"पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोगोई को किस आधार पर राज्यसभा सदस्यता दी?" : पूर्व सीजेआई की राज्यसभा सदस्यता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती
संसद के उच्च सदन ( राज्यसभा) में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को संसद सदस्य (Council of States) के रूप में नामित करने को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक याचिका दायर की गई है।
याचिका में प्रतिवादी (गोगोई) के खिलाफ यथास्थिति वारंट जारी करने की मांग की गई है, जिसमें उन्हें यह दिखाने के लिए कहा गया है कि किस अधिकार, योग्यता और टाइटल के आधार पर वह संविधान के अनुच्छेद 80 (1) (ए) सहपठित अनुच्छेद (3) के तहत नामांकन द्वारा राज्यसभा की सदस्यता प्राप्त कर सकते हैं। संविधान के अनुसार जांच के बाद उन्हें राज्यसभा सदस्यता से हटा दिया जाए।
याचिका में आगे यह भी मांग की गई है कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोगोई के नामांकन के संबंध में अधिसूचना जैसा कि भारत के आधिकारिक राजपत्र - असाधारण- भाग II - खंड 3 - उप खंड (ii) में 16 मार्च 2020 को प्रकाशित किया गया है और अधिसूचना को लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 71 के अनुसरण में प्रकाशित किया गया है,उसे भारत के राजपत्र में - असाधारण - भाग II - खंड 3 उप खंड (ii) को रद्द किया जा सकता है।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई उच्च सदन में संसद के मनोनीत सदस्य (राज्यसभा) हैं। उन्हें भारत के आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित एक अधिसूचना द्वारा 16 मार्च 2020 को भारत के राष्ट्रपति द्वारा नामित किया गया था।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने अक्टूबर, 2018 में बतौर सीजेआई अपनी नियुक्ति के बाद भारत के 46वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य किया। वह 17 नवंबर, 2019 को सेवानिवृत्त हुए।
सामाजिक कार्यकर्ता और वकील सतीश एस. काम्बिये द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि संसद की वेबसाइट - काउंसिल ऑफ स्टेट्स पर उपलब्ध प्रतिवादी के बायोडाटा के अनुसार, उन्होंने कोई किताब नहीं लिखी है और न ही उन्हें श्रेय देने वाला कोई प्रकाशन है और सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों, साहित्यिक, कलात्मक और वैज्ञानिक उपलब्धियों और अन्य विशेष रुचियों में उनका योगदान शून्य है।
कम से कम प्रतिवादी की वेबसाइट पर साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के प्रति उसके विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई है।
याचिकाकर्ता का यह मामला है कि राष्ट्रपति के पास अनुच्छेद 80 (1) (ए) के तहत राज्यसभा में बारह सदस्यों को नामित करने की शक्ति है, जो अनुच्छेद 80 (3) के अनुसार है, जिसमें यह प्रावधान है कि साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव रखने वाले व्यक्ति राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा सदस्य के रूप में नामित किए जाएंगे।
इस पृष्ठभूमि में याचिका में नामांकन को गलत और अवैध बताया गया है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 80 (1) (ए) सहपठित (3) के तहत नामांकन के लिए यह शर्त प्रतिवादी द्वारा पूरी नहीं की गई है।
इसके अलावा प्रतिवादी के नामांकन के बाद, याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी के नामांकन से संबंधित जानकारी प्राप्त करने के लिए सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा 6 के तहत 12 जून, 2020 को केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी, भारत के राष्ट्रपति, नई दिल्ली को आवेदन किया था।
याचिका में कहा गया है कि आरटीआई आवेदन गृह मंत्रालय, सीएस डिवीजन, भारत सरकार, नई दिल्ली को उनके विचार के लिए स्थानांतरित कर दिया गया था।
याचिका में यह प्रस्तुत किया गया कि याचिकाकर्ता को 24 जुलाई को प्राप्त उत्तर में उस सामग्री का कोई विवरण नहीं है जिस पर राष्ट्रपति ने प्रतिवादी की योग्यता का पता लगाने पर भरोसा किया हो। प्रथम दृष्टया, प्रतिवादी को साहित्य, विज्ञान, कला और सामाजिक सेवा के मामलों के संबंध में कोई विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव नहीं है और इसलिए, वह अनुच्छेद 80 सहपठित (3) के तहत राज्य परिषद के सदस्य के रूप में नामित होने के योग्य नहीं है। उन्होंने पद/नामांकन एक प्रकार से हड़प लिया है, इसलिए, यह जरूरी है कि उन्हें राज्यसभा - संसद की सदस्यता से हटा दिया जाए।
याचिका उन मामलों पर भी निर्भर करती है जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नियुक्ति वैधानिक नियमों के विपरीत होने पर यथास्थिति वारंट जारी किया जा सकता है।
याचिका में कहा गया है कि इस प्रकार यह मांग की जाती है कि राष्ट्रपति द्वारा किए गए नामांकन को अधिसूचित करने वाले भारत के आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित अधिसूचना के प्रभाव और संचालन को निलंबित करने के लिए स्थगन आदेश की प्रकृति में एक अंतरिम आदेश पारित किया जा सकता है।