भारतीय दंड संहिता की धारा 304-बी में दिए वाक्‍यांश "कुछ समय पहले" का अर्थ 'तुरंत पहले' नहीं हो सकता हैः सुप्रीम कोर्ट ने दहेज मृत्यु के मामलों के मुकदमो के लिए दिशा निर्देश दिए

Update: 2021-05-29 06:20 GMT

सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 304-बी में दिए वाक्‍यांश "कुछ समय पहले" का अर्थ 'तुरंत पहले' से नहीं लगाया जा सकता है।

सीजेआई एनवी रमना और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने कहा कि अभियोजन पक्ष को दहेज मृत्यु और पति या रिश्तेदारों द्वारा दहेज के लिए की गई क्रूरता या उत्पीड़न के बीच "निकट और सजीव सबंध" स्थापित करना चाहिए।

अदालत ने कहा कि धारा 304 बी, आईपीसी मृत्यु को मानव हत्या या आत्मघाती या आकस्मिक के रूप में वर्गीकृत करने में संकुचित का दृष्टिकोण नहीं रखती है।

आईपीसी की धारा 304 बी के तहत दोषी ठहराए गए आरोपियों की अपील को खारिज करते हुए खंडपीठ ने उक्त टिप्पणियां की।

धारा 304बी (1) के अनुसार 'दहेज मृत्यु' तब होती है, जब किसी महिला की मृत्यु जलने या शारीरिक चोटों के कारण होती है या विवाह के सात साल के भीतर असामान्य परिस्थितियों में मृत्यु होती है, और यह दिखाया जाता है कि मृत्यु से कुछ समय पहले, दहेज के लिए उसका पति या रिश्तेदारों द्वारा उत्पीड़न किया जाता था या उसके साथ क्रूरता की जाती थी।

अभियुक्त की दलील थी कि अभियोजन यह साबित करने में विफल रहा कि दहेज की मांग की गई थी और यह मानते हुए कि मांग थी भी तो यह साबित करने में विफल रहा कि मांग मृत्यु के नजदीक की गई थी।

दलील के कारण अदालत ने धारा 304 बी की व्याख्या पर गौर किया और कहा, उक्त धारा "कुछ समय पहले" वाक्यांश से संबंधित है।

"एक आपराधिक कानून होने के कारण, आम तौर पर इसकी सख्त व्याख्या की जानी चाहिए। हालांकि, जहां सख्त व्याख्या बेतुकेपन की ओर ले जाती है या कानून की भावना के खिलाफ जाती है, अदालतें उपयुक्त मामलों में, इस प्रकार की अस्पष्टताओं को हल करने के लिए शब्दों के वास्तविक अर्थ पर भरोसा कर सकती हैं, जिसे सामान्य रूप में लिया जाता है।"

धारा 304 बी, आईपीसी को शामिल करने के पीछे विधायिका के इरादे को तय करने के लिए, अदालत ने धारा के विधायी इतिहास पर चर्चा की और कहा,

"14. इस प्रकार के कानून के महत्व को ध्यान में रखते हुए, एक सख्त व्याख्या उस उद्देश्य को हरा देगी, जिसके लिए इसे अधिनियमित किया गया था। इसलिए, यह निष्कर्ष निकालना सुरक्षित है कि जब विधायिका ने "कुछ समय पहले" वाक्‍यांश का इस्तेमाल किया था तो उनका तात्पर्य "तुरंत पहले" नहीं था। बल्कि, उन्होंने यह निर्धारण अदालतों पर छोड़ दिया। क्रूरता या उत्पीड़न का तथ्य अलग-अलग मामलों में अलग-अलग होता है। यहां तक ​​​​कि क्रूरता का स्पेक्ट्रम भी काफी अलग होता है, क्योंकि यह शारीरिक, मौखिक या भावनात्मक हो सकता है। यह सूची निश्चित रूप से संपूर्ण नहीं है। इसलिए इस न्यायालय द्वारा "कुछ समय पहले पहले" वाक्यांश को सटीक रूप से परिभाषित करने के लिए कोई स्ट्रेटजैकेट फॉर्मूला निर्धारित नहीं किया जा सकता है।

