गैर-यौगिक या समझौते के अयोग्य मामलों में नहीं दी जा सकती है पक्षकारों के बीच समझौते की अनुमति,लेकिन सजा तय करते समय हो सकता है यह एक विचारयोग्य कारक-सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]
सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि गैर-यौगिक या समझौते के अयोग्य मामलों में पक्षकारों के बीच समझौता दर्ज करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
जस्टिस आर. भानुमथि और जस्टिस ए. एस. बोपन्ना की पीठ ने हालांकि यह भी नोट किया कि समझौते के अयोग्य मामलों में आरोपी को सजा देते समय दोनों पक्षकारों के बीच हुए समझौते को एक जरूरी परिस्थितिजन्य कारक के तौर पर कोर्ट अपने दिमाग में रख सकती है या उस पर विचार कर सकती है।
पीठ ने आरोपी की 5 साल की सजा को कम करते हुए 2 साल कर दिया, जो वह पहले ही काट चुका है। इसलिए उसे रिहा करने का आदेश दिया गया है।
पीठ ने ईश्वर सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में की गई टिप्पणियों का हवाला भी दिया, जो इस प्रकार है।
"13- जेठ राम बनाम राजस्थान राज्य, (2006) 9 एससीसी 255, मुरूगेशन बनाम गणपथी वेलर, (2001) 10 एससीसी 504 और ईश्वर लाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य, (2008)15 एसीसीसी 671, यह कोर्ट इस तथ्य को ध्यान में रख रही है कि दोनों पक्षों के बीच समझौता हो गया है। इसलिए आरोपी को दी गई सजा को कम करके उसके द्वारा जेल में बिताए गए दिनों को ही उसकी पर्याप्त सजा के तौर पर माना जा रहा है, जबकि उसका अपराध समझौते के योग्य नहीं है। परंतु महेश चंद बनाम राजस्थान राज्य,1990 एसयूपीपी 681 मामले में इस तरह के अपराध को संयोजित या समझौते योग्य मानने का आदेश दिया गया था।
14- हमारा मानना है कि यह उचित नहीं होगा कि उस अपराध को संयोजित या समझौते योग्य मानने का आदेश दिया जाए जो कानून के तहत समझौते योग्य नहीं है। हालांकि हम यह मानते हैं कि हमारे निर्णय में याचिकाकर्ता के वकील की वह सीमित दलीलें विचार योग्य है कि आरोपी को सजा देते समय दोनों पक्षकारों के बीच हुए समझौते को एक जरूरी परिस्थितिजन्य कारक के तौर पर माना जाए, जिस पर कोर्ट सजा देते समय विचार करे।''