इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फेसबुक कॉल पर कथित निकाह करने और बाद में महिला को छोड़ देने के आरोपी व्यक्ति को अग्रिम जमानत दी

Update: 2021-09-11 09:27 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक आदमी को अग्र‌िम जमानत दे दी, जिसपर फेसबुक कॉल के माध्यम से ‌निकाह करने और बाद में उस औरत को छोड़ देने का आरोप था।

ज‌स्टिस चंद्रधारी सिंह की खंडपीठ मोहम्मद अली नाम के एक व्यक्ति की जमानत याचिका पर सुनवाई कर रही थी, अभियोजन पक्ष के आरोपों के अनुसार जिसने मोजाम्बिक, अफ्रीका में रहते हुए शिकायतकर्ता के साथ फेसबुक कॉल के जर‌िए निकाह किया, और भारत वापस आने के बाद उसने शिकायतकर्ता को गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी और उसे ब्लैकमेल किया।

संक्षेप में तथ्य

अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया है कि मोजाम्बिक, अफ्रीका में काम करते हुए उसने मार्च, 2019 में शिकायतकर्ता महिला के साथ निकाह किया और भारत वापस आने के बाद उससे बात करने से इनकार कर दिया। उसने अपना मोबाइल नंबर बंद कर दिया और शिकायतकर्ता का फेसबुक अकाउंट भी ब्लॉक कर दिया।

शिकायतकर्ता महिला ने आरोप लगाया कि जनवरी 2020 में, जब आरोपी ने एक बार फिर उससे संपर्क किया तो उसने उससे निकाह की शर्तों का पालन करने और उससे बंधे रहने के लिए इस्लामिक विद्वान की राय लेने का अनुरोध किया, हालांकि, उसने उसे गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी और ब्लैकमेल किया।

नतीजतन, आवेदक के खिलाफ धारा 420, 500, 507 आईपीसी और धारा 67-ए (चार्जशीट में आरोप हटा दिया गया), 66-ई आईटी अधिनियम के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई थी।

दूसरी ओर, आवेदक-पुरुष के वकील ने प्रस्तुत किया कि वह शिकायतकर्ता से कभी नहीं मिला था और अभियोजन की पूरी कहानी झूठी और नकली है और इस मामले में प्राथमिकी उसे ब्लैकमेल करने और पैसे ऐंठने के उद्देश्य से दर्ज कराई गई है।

आगे दलील दी गई कि आवेदक शिकायतकर्ता से कभी नहीं मिला और कोई निकाह या शादी नहीं हुई बल्कि वह शिकायतकर्ता-महिला के साथ PUBG के माध्यम से जुड़ा, जहां उसका नाम 'अनाया' था, और उसके बाद उसने अपना नाम 'हुस्ना आबिदी' रख ‌लिया। और कुछ दिनों बाद उसने अपना नाम 'इरम अब्बास' रखा।

इन आरोपों के आलोक में, आवेदक ने तर्क दिया कि शिकायतकर्ता ने सोशल मीडिया पर अलग-अलग नामों से अपनी पहचान बनाई थी, जिससे उसके मन में संदेह पैदा हुआ और इस प्रकार उसने उसे ब्लॉक कर दिया।

अंत में, यह भी प्रस्तुत किया गया कि यदि पूरे आरोप को सच माना जाता है तब भी आईटी अधिनियम और धारा 507 आईपीसी के तहत दंडनीय अपराध नहीं बनता है।

न्यायालय की टिप्पणियां

शुरुआत में, अदालत ने कहा कि अग्रिम जमानत तब दी जा सकती है जब यह दिखाने के लिए रिकॉर्ड पर सामग्री हो कि अभियोजन स्वाभाविक रूप से संदिग्ध है या जहां यह दिखाने के लिए सामग्री हो कि झूठे निहितार्थ की संभावना है।

इसके अलावा, कोर्ट ने यह भी कहा कि यह अच्छी तरह से स्थापित कानून है कि अग्रिम जमानत देने के सवाल पर विचार करते हुए न्यायालय को प्रथम दृष्टया कथित अपराध की प्रकृति, गंभीरता और आरोपी की भूमिका पर गौर करना होगा।

इस पृष्ठभूमि में मामले के तथ्यों का जिक्र करते हुए अदालत ने देखा कि आईटी अधिनियम की जांच धारा 67-ए को हटा दिया गया है और धारा 420, 500, 507 आईपीसी, और धारा 66-ई आवेदक के खिलाफ हैं और 19.05.2019 को संबंधित अदालत में आरोप पत्र दायर किया गया है।

अदालत ने आगे कहा कि ब्लैकमेलिंग का आरोप आवेदक के खिलाफ साबित नहीं होता है और उसका कोई पिछला आपराधिक इतिहास नहीं है। इसलिए आरोप की प्रकृति को देखते हुए अदालत ने उसे अग्रिम जमानत पर रिहा होने का हकदार पाया।

केस का शीर्षक - मोहम्मद अली बनाम यूपी राज्य और अन्य।

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