने मेडिकल रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुए कहा कि यह अभियोजन पक्ष के मामले का सपोर्ट नहीं करती है। इसके अलावा, अदालत ने कहा कि पीड़िता ने स्वयं अभियोजन के मामले का सपोर्ट नहीं किया था क्योंकि उसने जिरह में स्पष्ट रूप से कहा था कि आरोपी-अपीलकर्ता द्वारा उसके खिलाफ कोई अप्रिय कार्य नहीं किया गया था। पीड़िता के पिता का बयान भी कुछ ऐसा ही है।
इसे देखते हुए, अदालत ने आरोपी-अपीलार्थी के खिलाफ अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश/फास्ट ट्रैक कोर्ट नंबर 2, आगरा द्वारा पारित दोषसिद्धि और सजा के फैसले और आदेश को रद्द कर दिया और अपील स्वीकार कर ली गई।
संबंधित खबरों में, इस महीने की शुरुआत में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक बलात्कार के दोषी को बरी कर दिया, जिसने (छूट के साथ) 21 साल से अधिक जेल में बिताए। अदालत ने उत्तर प्रदेश राज्य के अधिकारियों को उनके मामले में छूट के लिए विचार नहीं करने के लिए भी फटकार लगाई।
केस टाइटलः राज कुमार बनाम यूपी राज्य [CRIMINAL APPEAL No. - 7006 of 2009]
केस साइटेशन: 2022 लाइवलॉ (एबी) 509