(धारा 216 सीआरपीसी) कोर्ट फैसले को सुरक्षित रख लिए जाने के बाद भी अतिरिक्त आरोप जोड़ने की अनुमति दे सकती हैः सुप्रीम कोर्ट

Update: 2020-01-22 08:00 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ट्रायल कोर्ट मुकदमे में सबूतों की पेशी, दलीलों के पूरा होने और फैसले को सुरक्षित रख लिए जाने के बाद भी आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 216 के तहत आरोपों को बदलने या जोड़ने की अपनी शक्तियों का प्रयोग कर सकती है।

मौजूदा मामले में आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 498 ए और दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3 और 4 के तहत आरोप लगाया गया था। मुकदमे की सुनवाई शुरू हुई और साक्ष्यों की रिकॉर्डिंग और दलीलों के बाद मामले को निर्णय के लिए सुरक्षित रख लिया गया।

उसके बाद लोक अभियोजक ने सीआरपीसी की धारा 216 के तहत एक आरोपों में बदलाव के लिए एक आवेदन दायर किया, जिसमें कहा गया था कि भले ही जांच अधिकारी द्वारा एक अतिरिक्त आरोप-पत्र दायर किया गया हो और अभियुक्तों को धारा 406 और 420 के तहत अपराध के लिए आरोपित किया हो, मगर उन प्रावधानों के तहत ट्रायल जज द्वारा मुकदमे में आरोप तय नहीं किए गए थे।

ट्रायल कोर्ट ने आवेदन को अनुमति दे दी और आरोपी के खिलाफ धारा 406 और 420 के तहत आरोप तय किए गए। हाईकोर्ट ने आरोपियों द्वारा दायर पुनर्विचार याचिका को अनुमति देते हुए, ट्रायल कोर्ट कआदेश को प्रक्रियागत अनियमितता के आधार पर दरकिनार कर दिया, हालांकि ट्रायल कोर्ट को विकल्प दिया कि, यदि आवश्यक हो तो, दोनों पक्षों को सुनने और गवाहों को बुलाने का एक अवसर दोनों पक्षों को दे और उसके बाद अतिरिक्त आरोप फ्रेम करे।

ट्रायल कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद, अतिरिक्त आरोप तय करने के लिए दायर आवेदन को खारिज कर दिया। जिसके बाद अभियोजन पक्ष द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिका पर हाईकोर्ट ने आईपीसी की धारा 406 और 420 के तहत अतिरिक्त आरोप तय करने का निर्देश दिया।

मामले में दायर अपील में, जस्टिस धनंजय वाई चंद्रचूड़ और हृषिकेश रॉय की पीठ ने पहले के फैसलों का उल्लेख किया और कहा कि धारा 216 कोर्ट को किसी भी आरोप को बदलने या फेरबदल करने के लिए अनन्य और व्यापक शक्ति प्रदान करती है।

पीठ ने कहाः

सब-सेक्शन (1) में " फैसला सुनाए जाने से पहले किसी भी समय" वाक्यांश का उपयोग अदालत को यह अधिकार देता है कि वह सबूतों की पेशी हो जाने, दलीलों को सुन लेने और फैसले को सुरक्षित रख लेने के बाद भी मामले में आरोपों को बदलने या जोड़ने की अपनी शक्तियों का प्रयोग करे।

किसी आरोप का परिवर्तन या परिवर्धन तब किया जा सकता है जब कोर्ट की राय में आरोप के निर्धारण में चूक हुई हो या यदि रिकॉर्ड पर लाई गई सामग्री की प्रथम दृष्टया जांच में चूक हुई हो, ऐसी स्थिति कोर्ट को एक अभिमत बनाने की ओर ले जाती है कि तथ्यात्मक सामग्री के अस्तित्व ने कथित अपराध का गठन किया।

अदालत द्वारा किसी आरोप को जोड़ने या बदलने का फैसला करते समय अपनाई जाने वाली परीक्षा यह है कि रिकॉर्ड पर लाई गई सामग्री का कथित अपराध के अवयवों के साथ सीधा संबंध या सांठगांठ होनी चाहिए। एक आरोप का जोड़ अतिरिक्त आरोपों के लिए परीक्षण शुरू करता है, जिसमें साक्ष्य के आधार पर, यह निर्धारित किया जाना है कि क्या अभियुक्त को अतिरिक्त आरोपों के लिए दोषी ठहराया जा सकता है।

अदालत को धारा 216 के तहत अपनी शक्तियों का विवेकपूर्ण तरीके से उपयोग करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अभियुक्त के साथ कोई पक्षपात न हो और उसे निष्पक्ष सुनवाई की अनुमति दी जाए। अदालत की शक्ति पर एकमात्र बाधा आरोपों के जोड़ या परिवर्तन के कारण अभियुक्त के प्रति दुराग्रह होने की आशंका है। उप-धारा (4) अदालतो द्वारा अपनाए जाने वाले उन दृष्टिकोणों का निर्धारण करती है, जहां पक्षपात हो सकता है।

केस का नाम: डॉ नल्‍लपारेड्डी श्रीधर रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्या

केस नं : क्रिमिनल अपील नंबर 1934 ऑफ 2019

वकील: सीनियर एडवोकेट अनीता शेनॉय, वरिष्ठ एडवोकेट एटीएम रंगा रामानुजम

कोरम: जस्टिस धनंजय वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हृषिकेश रॉय

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