धर्म परिवर्तन पर राज्य के कानूनों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट सहमत
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) मंगलवार को विवाह के लिए धर्मांतरण के खिलाफ 'लव जिहाद' के नाम पर कुछ राज्यों की विधानसभाओं द्वारा पेश किए गए धार्मिक अधिनियमों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के लिए सहमत हो गया।
याचिकाकर्ताओं में से एक, सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ के एनजीओ 'सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस' की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट सी.यू. सिंह ने भारत के चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस जेबी पारदीवाला को तत्काल सूचीबद्ध करने के लिए अनुरोध किया।
वकील ने कहा,
"ये धर्मिक स्वतंत्रता अधिनियमों के लिए चुनौतियां हैं।"
सीजेआई ने पूछा,
"अगली तारीख क्या है?"
सिंह ने उन्हें अवगत कराया,
"कोई निर्दिष्ट तिथि नहीं है।"
सिंह ने पीठ को सूचित किया कि न्यायालय ने पहले ही शफीन जहां के मामले [शफीन जहां बनाम अशोकन के.एम. और अन्य आपराधिक अपील संख्या 366 ऑफ 2018] में कहा था कि धर्म परिवर्तन, राइट ऑफ चॉइस का ही हिस्सा है।
सीजेआई ने सीनियर वकील को आश्वासन दिया कि वह मामले की सुनवाई के लिए एक विशिष्ट तारीख प्रदान करेंगे।
"हम एक तारीख देंगे।"
सिंह की ओर से जिन याचिकाओं का उल्लेख किया गया है, वे विशेष रूप से उत्तर प्रदेश धर्म परिवर्तन निषेध अध्यादेश 2020 और उत्तराखंड धर्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2018 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देती हैं।
जनवरी 2021 में याचिका के इस बैच में शीर्ष अदालत द्वारा नोटिस जारी किया गया था।
बाद में, एक संशोधन आवेदन के माध्यम से मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश द्वारा बनाए गए इसी तरह के कानूनों को भी चुनौती दी गई थी।
सीजेपी ने वकील तनिमा किशोर के माध्यम से दायर अपनी जनहित याचिका में तर्क दिया है कि विवादित अधिनियम और अध्यादेश के प्रावधान, दोनों संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करते हैं क्योंकि यह राज्य को किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को दबाने और किसी व्यक्ति की धर्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करने का अधिकार देता है।
यह माना जाता है कि संविधान के अनुच्छेद 25 में स्वयं को दूसरे धर्म में परिवर्तित करने का अधिकार व्यक्त किया गया है। लेकिन, उक्त अध्यादेश और अधिनियम इस अधिकार के विरुद्ध है क्योंकि यह प्रशासन को इस तरह के इरादे से सूचित करने और किसी के अधिकार के व्यक्तिगत और अंतरंग अभ्यास में जांच शुरू करने के लिए अनिवार्य करके अनुचित और भेदभावपूर्ण प्रतिबंध लगाता है।
वकीलों विशाल ठाकरे, अभय सिंह यादव और प्रणवेश की ओर से दायर एक अन्य जनहित याचिका में प्रार्थना की गई है कि "लव जिहाद" के नाम पर बनाए गए इन कानूनों को अमान्य घोषित किया जाए क्योंकि यह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है।
उत्तराखंड धर्म की स्वतंत्रता अधिनियम 2018 में घोषित उद्देश्य के साथ गलत बयानी, बल, अनुचित प्रभाव, जबरदस्ती, प्रलोभन या किसी भी धोखाधड़ी के माध्यम से शादी के लिए एक धर्म से दूसरे धर्म में धर्म परिवर्तन पर रोक लगाकर धर्मिक स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए बनाया गया था। यदि कोई व्यक्ति अपने "पहले के धर्म" में वापस आता है, तो उसे धारा 3 के प्रावधान के अनुसार, अधिनियम के तहत धर्मांतरण नहीं माना जाएगा। अधिनियम की धारा 6 के अनुसार, केवल धर्मांतरण के उद्देश्य से किए गए विवाह को अमान्य घोषित किया जा सकता है।
यूपी अध्यादेश ज्यादातर उत्तराखंड कानून पर आधारित है। हालांकि, यूपी अध्यादेश विशेष रूप से विवाह द्वारा धर्मांतरण को अपराध बनाता है।
अध्यादेश की धारा 3 एक व्यक्ति को विवाह द्वारा दूसरे व्यक्ति का धर्म परिवर्तन करने से प्रतिबंधित करती है। दूसरे शब्दों में, विवाह द्वारा धर्म परिवर्तन को अवैध बना दिया जाता है। इस प्रावधान का उल्लंघन कारावास से दंडनीय है जो एक वर्ष से कम नहीं है लेकिन जो 5 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है और न्यूनतम पंद्रह हजार रुपये का जुर्माना है। यदि परिवर्तित व्यक्ति महिला है, तो सजा सामान्य अवधि से दोगुनी और जुर्माना है।
इसके बाद, भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21 और 25 का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन करने के लिए मध्य प्रदेश फ्रीडम ऑफ रिलीजियस ऑर्डिनेंस, 2020 को चुनौती देते हुए एक और याचिका दायर की गई थी।
याचिका एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड, अल्दानीश रीन द्वारा दायर की गई है और अधिवक्ता राजेश इनामदार, शाश्वत आनंद, देवेश सक्सेना, आशुतोष मणि त्रिपाठी और अंकुर आज़ाद द्वारा तैयार की गई है।
याचिका में विवादित अध्यादेश को पारित करने की प्रक्रिया को संविधान के अनुच्छेद 213 के तहत निहित शक्तियों के घोर दुरुपयोग का एक उदाहरण और संविधान के साथ धोखाधड़ी के रूप में भी बताया गया है।
यह अध्यादेश में निर्धारित "जबरन धर्मांतरण" पर सरकारी एजेंसियों या विभागों के पास उपलब्ध अपेक्षित डेटा की अनुपस्थिति पर प्रकाश डालता है।
याचिका में तर्क दिया गया है,
"कानून जो मौजूदा सामाजिक पदानुक्रमों में शक्ति विषमता को संरक्षित करने की कोशिश करता है, राज्य-प्रायोजित यथास्थिति से पहले अपने क़ीमती मौलिक अधिकारों को रखने के लिए एक व्यक्ति को मजबूर करके परिवर्तनकारी संवैधानिकता की अवधारणा को नकारता है। इसके अलावा, कानून सांप्रदायिक भावनाओं को हवा देकर विभाजनकारी और विद्वतापूर्ण प्रचार के लिए एक रथ के रूप में कार्य करता है। इस कोर्ट को इसकी निंदा करनी चाहिए।"