विवाह द्वारा धर्मांतरण के खिलाफ लागू यूपी अध्यादेश ने पसंद की आजादी और गरिमा को पीछे छोड़ दिया हैः जस्टिस लोकुर
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन बी लोकुर ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा हाल ही में विवाह के उद्देश्य से धार्मंतरण को आपराधिक बनाने के लिए लाए गए अध्यादेश की आलोचना की है।
उन्होंने 'उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020' को "पसंद की आजादी और गरिमा को पीछे छोड़ने वाला बताया है।"
उन्होंने कहा, "मध्य प्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा, असम राज्य ऐसे ही अध्यादेशों को लागू करने की योजना बना रहे हैं। इस कानून का मकसद, जिसे आम तौर पर 'लव जिहाद' कहा जाता है, उसी पर रोक लगाना है।"
जस्टिस लोकुर ने कहा, "हालांकि 'लव जिहाद' की कोई परिभाषा नहीं है। एक मुख्यमंत्री ने परिभाषित किया था कि 'जिहादी असली नाम और पहचान छिपाकर हमारी बहनों और बेटियों के सम्मान और प्रतिष्ठा के साथ खेल रहे हैं।' एक अन्य मुख्यमंत्री ने यहां तक कहा था कि अगर ये जिहादी अपने रास्ते नहीं बदलते हैं, तो यह उनकी कब्र की यात्रा की शुरुआत होगी। 'क्या इस संभवित मौत की सजा को पहले से ही संविधान या कानून के तहत मंजूर मिल चुकी है? यह मॉब लिंचिंग की प्रवृत्ति का पुनरुत्थान प्रतीत होता है? ... पसंद की आजदी के बारे में क्या? बाल विवाह के खिलाफ जंग की घोषणा क्यों नहीं की, जोकि परिभाषा अनुसार भी जबरिया विवाह है?",
जस्टिस लोकुर ने कहा, "बहुत ही सावधानी से निर्मित किया गया गरिमा का न्यायशास्त्र, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने वर्षों की मेहनत से तैयार किया, उसे हाथरस जैसा अंतिम संस्कार दिया जा रहा है।"
फिजी की सुप्रीम कोर्ट में जज के रूप में कार्यरत जस्टिस लोकुर ने यह टिप्पणियां 29 नवंबर को आयोजित सातवें सुनील मेमोरियल लेक्चर में कही, जिसका विषय था, न्यायपालिका और सामाजिक न्याय, गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता- मानव अधिकार और भय "।
जस्टिस लोकुर ने कहा कि जहां तक व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सवाल है, भारत की सुप्रीम कोर्ट एक लंबी यात्रा कर चुकी है। उन्होंने कहा, लेकिन अब अदालतें इसे उलटी दिशा में ले जा रही हैं।
जस्टिस लोकुर ने, यह संकेत करते हुए कि असंतोष को अब प्रायः राजद्रोह माना जा रहा है, जिसे बदले में यूएपीए के तहत अपराध माना जा रहा है, चेतावनी दी कि जल्द ही ऐसा कोई भी अपराध राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम को आकर्षित कर देगा, जिसके बाद निवारक निरोध कानून लागू होने की भयानक आशंका होगी।
उन्होंने कहा, "तब अधिकार, भय में बदल जाएगा।"
जस्टिस लोकुर ने पत्रकार सिद्धिक कप्पन के उदाहरण का उल्लेख किया, जिन्हें तब गिरफ्तार किया गया, जब वह हथरस के दलित लड़के के बलात्कार और हत्या के मामले को कवर करने जा रहे थे। उन्हें सीआरपीसी की धारा 107 और 151 के तहत, शांति भंग करने की आशंका, सार्वजनिक शांति भंग करने और संज्ञेय अपराध करने के आरोप में हिरासत में लिया गया।
जस्टिस लोकुर ने कहा "आदर्श रूप से उसेतुरंत अच्छे व्यवहार का एक व्यक्तिगत बांड भरने के बाद रिहा किया जाना चाहिए था। हालांकि, सीआरपीसी की धारा 111 और 115 के सुरक्षा उपायों का पालन नहीं किया गया ... उसे एक वकील से सलाह लेने का समय नहीं दिया गया, और जब उन्हें अदालत में पेश किया गया, उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। इसके बाद, उसके खिलाफ UAPA के तहत अपराध और राजद्रोह की धाराओं में प्राथमिकी दर्ज की गई। कामकाजी पत्रकारों के एक संघ ने अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की। हिंदू और कानून की अन्य वेबसाइटों ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट याचिका पर सुनवाई नहीं करना चहता था। इस तथ्य के बावजूद कि मामला व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता के महत्वपूर्ण मुद्दे से संबंधित था, और कहा कि संघ संबंधित उच्च न्यायलय से संपर्क कर सकता है। संघ को याचिका में संशोधन करने की स्वतंत्रता दी गई और याचिका को चार सप्ताह के लिए स्थगित कर दिया गया।"
जस्टिस लोकुर ने कहा, "अनुच्छेद 32 संविधान के भाग III द्वारा दिए गए किसी भी मौलिक अधिकार के प्रवर्तन के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के अधिकार की गारंटी देता है....
