राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर शव अवशेष प्रबंधन निपटान के प्रोटोकॉल तैयार करने के निर्देश के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका

Update: 2021-02-08 05:47 GMT

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक याचिका दायर की गई है कि वह केंद्र और राज्यों को एक उचित अवधि के भीतर महामारी और गैर-महामारी के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर शव अवशेष प्रबंधन निपटान के प्रोटोकॉल स्थापित करने के लिए निर्देश जारी करे। याचिका में इस प्रोटोकॉल के कार्यान्वयन के लिए जिला चिकित्सा अधिकारी को उचित प्राधिकारी के तौर पर नामित करने और पीड़ा और संकट से बचने के लिए इस प्रोटोकॉल के सख्त पालन के लिए राज्य सरकारों को निर्देश देने की भी मांग की गई है।

याचिकाकर्ता, जी मनोहर इस मामले में मणिपाल अस्पताल, द्वारका (नई दिल्ली) की निर्दयी कार्रवाई और लापरवाही से व्यथित हैं, जिसने उन्हें और उनके परिवार को कोई सम्मान नहीं दिया, और उनकी मां के अवशेषों का सभ्य तरीके से अंतिम संस्कार का मौका ना देते हुए याचिकाकर्ता की मां का शव बिना किसी जांच या सत्यापन के, अशोभनीय तरीके से, पूरी तरह अजनबी को सौंप दिया।

दलीलों में कहा गया है,

"उसे अब कठिन और विचित्र सत्य के साथ रहना होगा कि उसकी मां के शरीर को किसी अन्य कोविड -19 पीड़ित समझते हुए गलती किसी ओर को अंतिम संस्कार के लिए दे दिया था और उसे अंतिम संस्कार करने से इनकार कर दिया गया था।"

याचिकाकर्ता ने वर्तमान याचिका दायर की है क्योंकि उनका मानना ​​है कि यह दर्दनाक घटना देश में एक उचित शव अवशेष प्रबंधन निपटान प्रोटोकॉल की अनुपस्थिति के कारण हुई है, जिसके कारण ऐसा विनाशकारी और अपरिवर्तनीय कृत्य हुआ है। इस संबंध में उचित प्रणाली के चेक एंड बैलेंस का पूर्ण अभाव होने के चलते अस्पतालों में शवों का बोझ होने का दावा बहाना लिया जा रहा है।

याचिकाकर्ता का अनुभव सबसे अधिक कष्टदायक रहा है और इसलिए वह आशा करता है कि यह कभी भी किसी के साथ दोहराया नहीं जाए जिसे अपने प्रियजन को दफनाना या उसका दाह संस्कार करना है।

याचिकाकर्ता इस तथ्य से भी व्यथित हैं कि उनकी मां का शव बिना किसी उचित लेबलिंग या पहचान के लापरवाही से , अस्पताल के शवगृह में अन्य अत्यधिक संक्रमित कोविड-19 शवों के साथ रखा गया और शवों के मिश्रण के कारण एक अजनबी और उसके परिवार को दाह संस्कार के लिए सौंप दिया गया। अस्पताल की पूर्ण अवहेलना और लापरवाही के परिणामस्वरूप, याचिकाकर्ता और उसके परिवार को उनके धार्मिक संस्कारों और अनुष्ठानों के अनुसार उनकी मां के अवशेषों को देखने या दाह संस्कार के लिए नहीं मिला।

याचिका में दलील दी गई है कि अस्पताल का कृत्य याचिकाकर्ता की मां के जीने के अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है, जिसमें भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटी के रूप में गरिमा से मृत्यु का अधिकार भी शामिल है।

अस्पताल का कृत्य अपरिवर्तनीय है और याचिकाकर्ता और उसके परिवार के लिए इसके खत्म होने की कोई संभावना नहीं है क्योंकि उन्होंने न केवल अपनी मां को खो दिया है, बल्कि उसे दफनाने का अधिकार भी खो दिया है।

एक स्पष्ट शव अवशेष प्रबंधन निपटान प्रोटोकॉल की आवश्यकता पर जोर देते हुए, याचिका में प्रतिष्ठित अस्पतालों द्वारा कोविड -19 महामारी के समय में अस्पतालों के अशोभनीय बर्ताव पर प्रकाश डाला गया है, जो भारी शुल्क लगा रहे हैं और वहां कोई बुनियादी प्रोटोकॉल नहीं होने के कारण, और मृतक के परिजनों को असहनीय आघात और आजीवन पीड़ा हो रही है।