अदालत ने कहा कि इसी प्रकार का विचार कंस राज बनाम पंजाब राज्य, (2000) 5 एससीसी 207 और राजिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य, (2015) 6 एससीसी 477 में व्यक्त किया गया है।

"15. इसलिए, न्यायालयों को यह निर्धारित करने के लिए अपने विवेक का उपयोग करना चाहिए कि क्या क्रूरता या उत्पीड़न और पीड़ित की मृत्यु के बीच की अवधि "कुछ समय पहले" शब्द के भीतर आ जाएगी। उपरोक्त निर्धारण के लिए क्या "क्रूरता और परिणामस्वरूप पीड़ित की मौत के बीच" निकट और सजीव संबंध" की स्थापना महत्वपूर्ण है।"

एक बार जब अभियोजन पक्ष ने सभी आवश्यक सामग्र‌ियों को स्थापित कर लिया तो धारा 113 बी, साक्ष्य अधिनियम के तहत अनुमान अनिवार्य रूप से आरोपी के खिलाफ कार्य करता है।

अदालत ने कहा कि जब अभियोजन पक्ष यह दिखाता है कि 'मृत्यु से कुछ समय पहले ऐसी महिला को ऐसे व्यक्ति द्वारा दहेज की मांग के संबंध में क्रूरता या उत्पीड़ने के अधीन किया गया है', तो साक्ष्य अधिनियम के धारा 113 बी के तहत आरोपी के खिलाफ कार्य-कारण का अनुमान उत्पन्न होता है। इसके बाद, आरोपी को इस वैधानिक अनुमान का खंडन करना होगा।

धारा 304 बी, आईपीसी मौत को मानव हत्या या आत्मघाती या आकस्मिक के रूप में वर्गीकृत करने में संकु‌चित दृष्टिकोण नहीं रखता है, जैसा कि पहले किया गया था।

दिशा-निर्देश

रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों को ध्यान में रखते हुए, बेंच ने दोषसिद्धि को बरकरार रखा और अपील को खारिज करते हुए निम्नलिखित दिशानिर्देश जारी किए:

i.धारा 304 बी, आईपीसी की व्याख्या की दुल्हन को जलाने से और दहेज जैसी सामाजिक बुराई को रोकने की विधायी मंशा को ध्यान में रखते हुए की जानी चाहिए।

ii.अभियोजन पक्ष को सबसे पहले धारा 304बी, आईपीसी के तहत अपराध के गठन के लिए आवश्यक अवयवों के अस्तित्व को स्थापित करना चाहिए। एक बार जब ये सामग्री संतुष्ट हो जाती है, तो धारा 113B, साक्ष्य अधिनियम के तहत प्रदान की गई कार्य-कारण की खंडन योग्य धारणा आरोपी के खिलाफ काम करती है।

iii. धारा 304बी, आईपीसी में आने वाले वाक्यांश "कुछ समय पहले" का अर्थ 'तुरंत पहले' से नहीं लगाया जा सकता है। अभियोजन पक्ष को दहेज मृत्यु और पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा दहेज के लिए की गई क्रूरता या उत्पीड़न के बीच "निकट और सजीव संबंध" का अस्तित्व स्थापित करना चाहिए।

iv. धारा 304 बी, आईपीसी मौत को मानव हत्या या आत्मघाती या आकस्मिक के रूप में वर्गीकृत करने में एक संकुचित दृष्टिकोण रखती है। इस तरह के गैर-वर्गीकरण का कारण यह तथ्य है कि "सामान्य परिस्थितियों के अलावा" होने वाली मृत्यु, मामलों में, हत्या या आत्मघाती या आकस्मिक हो सकती है।

v. धारा 304B की अनिश्चित प्रकृति के कारण, आईपीसी को साक्ष्य अधिनियम की धारा 113B के साथ पढ़ा जाता है। जजों, अभियोजन और बचाव पक्ष को मुकदमे के संचालन के दौरान सावधान रहना चाहिए।

vi. यह गंभीर चिंता का विषय है कि, अक्सर, ट्रायल कोर्ट सीआरपीसी की धारा 313 के तहत बहुत ही लापरवाही और खानपूरी तरीके से बयान दर्ज करते हैं, आरोपी से उसके बचाव के संबंध में विशेष रूप से पूछताछ किए बिना। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि धारा 313, सीआरपीसी के तहत एक आरोपी की परीक्षा को केवल प्रक्रियात्मक औपचारिकता के रूप में नहीं माना जा सकता है, क्योंकि यह निष्पक्षता के मूल सिद्धांत पर आधारित है।

