"कोई राजनीतिक दल मुफ्त उपहारों के मुद्दे पर बहस नहीं करेगा": सुप्रीम कोर्ट ने सुझावों के लिए विशेषज्ञ निकाय बनाने के लिए कहा

Update: 2022-08-03 10:54 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि नीति आयोग, वित्त आयोग, विधि आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक, सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों के सदस्यों जैसे विभिन्न हितधारकों से युक्त विशेषज्ञ निकाय को चुनाव प्रचार के दौरान मुफ्त के वादे के मुद्दे को हल करने के लिए सुझाव देने की आवश्यकता होगी।

न्यायालय को ऐसी संस्था के गठन के लिए आदेश पारित करने में सक्षम बनाने के लिए चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) एनवी रमाना, जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने याचिकाकर्ता, केंद्र सरकार और भारत के चुनाव आयोग को सुझाव देने का निर्देश दिया।

पीठ ने अपने आदेश में कहा,

"हम सभी पक्षों को निर्देश देते हैं कि वे इस तरह के निकाय की संरचना के बारे में सुझाव दें ताकि हम निकाय के गठन के लिए आदेश पारित कर सकें ताकि वे सुझाव दे सकें।"

पीठ वकील अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर जनहित याचिका (पीआईएल) पर विचार कर रही थी। इस याचिका में मुफ्त उपहारों को विनियमित करने के निर्देश देने की मांग की गई है।

सुनवाई के दौरान, सीजेआई ने मौखिक रूप से टिप्पणी की कि कोई भी राजनीतिक दल इस मुद्दे पर बहस करने को तैयार नहीं होगा, क्योंकि सभी चुनाव के दौरान मुफ्त उपहार देना चाहते हैं।

सीजेआई रमाना ने सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल द्वारा दिए गए सुझाव पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा,

"मिस्टर सिब्बल, क्या आपको लगता है कि इस पर संसद में बहस करने के लिए वहां कोई होगा? कौन-सा राजनीतिक दल बहस करेगा? कोई भी राजनीतिक दल मुफ्त उपहारों का विरोध नहीं करेगा। इन दिनों हर कोई मुफ्त चाहता है।"

हालांकि, कपिल सिब्बल याचिका में किसी का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे है। सिब्बल को मामले में सुझाव देने के लिए पीठ द्वारा आमंत्रित किया गया है।

याचिकाकर्ता की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट विकास सिंह ने कहा कि राजनीतिक दलों को मुफ्त उपहार बांटते समय जनता के कर्ज को ध्यान में रखना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि राजकोषीय अनुशासन से संबंधित मामले के बाद से सुझाव देने के लिए आरबीआई को पक्षकार के रूप में शामिल किया जा सकता है।

सिंह ने कहा,

"यदि आप फ्रीबी बना रहे हैं तो इसके लिए निश्चित राशि है, जहां से आप इसे लेंगे। लोन को ध्यान में रखा जाना चाहिए, जो अब 60,000 करोड़ रुपए है। आपको यह दिखाना होगा कि राशि कहां से आएगी। देखा जाना चाहिए कि यह पैसा किसकी जेब से जाता है।"

केंद्र सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने प्रस्तुत किया कि लोकलुभावन वादे "मतदाता के सूचित निर्णय लेने को विकृत करते हैं।" यदि इसे अनियंत्रित छोड़ा जाता है तो यह प्रथा देश को "आर्थिक आपदा" की ओर ले जाएगी।

सीजेआई ने जब बताया कि चुनाव आयोग ने मामले में "हाथ खड़े कर दिए" है तो एसजी ने सुझाव दिया कि चुनाव आयोग को अपने रुख पर फिर से सोचने के लिए कहा जाए।

एस सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य और अन्य (2013) 9 एससीसी 659 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र करते हुए भारत के चुनाव आयोग के लिए एडवोकेट अमित शर्मा ने प्रस्तुत किया कि दिशानिर्देशों को आदर्श आचार संहिता में शामिल किया जा सकता है।