याचिकाकर्ता के अनुसार, मणिपाल अस्पताल ने अपने कृत्य के बारे में पूरी तरह से जानते हुए भी कोई पश्चाताप नहीं दिखाया है कि याचिकाकर्ता की मां की अमर्यादित मृत्यू में ऐसी लापरवाही उनके कार्यों के कारण और दिल्ली राज्य में एक उचित शव अवशेष संग्रहण और प्रबंधन प्रोटोकॉल की कमी के कारण हुई थी। जब अस्पताल से संपर्क किया गया, तो उन्होंने बड़ी मुश्किल से से कहा कि शवों का मिश्रण संभव हो सकता है।

दलीलों में कहा गया है,

"इस संवेदनशील मुद्दे को अस्पताल के अधिकारियों द्वारा नियंत्रित करने में पूरी तरह से लापरवाही दिखाई गई वो इस तथ्य का प्रमाण है कि उन्हें लगा कि वे कानून से ऊपर हैं और चूंकि कोई प्रोटोकॉल नहीं है, इसलिए कोई उल्लंघन नहीं हुआ था और याचिकाकर्ता के लिए यह सबसे अधिक कष्टदायक था कि उत्तरदाता अस्पताल ने इस कार्य के लिए पश्चाताप महसूस करने के बजाय अपने निर्दयी कार्य का बचाव किया था और याचिकाकर्ता से यह अनुरोध किया था कि वो उस शव को ले जाएं जो उसे 'उपलब्ध' कराया गया है और उसे अपने संस्कार और रिवाज के मुताबिक दफनाने को कहा था। अस्पताल ने फिर एक कहानी गढ़ी कि जो एक अन्य परिवार अपनी मां के शव के अवशेषों को इकट्ठा करने के लिए आया था, उसने शव को अंतिम संस्कार स्थल पर और अस्पताल में दोनों जगह गंगाजल दिया था। यह कहानी मनगढ़ंत थी और अस्पताल के अधिकारियों ने इस गंभीर त्रुटि से अपने हाथ धोने के लिए इसे बनाया जिसे फिर से वापस नहीं किया जा सकता और ये याचिकाकर्ता पर दोष मंढने के लिए किया गया कि उसने ही गलत शव की पहचान की थी।"

याचिका में पंडित परमानंद कटारा, एडवोकेट बनाम भारत संघ और अन्य (1995) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला दिया गया है, जहां यह कहा गया था कि यहां तक ​​कि एक मृत व्यक्ति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसके शव के संबंध में सम्मान और उचित व्यवहार का अधिकार है।

कॉमन कॉज बनाम भारत संघ (2018) के मामले में शीर्ष न्यायालय के एक अन्य फैसले का भी हवाला दिया गया है कि गरिमा के साथ मरने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है और इसलिए ये अनुच्छेद 21 का अभिन्न अंग है।

दलीलों में आगे कहा गया है कि जबकि विभिन्न विभागों के साथ कई विशेष और बहु-विशेषता वाले अस्पताल हैं जो सभी जीवन को संरक्षित करने के लिए पूरी शक्ति लगाते हैं लेकिन व्यक्ति के मरने के बाद उससे निपटने के लिए कोई समर्पित विभाग नहीं है।

मृतक के शरीर से पूरी गरिमा के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए, न कि किसी संस्था के प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा एक सामान के रूप में, और यह सुनिश्चित करने के लिए पूरी सावधानी बरती जानी चाहिए कि किसी की मृत्यु के बाद धार्मिक मान्यताओं के आधार पर गरिमापूर्ण तरीके से दफन, अंतिम संस्कार या दाह संस्कार की व्यवस्था हो।

याचिकाकर्ता जी मनोहर की ओर से ये याचिका वकील शिल्पा लिजा जॉर्ज द्वारा दायर की गई है और वकील मनोज वी जॉर्ज और रंजीत फिलिप द्वारा तैयार की गई है।

याचिका में न्यायालय से निम्नलिखित निर्देशों के लिए प्रार्थना की गई है:

• महामारी या गैर महामारी के लिए देश भर में लागू होने वाली एक राष्ट्रीय शव अवशेष प्रबंधन और निपटान प्रोटोकॉल तैयार करने के लिए भारत संघ को निर्देश जारी करें।

• महामारी या गैर महामारी के लिए सभी राज्य सरकारों को एक उचित अवधि के भीतर एक राज्य शव अवशेष प्रबंधन और निपटान प्रोटोकॉल तैयार करने के लिए निर्देश के लिए एक रिट जारी करें।

• राज्य सरकारों को जिला चिकित्सा अधिकारी को प्रोटोकॉल के अनुसार उपयुक्त प्राधिकारी के रूप में समझा जाने के लिए नामित करने के लिए एक निर्देश जारी करें इस माननीय न्यायालय द्वारा उपर्युक्त लगे।

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