यह पूर्वोक्त प्रावधान प्राकृतिक न्याय के मूल्यवान सिद्धांत "ऑडी अल्टरम पार्टेम" को शामिल करता है क्योंकि यह अभियुक्त को अपने खिलाफ पेश आपराध‌िक सामग्री के लिए स्पष्टीकरण देने में सक्षम बनाता है। इसलिए, यह अदालत पर यह दायित्व है कि वह आरोपी से निष्पक्ष रूप से और बारीकी और सावधानी से पूछताछ करे।

vii. अदालत को आरोपी के सामने अपराध की परिस्थितियां को पेश करना चाहिए और उसका जवाब मांगना चाहिए। अभियुक्त के वकील के लिए कर्तव्य तय किया गया है कि वह मुकदमे की शुरुआत के बाद से धारा 304 बी, आईपीसी की धारा 113 बी, साक्ष्य अधिनियम की विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए अपना बचाव तैयार करे।

viii. सीआरपीसी की धारा 232 के अनुसार, "यदि अभियोजन पक्ष के लिए साक्ष्य लेने के बाद, अभियुक्त की जांच करने और अभियोजन और बचाव पक्ष को सुनने के बिंदु पर, जज यह मानता है कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि आरोपी ने अपराध किया है, तो जज बरी करने का आदेश दर्ज करें। इस प्रकार के विवेक का उपयोग ट्रायल कोर्ट द्वारा सर्वोत्तम प्रयासों के दायित्व के रूप में किया जाना चाहिए।

ix. एक बार जब ट्रायल कोर्ट ने फैसला किया कि आरोपी धारा 232, सीआरपीसी के प्रावधानों के अनुसार बरी होने के योग्य नहीं है, तो उसे आगे बढ़ना चाहिए और विशेष रूप से 'बचाव साक्ष्य' के लिए सुनवाई तय करनी चाहिए, आरोपी को धारा 233, सीआरपीसी के तहत प्रदान किया की गई प्रक्रिया के अनुसार अपना बचाव पेश करने का आह्वान करना चाहिए, जो आरोपी को प्रदान किया गया एक अमूल्य अधिकार भी है।

x.उसी समय, ट्रायल कोर्ट को अन्य महत्वपूर्ण विचारों को संतुलित करने की आवश्यकता है जैसे कि त्वरित परीक्षण का अधिकार। इस संबंध में, हम सावधान कर सकते हैं कि उपरोक्त प्रावधानों को विलंब की रणनीति के रूप में दुरुपयोग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

xi. उपरोक्त के अलावा, पीठासीन जज को सजा सुनाते और उचित सजा देते समय इस न्यायालय द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों का पालन करना चाहिए।

xii. निस्संदेह, जैसी कि ऊपर चर्चा की गई है, दहेज हत्या का खतरा दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है। हालांकि, यह भी देखा गया है कि कभी-कभी पति के परिजनों को फंसाया भी जाता है, भले ही अपराध करने में उनकी कोई सक्रिय भूमिका न हो और वे दूर रह रहे हों। ऐसे मामलों में कोर्ट को अपने रुख में सावधानी बरतने की जरूरत है।

तीन जजों की पीठ ने गुरमीत सिंह बनाम पंजाब राज्य (एलएल 2021 एससी 262) में, आज दिए गए एक अन्य फैसले में, उपरोक्त दिशानिर्देशों को दोहराया।

केस: सतबीर सिंह बनाम हरियाणा राज्य [CRA 1735­-1736 OF 2010]

कोरम: सीजेआई एनवी रमना, जस्टिस अनिरुद्ध बोस

‌सिटेशन: एलएल 2021 एससी 260

निर्णय पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें


Tags:    

Similar News