'सतर्क प्रहरी' का सुप्रीम कोर्ट का मुहावरा जीर्ण हुआ हो सकता है, लेकिन जजों को सदैव इसका मूल्य खुद याद रखना चाहिए : सुप्रीम कोर्ट

Update: 2020-10-02 09:01 GMT

"बदलते समय के बीच यह मुहावरा आलेखों, संगोष्ठियों और अब वेबिनारों की भरमार में जीर्ण हुआ हो सकता है।"

इस कोर्ट का 'सतर्क प्रहरी' का मुहावरा जीर्ण हुआ हो सकता है, लेकिन यदि संवैधानिक चेतना को सार्थक बनाये रखना है, तो न्यायाधीशों को अपने पूर्ण कार्यकाल में खुद ही इसके मूल्य को सदैव याद रखना चाहिए। न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने गुरुवार को दिये गये एक फैसले में यह टिप्पणी की।

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यह टिप्पणी अपने उस फैसले में की जिसके माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार के श्रम एवं नियोजन विभाग की ओर से जारी अधिसूचना को निरस्त कर दिया। संबंधित अधिसूचना में गुजरात श्रम एवं नियोजन विभाग ने राज्य के सभी कल-कारखानों को फैक्ट्री अधिनियम, 1948 के उन प्रावधानों से छूट दी थी, जिसके तहत रोज और साप्ताहिक काम के घंटों, आराम को लेकर मध्यावकाश और धारा 59 के तहत दोगुनी दर पर ओवरटाइम दिया जाना निर्धारित किया गया है। कोर्ट ने कहा कि व्यक्ति के काम की शर्तों और कानून द्वारा निर्धारित ओवरटाइम को दरकिनार करने वाली अधिसूचना संविधान के अनुच्छेद 21 और 23 के तहत कामगारों के जीवन के अधिकार तथा बंधुआ मजदूरी के खिलाफ अधिकारों का उल्लंघन है।

'सतर्क प्रहरी' के बारे में की गयी टिप्पणी इस प्रकार है :

"संविधान आर्थिक प्रयोग की इजाजत देती है। नीतिगत, खासकर आर्थिक नीति के, मामलों को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखा जाना न्यायसंगत है। लेकिन राज्यों के नीति निर्देशक सिद्धांतों को व्याख्या की चालाकियों से विस्मृत करने की सीमा तक कम नहीं किया जा सकता। एक कामगार, जिसने महामारी के दंश झेले हैं और फिलहाल किसी फीजिकल डिस्टेंसिंग के बगैर और विधि के तहत उपलब्ध अधिकारों पर आधारित आथिर्क सम्मान के बिना काम कर रहा है, उसके लिए कोर्ट द्वारा इन चीजों को सुनिश्चित करना मामूली बात है। ...न्यायमूर्ति पतंजलि शास्त्री ने इस कोर्ट के मुहावरे 'सतर्क प्रहरी' को मद्रास सरकार बनाम बी जी रॉ के मामले में इसे मान्यता देकर न्याय शास्त्र में अमर बना दिया। बदलते समय में भले ही आलेखों, संगोष्ठियों और अब वेबिनारों की भरमार में यह मुहावरा जीर्ण हो गया हो। लेकिन जैसा कि मुहावरे के अर्थ से प्रतीत होता है, न्यायाधीशों को संवैधानिक चेतना को सार्थक बनाये रखने के लिए अपने कार्यकाल में इसके मूल्य को सदैव याद रखना चाहिए।"

'सेंटिनल ऑन द क्वि वाइव' को सामान्य तौर पर 'वाचफुल गार्जियन' के रूप में अनूदित किया जाता है। क्वि वाइव का अर्थ है चौकस या सतर्क। मद्रास सरकार बनाम वी जी रॉ के मामले में न्यायमूर्ति शास्त्री ने अपने फैसले में निम्नलिखित टिप्पणी की थी :

"कभी-कभी इस बात की अनदेखी की जाती है कि हमारे संविधान में कानून की न्यायिक समीक्षा के लिए संविधान के अनुरूप अभिव्यक्ति के प्रावधान मौजूद हैं, जबकि अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट ने छठे एवं 14वें संशोधन में 'ड्यू प्रोसेस' उपबंध की व्यापक व्याख्या के आधार पर विधायी कार्यों की समीक्षा का अधिकार परोक्ष रूप से मान लिया है। यदि, तब, इस देश की अदालतें इस तरह के महत्वपूर्ण और कठिन लक्ष्य का सामना करती हैं तो यह विधायिका के अधिकार को झुकाने की किसी धर्मयोद्धा की भावना से नहीं, बल्कि संविधान द्वारा उन्हें स्पष्ट तौर पर सौंपे गये दायित्व के निर्वहन के तहत करती है। 'मौलिक अधिकारों' के संबंध में यह विशष तौर पर सच है कि इस कोर्ट को 'सतर्क प्रहरी' (सेंटिनेल ऑन द क्वि वाइव) की भूमिका सौंपी गयी है। यद्यपि कोर्ट विधायी फैसलों को स्वाभाविक तौर पर बहुत अधिक तवज्जो देता है, लेकिन यह किसी विवादित कानून की संवैधानिकता के निर्धारण का अपना दायित्व नहीं छोड़ सकता।"

केस नाम : गुजरात मजदूर सभा बनाम गुजरात सरकार

केस नं. : रिट याचिका (सिविल) नंबर 708 / 2020

कोरम : न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति के एम जोसेफ

वकील : सीनियर एडवोकेट संजय सिंघवी, एडवोकेट अपर्णा भट (याचिकाकर्ताओं के लिए), एडवोकेट दीपान्विता प्रियंका (राज्य सरकार के लिए)

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