जस्टिस लोकुर ने पत्रकार को अपने वकील से मिलने की अनुमति न देने के सीजेएम के आदेश और जेल अधिकारियों द्वारा व्यक्त की गई असहायता को बुनियादी मानवाधिकारों और कानून के शासन के उल्लंघन रूप में वर्णित किया।
उन्होंने कहा, 'सीजेएम ने एक गुप्त आदेश पारित किया था, जिसमें कहा गया कि ऐसा कोई आदेश सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित नहीं किया गया है और आवेदन के साथ संलग्न वकील के पास कोई शक्ति नहीं है और इसलिए, आवेदन खारिज किया जाता है। देखिए, मजिस्ट्रेट ने असंभव स्थिति बनाई और जेल के अधिकारियों ने न्याय तक पहुंच से इनकार करने में और आगे बढ़े गए।"
जस्टिस लोकुर ने "आपराधिक न्याय प्रणाली में गरिमा की अनुपस्थिति" के कई उदाहरणों का उल्लेख किया, जैसे भीमा कोरेगांव मामले के अभियुक्त वरवारा राव, स्टेन स्वामी, और सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों का मामाला।
गरिमा के पहलू पर जस्टिस लोकुर ने नालसा के मामले में 2014 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की सराहना की, जिससे लिंग पहचान और यौन अभिविन्यास को मान्यता दी गई थी।
"सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ट्रांसजेंडर तीसरे लिंग का गठन करते हैं। यह एक समुदाय के लिए बहुत ही बड़ा निर्णय था, जिसे वर्षों से समाज ने अलग-थलग रखा था। इस फैसले के परिणामस्वरूप, ट्रांसजेंडर मतदान कर सकते थे और यहां तक कि चुनाव भी लड़ सकते थे। एक को भारत के चुनाव आयोग द्वारा सद्भावना राजदूत नियुक्त किया गया और एक को राजनीतिक दल के प्रवक्ता के रूप में एक नियुक्त किया गया। और फिर, 2018 में नवतेज सिंह जौहर का फैसला था, जिससे एलजीबीटीक्यू समुदाय के लिए पहचान को स्वीकार किया।
जस्टिस लोकुर ने कहा कि यदि संसद ने कानून बनाया है या भले ही कोई भी हिस्सा कानून द्वारा शासित नहीं है, या कार्यपालिका कानून को लागू नहीं करती है, तो सुप्रीम कोर्ट अपने हाथ बांधे नहीं रह सकता है। उन्होंने 1977 के मोहिंदर सिंह गिल मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों पर विधायी ढांचे में किसी भी तरह की कमी के मामले में, चुनाव आयुक्त अपने हाथ बांधे नहीं रह सकते हैं...उन्हें स्वतंत्र रूप से अपनी शक्ति का प्रयोग करना चाहिए और स्थिति से निपटना चाहिए।
उन्होंने कहा कि यद्यपि न्यायपालिका और भारत ने सामाजिक न्याय, गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए बहुत योगदान दिया है, लेकिन कुछ विचारों को अब पीछे छोड़ा जा रहा है और अब समय है कि इन पहलुओं पर फिर से ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया जाए।