सुप्रीम कोर्ट ने IS से कथित जुड़ाव के आरोप में गिरफ्तार व्यक्ति की ज़मानत याचिका पर NIA को नोटिस जारी किया
सुप्रीम कोर्ट ने माज़िन अब्दुल रहमान की ज़मानत याचिका पर नोटिस जारी किया, जिन पर प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट (IS) से कथित जुड़ाव के आरोप में गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के प्रावधानों के तहत मामला दर्ज किया गया।
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ कर्नाटक हाईकोर्ट के उस आदेश को रहमान की चुनौती पर विचार कर रही थी, जिसमें ज़मानत देने से इनकार करने वाले स्पेशल कोर्ट के आदेश के खिलाफ उनकी अपील खारिज कर दी गई।
हाईकोर्ट ने कहा,
"अनुच्छेद 21 को उन लोगों को संरक्षण देने के लिए बहुत लंबा नहीं खींचा जा सकता, जिन्हें कानून के शासन की ज़रा भी परवाह नहीं है, जो राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता के लिए खतरा पैदा करते हैं।"
संक्षेप में मामले
माज़िन अब्दुल रहमान पर IPC की धारा 120बी, 121, 121ए और UAPA की धारा 18, 20 और 38 के तहत आरोप लगाए गए। उसके खिलाफ आरोप है कि वह प्रतिबंधित संगठन IS का सदस्य था और अन्य सह-आरोपियों के साथ निकट संपर्क में रहते हुए आगजनी करने के लिए मैंगलोर में ठिकानों की रेकी कर रहा था। अभियोजन पक्ष के अनुसार, सभी आरोपियों का इरादा भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ना था।
अन्य बातों के अलावा, रहमान ने हाईकोर्ट के समक्ष तर्क दिया कि रेकी करने में शामिल होने के आरोप के अलावा, उसके खिलाफ राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में शामिल होने का कोई आरोप नहीं है। आरोप पत्र में खुलासा किया गया कि आरोपी नंबर 2 ने उसे रेकी करने के लिए प्रेरित किया। यह आरोप भी आरोपी नंबर 2 द्वारा दिए गए स्वैच्छिक बयान पर आधारित है।
यह भी दलील दी गई कि UAPA की धारा 43डी(5) के अनुसार, आरोपी के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया सत्य प्रतीत होने चाहिए। लेकिन रहमान के मामले में यदि पूरे आरोप पत्र की जांच की जाए तो यह नहीं कहा जा सकता कि आरोपों में प्रथम दृष्टया सच्चाई है, इसलिए वह जमानत का दावा करने का हकदार है।
अभियोजन पक्ष ने अपील का विरोध करते हुए कहा कि रहमान ने कई एन्क्रिप्टेड संचार प्लेटफार्मों का इस्तेमाल किया और कई आपत्तिजनक सामग्री प्राप्त की। सीडीआर से आरोपी नंबर 2 के साथ उसकी निकटता का पता चला। इसके अलावा, गवाहों के बयानों से पता चला कि उसने डार्क वेब से सामग्री/प्रचार डाउनलोड किए। अभियोजन पक्ष ने यह भी तर्क दिया कि धारा 43डी(5) के अनुसार, न्यायालय को इस निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि आरोप प्रथम दृष्टया सत्य है। एक बार जब सामग्री से संकेत मिलता है कि आरोप प्रथम दृष्टया सत्य हैं तो ज़मानत देने के लिए अन्य कारकों पर विचार करने की आवश्यकता नहीं रह जाती।
दोनों पक्षकारों को सुनने के बाद हाईकोर्ट ने माना कि UAPA की धारा 18 न केवल षड्यंत्र के लिए बल्कि अन्य कृत्यों जैसे आतंकवादी कृत्य करने का प्रयास, आतंकवादी कृत्य की वकालत, प्रोत्साहन, सलाह, उकसावा, प्रत्यक्ष या जानबूझकर सुविधा प्रदान करना या आतंकवादी कृत्य की तैयारी से संबंधित किसी भी कार्य के लिए भी दंड का प्रावधान करती है। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि कुछ स्थानों पर रेकी करना आतंकवादी कृत्य को अंजाम देने में सहायक था।
हाईकोर्ट ने कहा,
"हमारा सुविचारित मत है कि जब न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत सामग्री प्रथम दृष्टया हमारे देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए खतरा दर्शाती है, तो संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसके बजाय, संवैधानिक न्यायालयों का कर्तव्य है कि वे राष्ट्र और उसके समाज को ऐसे लोगों से बचाएं, जो राष्ट्र-विरोधी और समाज-विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं। राष्ट्र के बिना संविधान नहीं है।"
तदनुसार, कोर्ट ने ज़मानत की प्रार्थना अस्वीकार की और अपील खारिज कर दी।
Case Title: MAZIN ABDUL RAHMAN @ MAZIN vs. NATIONAL INVESTIGATION AGENCY, Diary No. - 56454/2025