सुप्रीम कोर्ट ने MP के श्रम कानूनों के तहत अपराधों पर आपराधिक अदालतों में मुकदमा चलाने के संशोधन को बरकरार रखा 

Update: 2020-02-06 02:43 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश श्रम कानून (संशोधन) और विविध प्रावधान अधिनियम, 2002 को बरकरार रखा है जिसमें श्रम कानूनों के तहत अपराधों पर नियमित आपराधिक न्यायालयों में मुकदमा चलाने की शक्ति को बहाल किया गया है। 

दरअसल 1981 में अधिनियम में संशोधन किया गया था और श्रम कानूनों के तहत अपराधों पर मुकदमा चलाने की शक्ति श्रम न्यायालयों की बजाए नियमित आपराधिक न्यायालयों को दी गई थी। बाद में 2002 में, एक और संशोधन द्वारा, इस प्रक्रिया को उलटा करने की मांग की गई थी।

द लेबर बार एसोसिएशन, सतना और MP ट्रांसपोर्ट वर्कर्स फेडरेशन की याचिका को अनुमति देते हुए हाईकोर्ट ने इस संशोधन को इस आधार पर रद्द कर दिया था कि अनुच्छेद 21 ने त्वरित न्याय का अधिकार दिया और एक तरह से संशोधन ने त्वरित न्याय का यह अधिकार छीन लिया।

राज्य द्वारा दायर अपील में न्यायालय ने, शुरू में कहा :

हमें इस तथ्य के बारे में सचेत रहना होगा कि हम एक कानून की वैधता पर बहस कर रहे हैं जिसे निर्वाचित विधान सभा ने पारित किया है और उसने भारत के राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त की है। इस तरह के विधान को चुनौती देने का दायरा एक सीमित दायरे के भीतर है (जो कि भारत के संविधान के भाग III में गारंटीकृत मौलिक अधिकारों में से किसी एक के विधायी क्षमता और (2) उल्लंघन के दोहरे परीक्षण पर है)।

इस न्यायालय द्वारा ग्रेटर बॉम्बे को-ऑपरेटिव बैंक लिमिटेड बनाम यूनाइटेड यार्न टेक्स ( प्राइवेट लिमिटेड) में कानून के इस सिद्धांत पर बार-बार जोर दिया गया है।

हाईकोर्ट के फैसले से असहमति जताते हुए जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस के एम जोसेफ की पीठ ने कहा। 

वास्तव में क्या किया गया है कि जिन मामलों पर नियमित आपराधिक न्यायालयों द्वारा मुकदमा चलाया जा रहा थी, उन्हें 1981 के संशोधन द्वारा श्रम न्यायालयों में स्थानांतरित करने की मांग की गई थी और केवल उस प्रक्रिया को 2002 के लागू संशोधन से उलट करने की मांग की गई थी।

इस प्रकार, विधानमंडल के विवेक में, इस तरह के विवादों का समाधान करने के लिए एक मंच के रूप में नियमित आपराधिक न्यायालयों को बनाए रखने की प्रक्रिया के जरिए बेहतर ढंग से सेवा प्रदान की जाएगी, जो समान श्रम कानून से संबंधित एक आपराधिक पहलू है।

यह न्यायालय का कार्य नहीं है कि वह विधानमंडल के विवेक का परीक्षण करे और अपने दिमाग को उसी के साथ स्थानापन्न करे, जैसा कि आंध्र प्रदेश और अन्य बनाम

मैकडॉवेल एंड कंपनी और अन्य तथा मायलापुर क्लब बनाम तमिलनाडु राज्य के मामलों में दोहराया गया है। विधानमंडल के लिए इस पहलू को तौलने के लिए है कि आम आदमी को त्वरित न्याय प्रदान करने के लिए उपयुक्त विधि क्या होगी - एक ऐसा पहलू जो विधानमंडल और न्यायपालिका के ज्ञान के लिए सामान्य होगा।

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