नेकचलनी पर रिहा होने से एक कर्मचारी को यह अधिकार नहीं मिल जाता है कि वह अपनी सेवा में बने रहने का हक मांग सके-सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]

Update: 2019-05-01 09:54 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने दाॅ स्टेट बैंक आॅफ इंडिया एंड अदर्स बनाम पी.सुप्रामनीएने मामले में कहा है कि नेकचलनी पर रिहा होने से एक कर्मचारी को यह अधिकार नहीं मिलता है िक वह उसे नौकरी पर वापिस रखने की मांग करे। कोर्ट ने कहा कि नियोक्ता का यह कत्र्तव्य बनता है कि अगर कोई कर्मचारी ऐसे मामले में दोषी करार दिया जाता है,जिसमें नैतिक या न्यायसंगत भ्रष्टता(मोरल टर्पिटूड) शामिल है तो वह उसे नौकरी से हटा दे।

जस्टिस एल-नागेश्वर राॅव व एम.आर शाह की पीठ ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुशील कुमार सिंघल बनाम पंजाब नेशनल बैंक(2010)8 एससीसी 573 में दिए गए फैसले को आधार बनाया है।
केस का संक्षिप्त विवरण
पी.सुप्रामनीएने पांडिचेरी में स्टेट बैंक आॅफ इंडिया में बतौर मैसेंजर काम करता था। उसे एक आपराधिक मामले में दोषी करार दिया गया,जिसमें ''न्यायसंगत भ्रष्टता'' शामिल थी। इस आधार पर बैंक ने उसे नौकरी से हटा दिया। निचली अदालत ने उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 324 (स्वेच्छापूर्वक किसी को खतरनाक हथियारी से घायल करना) के तहत दोषी करार देते हुए तीन माह कैद की सजा दी थी। अपीलेट कोर्ट ने उसको दोषी करार दिए जाने को सही ठहराया परंतु उसे नेकचलनी पर रिहा कर दिया। अपीलेट कोर्ट का मानना था कि उसे सीआरपीसी की धारा 360 का लाभ दिया जा सकता है। एक कारण यह भी दिया गया िकवह बैंक में बतौर मैसेंजर काम करता था। ऐसे में कोई भी सजा उसके कैरियर को प्रभावित करेगी।
सुप्रामनीएने ने अपील दायर कर उसे नौकरी से हटाने के आदेश को चुनौती दी परंतु वह खारिज हो गई। उसके बाद उसने मद्रास हाईकोर्ट में एक रिट पैटिशन दायर की। जिसे एक सदस्यीय पीठ ने खारिज कर दिया। उसके बाद उसने रिट अपील दायर की,जिसे दो सदस्यीय पीठ ने स्वीकार कर लिया। उसे नौकरी से हटाने के आदेश को रद्द कर दिया गया और बैंक को निर्देश दिया गया कि उसे वापिस नौकरी पर रख ले। साथ ही कहा गया कि जिस दिन से उसे नौकरी से हटाया गया है,उस दिन से लेकर उसे नौकरी पर वापिस रखने की अवधि के लिए उसके वेतन का एक चैथाई हिस्सा उसे दिया जाए।
बैंक ने सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर कर दी। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में नोटिस जारी किया और हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी गई। उसके बाद अंतिम आदेश दे दिया गया।
जरूरी नहीं है कि हमला करने या मामूली चोट पहुंचाने के सभी मामलों में शामिल हो नैतिक या न्यासंगत भ्रष्टता
सुप्रामनीएने को नौकरी से इस आधार पर हटाया गया था कि उसे जिस मामले में दोषी करार दिया गया है उसमें न्यायसंगत भ्रष्टता शामिल है। नियोक्ता के आदेश को पढ़ने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल पर विचार किया कि किसको ''न्यायसंगत भ्रष्टता'' माना जाए और किसको नही।
''बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट की धारा 10(1)(बी)(आई) के अनुसार अगर किसी कर्मचारी को न्यायसंगत भ्रष्टता के अपराध वाली श्रेणी में दोषी करार दे दिया जाता है तो वह बैंक में नौकरी जारी रखने के योग्य नहीं रहता है। कोर्ट ने देखा कि क्या बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट की धारा 10(1)(बी)(आई) इस मामले पर लागू होती है या नहीं। क्या भारतीय दंड संहिता की धारा 324 के तहत दोषी करार दिए गए कर्मचारी के इस मामले में ''न्यायसंगत भ्रष्टता'' शामिल है या नहीं।
कोर्ट ने मामले के सभी तथ्यों को देखने के बाद कहा कि यह कहना बहुत मुश्किल है कि हर हमला न्यायसंगत भ्रष्टता के अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। एक साधारण हमला एक ज्यादा गंभीर हमले से अलग होता है। हर हमले या साधारण हमले को न्यायसंगत भ्रष्टता के अपराध की श्रेणी में नहीं माना जा सकता है। दूसरी तरफ हमले में कोई ऐसा खतरनाक हथियार प्रयोग करना,जिससे पीड़ित की मौत हो सकती हो,ऐसे हमला न्यायसंगत भ्रष्टता अपराध का परिणाम हो सकता है। इस मामले के पूरे तथ्यों को देखने के बाद हमारा विचार है कि प्रतिवादी ने जो अपराध किया है,उसमें न्यायसंगत भ्रष्टता या मोरल टूर्पिटूड शामिल नहीं थी। कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश के सही ठहराते हुए इस मामले में दायर अपील को खारिज कर दिया।''
कोर्ट ने कहा कि निम्नलिखित टेस्ट अप्लाई करके यह निर्णय किया जा सकता है कि किसी अपराध में न्यायसंगत भ्रष्टता शामिल है या नहीं। इस मामले में कोर्ट ने इलाहाबाद कोर्ट द्वारा मनगली बनाम चक्की लाल,एआईआर 1963 एएलएल 527 मामले में दिए गए टेस्ट की फिर से पुष्टि की।
ए-क्या जिस अपराध के लिए सजा हुई है,उससे समाज या नैतिक जमीर को अघात पहुंचा है।
बी-क्या जिस मकसद के लिए अपराध किया गया है वह इस पर आधारित था
सी- जो हरकत की है,क्या उसके आधार पर मुजरिम पर विचार किया जा सकता है।

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