[सीपीसी की धारा 96] अजनबी व्यक्ति अपील दायर नहीं कर सकता, जब तक कि कोर्ट को संतुष्ट न कर दिया जाये कि अपीलकर्ता 'पीड़ित व्यक्ति' है : सुप्रीम कोर्ट

Update: 2020-08-22 06:21 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नागरिक प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) की धारा 96 के तहत किसी अजनबी व्यक्ति को अपील दायर करने की इजाजत तब तक नहीं दी जा सकती, जब तक वह यह संतुष्ट नहीं कर देता कि वह 'पीड़ित व्यक्तियों' की श्रेणी में आता है।

न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी और न्यायमूर्ति एस रवीन्द्र भट की खंडपीठ ने कहा कि अपील दायर करने वालों को यह दिखाना होगा कि संबंधित आदेश से वे पक्षपातपूर्ण या प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुए हैं या उनके कानूनी अधिकार जोखिम में पड़ चुके हैँ।

ट्रायल कोर्ट द्वारा दिये गये आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती देने वाली याचिका में यह अपीलकर्ता पक्षकार नहीं थे। यद्यपि इन्होंने वाद में पक्षकार बनने का प्रयास किया था, लेकिन उनकी अर्जियां ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दी थी। हाईकोर्ट ने भी उन्हें अपील दायर करने की मंजूरी देने से इनकार कर दिया था।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इन लोगों ने दलील दी थी कि बिक्री समझौते के खिलाफ निश्चित अवधि के दौरान मुकदमा दायर करने में देरी को कालातीत (टाइम बार्ड) बताने और स्थायी निषेधाज्ञा के आदेश से वास्तव में उनके हित प्रभावित होते हैं, क्योंकि विवादित प्रॉपर्टी उनलोगों के कब्जे में है। बेंच ने कहा :

नागरिक प्रक्रिया संहिता की धाराएं- 96 और 100 किसी मूल डिक्री या अपील के तहत क्रमिक डिक्री के खिलाफ अपील दायर करने की अनुमति प्रदान करती हैं। उपरोक्त प्रावधानों में यह स्पष्ट तो नहीं किया गया है कि कौन अपील दायर कर सकता है या कौन नहीं? लेकिन यह पूर्व स्थापित कानूनी परम्परा है कि किसी भी मुकदमे में अजनबी को अपील दायर करने की इजाजत नहीं दी जा सकती जब तक कि वह कोर्ट को संतुष्ट नहीं कर देता कि वह पीड़ित व्यक्तियों की श्रेणी में आता है। यदि जब कोई फैसला या आदेश उस व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन करता है जो संबंधित मामले में पक्षकार नहीं है, तो वह अपीलीय अदालत की अनुमति से अपील दायर कर सकता है।

बेंच ने 'श्रीमती के. पोन्नालागू अम्मानी बनाम स्टेट ऑफ मद्रास' मामले सहित पूर्व के कुछ फैसलों का उल्लेख करते हुए कहा कि सामान्यतया अपील की अनुमति उन्हीं को दी जानी चाहिए, जो भले ही मुकदमे के पक्षकार न हों, लेकिन संबंधित आदेश या फैसले से प्रभावित होंगे और जो अन्य मुकदमों में इसकी सत्यता पर सवाल उठाने से वंचित रह जाएंगे।

'श्रीमती के. पोन्नालागू अम्मानी' मामले में 'स्टेट और मद्रास' की ओर से मद्रास के राजस्व विभ्भाग के सचिव एवं अन्य ने प्रतिनिधित्व किया था। कोर्ट ने यह भी कहा 'पीड़ित व्यक्ति' की अभिव्यक्ति में वह व्यक्ति शामिल नहीं होता, जिन्हें मानसिक या आभासी आघात होता है, बल्कि पीड़ित व्यक्ति अनिवार्यता तौर पर वह व्यक्ति होना चाहिए, जिनके हित बुरी तरह प्रभावी हुए हों या उनके अधिकार जोखिम में पड़ चुके हैं (शांति कुमार आर कांजी बनाम होम इंश्योरेंस कंपनी, न्यूयार्क तथा राजस्थान सरकार एवं अन्य बनाम भारत सरकार एवं अन्य)।

बेंच ने ट्रायल कोर्ट के आदेश एवं निर्णय पर विचार करते हुए कहा कि संबंधित आदेश मुकदमे के केवल वादियों और प्रतिवादियों के लिए है, न कि अपीलकर्ताओं से संबंधित। हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए बेंच ने कहा :

"यद्यपि हमारे समक्ष और हाईकोर्ट के समक्ष व्यापक तौर पर दलील दी गयी थी कि ट्रायल कोर्ट के आदेश और निर्णय से अपीलकर्ता बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, लेकिन अपीलकर्ता यह साबित करने के लिए कोई भी साक्ष्य प्रस्तुत करने में असफल रहे कि ट्रायल कोर्ट द्वारा जारी इस फैसले और डिक्री से आखिर वे कैसे बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं? महज यह कह देना पर्याप्त नहीं है कि अपीलकर्ता आदेश से बुरी तरह प्रभावित हैं। यह साबित करना होता है कि ट्रायल कोर्ट के आदेश से उनके कानूनी अधिकार प्रभावित होते हैं और यदि आदेश पर अमल हुआ तो उससे वे बुरी तरह प्रभावित होंगे।

इस मामले के तथ्यों से यह साफ पता चलता है कि संबंधित आदेश का दायरा बिक्री करार के संदर्भ में घोषणा पत्र की मांग तक ही सीमित है। निषेधाज्ञा भी केवल बचाव पक्ष (सोसाइटी या इसके पदाधिकारियों या जिसे उसका जिम्मा दिया गया है) के खिलाफ ही मांगा गया था। समूचे वाद या मुकदमे की कार्यवाही में या यहां तक कि ट्रायल कोर्ट के फैसले और डिक्री में जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी का अधिकार रखने वालों द्वारा अपीलकर्ताओं के पक्ष में बिक्री विलेख निष्पादित करने के बारे में एक शब्द नहीं लिखा गया है। इस प्रकार अपीलकर्ता यह साबित कर पाने में विफल रहे हैँ कि संबंधित डिक्री द्वारा उनके कानूनी अधिकार बुरी तरह प्रभावित हुए हैं या जोखिम में पड़ गये हैं, ताकि उन्हें 'पीड़ित व्यक्ति' की अभिव्यक्ति के दायरे में लाया जा सके और उन्हें आदेश के खिलाफ अपील जारी रखने की इजाजत दी जाये।"

केस का ब्योरा

केस नं. : सिविल अपील संख्या 2701-2704/2020

केस का नाम : वी एन कृष्ण मूर्ति बनाम रवि कुमार

कोरम : न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी एवं न्यायमूर्ति एस. रवीन्द्र भट

केस का ब्योरा

केस नं. : सिविल अपील संख्या 2701-2704/2020

केस का नाम : वी एन कृष्ण मूर्ति बनाम रवि कुमार

कोरम : न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी एवं न्यायमूर्ति एस. रवीन्द्र भट 

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