इस मौके पर सीनियर एडवोकेट विकास सिंह ने चुनाव आयोग को मॉडल घोषणापत्र तैयार करने का सुझाव दिया, जो पार्टियों को उन स्रोतों का खुलासा करने के लिए वादे करने की अनुमति देता है, जहां से मुफ्त वादों को पूरा करने के लिएपैसे का भुगतान किया जाएगा।

सीजेआई एनवी रमाना ने मॉडल घोषणापत्र को खाली औपचारिकता और याचिका में मुद्दे को "गंभीर" बताते हुए कहा कि ईसीआई और सरकार यह नहीं कह सकते कि वे कुछ नहीं कर सकते।

सीजेआई ने कहा,

"आदर्श आचार संहिता लागू होने पर ये सभी खाली औपचारिकताएं हैं? चुनाव से ठीक पहले। पूरे चार साल आप कुछ करेंगे और फिर अंत में आप आदर्श आचार संहिता शामिल करेंगे। यह गंभीर मुद्दा है और चुनाव आयोग और सरकार यह नहीं कह सकते कि हम इसमें कुछ नहीं कर सकते। उन्हें इस मुद्दे पर विचार करना होगा और सुझाव देना होगा।"

सिब्बल ने प्रस्तुत किया कि मुद्दे मध्याह्न भोजन, गरीबों के लिए राशन से लेकर मुफ्त बिजली तक हैं। उन्होंने कहा कि दिखावटी आदेश पारित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि चुनाव के दौरान कुछ कमजोर वर्गों के लिए वास्तविक कल्याणकारी उपाय हैं और अन्य केवल लोकलुभावन घोषणाएं होती हैं।

सीजेआई ने कहा कि न्यायालय सभी हितधारकों की राय लिए बिना कोई आदेश पारित नहीं करेगा।

सीजेआई ने कहा,

"हम दिशानिर्देश पारित नहीं करने जा रहे हैं। यह महत्व का विषय है जिसमें विभिन्न हितधारकों द्वारा सुझाव लेने की आवश्यकता है। अंततः भारत के चुनाव आयोग और केंद्र सरकार को कार्यान्वयन पर कदम उठाने की आवश्यकता है। ये सभी समूह बहस कर सकते हैं और फिर वे ईसीआई और सीजी को रिपोर्ट सौंप सकते हैं।"

कोर्ट ने पिछले हफ्ते मुफ्त उपहारों को "गंभीर मुद्दा" करार दिया था। साथ ही केंद्र सरकार से इस मुद्दे पर स्पष्ट रुख अपनाने को कहा था। न्यायालय ने ईसीआई के इस रुख के संबंध में भी आपत्ति व्यक्त की थी कि मुफ्त उपहार देना पार्टी का नीतिगत निर्णय है। ईसीआई ने कहा था कि आयोग राज्य की नीतियों और निर्णयों को विनियमित नहीं कर सकता है, जो जीतने वाली पार्टी द्वारा सरकार बनाते समय लिए जा सकते हैं।

याचिका में अदालत से यह घोषित करने का आग्रह किया गया:

1. चुनाव से पहले सार्वजनिक निधि से तर्कहीन मुफ्त का वादा मतदाताओं को अनुचित रूप से प्रभावित करता है, निष्पक्ष चुनाव की जड़ें हिलाता है और चुनाव प्रक्रिया की शुद्धता को खराब करता है।

2. चुनाव से पहले सार्वजनिक धन से निजी वस्तुओं/सेवाओं का वादा/वितरण संविधान के अनुच्छेद 14, 162, 266 (3) और 282 का उल्लंघन करते हैं।

3. मतदाताओं को लुभाने के लिए चुनाव से पहले सार्वजनिक निधि से तर्कहीन मुफ्त उपहारों का वादा/वितरण आईपीसी की धारा 171बी और धारा 171सी के तहत रिश्वत और अनुचित प्रभाव के समान है।

केस टाइटल: अश्विनी उपाध्याय बनाम भारत संघ| रिट याचिका (सिविल) 2022 का 43

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