राफेल फैसले में "पेटेंट तथ्यात्मक और कानूनी त्रुटियां" हैं : यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की
वर्ष 2015 के राफेल सौदे की स्वतंत्र जांच की मांग करने वाली याचिकाओं के खारिज होने के बाद, पूर्व केंद्रीय मंत्री, अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा के साथ-साथ जाने-माने वकील, प्रशांत भूषण ने एक बार फिर से उच्चतम न्यायालय का रुख किया है। उनके द्वारा 14 दिसंबर के उच्चतम न्यायालय के फैसले के पुनर्विचार की मांग की गई है।
इस याचिका के अनुसार उक्त फैसले में निम्नलिखित त्रुटियां हैं, जिन्हें इस प्रकार से इंगित किया गया है:
यह दावा किया गया है कि अदालत द्वारा याचिकाकर्ताओं की प्रार्थना (सीबीआई द्वारा एफआईआर और जांच) का निपटारा नहीं किया गया और इसके बजाए सौदे की असामयिक समीक्षा, विवादित तथ्यों से उठ रहे सवालों की जांच अथवा पूछताछ किये बिना, की गई है
याचिका में तर्क दिया गया है कि, "सीबीआई को किसी शिकायत पर एफआईआर दर्ज करने के निर्देश देना और किसी भी अनुबंध (रक्षा से संबंधित या अन्यथा) की जांच करने के लिए निर्देश की मांग करना, उक्त अनुबंध की माननीय न्यायालय द्वारा न्यायिक समीक्षा की मांग से अलग है .."
"… सांविधिक प्राधिकारियों (जैसा कि याचिकाकर्ता द्वारा मांगा गया है) या किसी आयोग के माध्यम से किसी भी जाँच के बिना तत्काल मामले में माननीय न्यायालय ने असामयिक रूप से इस अनुबंध की समीक्षा की है, यहां तक कि सीबीआई को यह अवसर दिए बिना कि वो माननीय न्यायालय को याचिकाकर्ता की शिकायत की स्थिति एवं अपने विचार प्रस्तुत करें, इस मामले का निपटारा कर दिया गया है।"
यह आरोप लगाया गया है कि किया गया फैसला उन तथ्यों पर आधारित हैं जो "पूरी तरह झूठे हैं"। आरोप में सौदे की कीमत पर एक सील कवर नोट स्वीकार करने के लिए अदालत की आलोचना भी की गई है।
याचिका में दावा किया गया है कि, "सीबीआई द्वारा किसी भी जांच के अभाव में और उसके नतीजों का इंतजार किए बिना माननीय न्यायालय ने एक औसत नोट पर भरोसा किया। ना तो प्राथमिक दस्तावेजों की जांच की गयी है और ना ही सकल तथ्यात्मक त्रुटियों पर ध्यान दिया गया है।"
याचिका में आगे कहा गया है कि अदालत ने मूल्य निर्धारण विवरण पर नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की एक रिपोर्ट पर ध्यान दिया है जबकि कैग द्वारा इस अनुबंध पर अपने ऑडिट का निष्कर्ष देना अभी बाकी है।
याचिका में तर्क दिया गया है कि, "सरकार ने माननीय न्यायालय को गलत तरीके से गुमराह किया है और माननीय न्यायालय ने त्रुटिपूर्वक एक ऐसे नोट पर अपने फैसले को आधारित किया जो सरकार के शपथ पत्र द्वारा समर्थित नहीं था। यह पूरा निर्णय विवादित तथ्यों के उन प्रश्नों पर आधारित है जिसके संबंध में जांच की आवश्यकता है। चूंकि ये फैसला याचिकाकर्ताओं के साथ साझा नहीं किए गए नोट पर आधारित है, इसलिए उस आधार पर दिए गए इस पूरे निर्णय पर न केवल फिर से विचार किया जाना चाहिए बल्कि इसे वापस भी लिया जाना चाहिए। "
याचिका में दावा किया गया है कि उक्त फैसला, सरकार के नोट में दिए गए गलत तथ्यों पर आधारित है जो कि रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री (जिसको ध्यान में नहीं लिया गया) के साथ विरोधाभासी हैं। यह अनिवार्य रूप से उन दावों से संबंधित है जिसमे कहा गया है कि आरएफपी की वापसी मार्च, 2015 में शुरू की गई थी और यह सौदा एचएएल और दसॉल्ट के बीच के मुद्दों के चलते रुक गया था।
इसमें भौतिक तथ्यों पर विचार न करने के साथ- साथ कई अन्य त्रुटियों को भी उजागर किया गया है और प्रासंगिक मुद्दों को उठाया गया है : जैसे कि इंटर गवर्नमेंट समझौते में फ्रांस द्वारा संप्रभु गारंटी की अनुपस्थिति (भले ही यह रक्षा खरीद प्रक्रिया द्वारा निर्धारित किया गया हो), 5.2 बिलियन से 8.2 बिलियन यूरो का बेंचमार्क मूल्य बढ़ाने पर भारतीय वार्ता टीम (INT) की आपत्तियां और एक ऑफसेट पार्टनर के रूप में अंबानी के RAL का चयन।
इसके अलावा याचिका में रिकॉर्ड पर मौजूद अन्य तथ्यों को भी उजागर किया गया है जिन पर विचार की आवश्यकता है। उदाहरण के तौर पर, यह आरोप कि आधिकारिक रूप से तत्कालीन रक्षा मंत्री, मनोहर पर्रिकर से 36 राफेल विमानों की खरीदारी हेतु सलाह नहीं ली गयी थी।
इस तरह के दावे के साथ याचिका में यह तर्क दिया गया है कि दिए गए फैसले में "पेटेंट तथ्यात्मक और कानूनी त्रुटियां" हैं और इसलिए इस फैसले पर पुनर्विचार की मांग की गई है।