पीड़िता पर चोट के निशान न होना सेक्स के लिए सहमति का संकेत, पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने रेप के मामले में बरी करने के फैसले को कायम रखा
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा है कि पीड़िता या शिकायतकर्ता पर चोट की अनुपस्थिति से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह संभोग करने के लिए एक सहमत थी। इसी के साथ हाईकोर्ट ने बलात्कार के मामले में बरी किए जाने फैसले के खिलाफ अपील को नामंज़ूर कर दिया।
मेडिकल एक्सपर्ट ने कहा कि पीड़िता के साथ हाल ही में संभोग की संभावना थी ... परंतु चिकित्सक को पीड़िता के शरीर पर कोई चोट नहीं मिली, जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह संभोग के लिए एक सहमत पक्षकार थी। शिकायतकर्ता की गवाही की पुष्टि के लिए कोई सबूत नहीं है कि वह बलात्कार की शिकार हुई थी। इन परिस्थितियों में प्रतिवादियों को संदेह का लाभ दिया गया।
जस्टिस जसवंत सिंह और जस्टिस ललित बत्रा की खंडपीठ ने कहा, "अभियोक्त्री की गवाही को सही साबित करने वाले कोई पुख्ता सबूत नहीं है, जिनके आधार पर यह कहा जा सके कि वह बलात्कार की शिकार हुई थी...इन परिस्थितियों में हम प्रतिवादियों को संदेह का लाभ देते हैं।''
सुप्रीम कोर्ट के फैसला, पीड़िता की शारीरिक चोट जरूरी नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले कई मौकों पर माना है कि रेप के अपराध को साबित करने के लिए पीड़िता की शारीरिक चोट जरूरी नहीं है। कृष्णव बनाम हरियाणा राज्य ( क्रिमनल अपील नंबर 1342/2012) मामले में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस एन.वी रमना की दो सदस्यीय पीठ ने कहा था कि बलात्कार का आरोप तब भी बरकरार रहेगा, जब पीड़ित के शरीर पर कोई चोट न हो।
इस मामले में चंडीगढ़ प्रशासन द्वारा यह अर्जी दायर की गई थी, जिसमें अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश-सह- विशेष न्यायालय के जज, चंडीगढ़ द्वारा दिए गए बरी के फैसले के खिलाफ अपील दायर की थी। इस मामले में प्रतिवादी आरोपियों को आईपीसी की धारा 363, 366, 120-बी,376-डी व 342के तहत किए गए अपराधों से बरी कर दिया गया था।
यह था मामला
अभियोजन पक्ष का मामला यह था कि प्रतिवादी-आरोपी अमित, सूरज, कन्नू और विकास ने शिकायतकर्ता की बेटी का चाकू की नोक पर एक 'जागरण' से अपहरण कर लिया था। यह भी आरोप लगाया गया था कि आरोपियों ने उसकी बेटी को दो दिनों तक एक झुग्गी में कैद रखा और उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया।
इन आरोपों को नकारते हुए बचाव पक्ष ने दावा किया था कि पीड़िता का एक अभियुक्त अमित के साथ प्रेम-प्रसंग था, इसलिए पीड़िता के माता-पिता ने उन सभी को 'सबक सिखाने' के इरादे से इस मामले में झूठा फंसा दिया था।
ट्रायल कोर्ट ने आरोपियों को यह कहते हुए आरोपमुक्त कर दिया था कि अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए गए साक्ष्य कमजोर हैं, इसलिए मामला उचित संदेह से परे साबित नहीं हो पाया।
हाईकोर्ट का फैसला
उपरोक्त आदेश को सही ठहराते हुए, हाईकोर्ट ने भी अभियोजन पक्ष के केस की कई अनियमितताओं को इंगित किया। अदालत ने कहा,
''हमारा विचार है कि इस मामले में पीड़िता का न तो अपहरण किया गया और न ही उसे उसे भगाकर ले गए थे। ट्रायल कोर्ट के समक्ष अभियोजन पक्ष की कहानी बहुत ही अनुचित साबित हुई है और बचाव पक्ष की दलील संभव है।''
अदालत ने जागरण जैसे भीड़ भरे स्थान से पीड़िता के अपहरण के बारे में संदेह व्यक्त किया और कहा कि-
''अभियोजन पक्ष द्वारा यह साबित नहीं किया गया है कि 'जागरण' जैसे अवसर पर एकत्रित भीड़ से आरोपी उसका अपहरण कैसे करके ले गए। यह अभियोजन पक्ष का मामला नहीं है कि 'जागरण' का समापन रात को लगभग 11/12 बजे हो गया था। इस प्रकार, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पीड़िता 'जागरण' के समापन तक वहीं बैठने वाली थी। अभियोजन पक्ष द्वारा यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि वह कैसे आरोपी की साथ आई और कैसे आरोपी ने उसे चाकू की नोंक पर अगवा कर लिया।''
कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर पीड़िता को वास्तव में उसकी सहमति के बिना वहां से ले जाया गया था और अवैध रूप से उसे बंद करके रखा गया था, तो उसे किसी भी विवेकशील या सामान्य व्यक्ति की तरह ऐसी स्थिति में चिल्लाना चाहिए था।
''यदि अभियुक्त के घर पर पीड़िता को गलत तरीके से कैद किया गया था ... लगभग दो दिनों के लिए, तो ऐसे में उसे शोर-मचाना ओर रोना चाहिए था। अभियोजन का यह भी मामला नहीं है कि पीड़िता को कोई भी नशीला पदार्थ दिया गया था, जिसके कारण, वह दो दिनों तक अपना होश खो बैठी थी और शोर मचाने की स्थिति में नहीं थी। इसलिए, किसी भी नशीले पदार्थ की अनुपस्थिति में, जब दो दिनों तक शांति के घर में उसे जबरन कैद रखा गया तो वह रोने और शोर मचाने में सक्षम थी।''
इन परिस्थितियों में, अदालत ने कहा कि ट्रायल कोर्ट के फैसले में कोई कमी नहीं थी। लिहाजा हाईकोर्ट ने अपील खारिज कर दी। चंडीगढ़ प्रशासन का प्रतिनिधित्व ए.पी.पी आशिमा मोर और अधिवक्ता संजीव के. अरोड़ा ने किया।