सुप्रीम कोर्ट की नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ सबरीमाला पुनर्विचार याचिकाओं की सुनवाई 13 जनवरी से शुरू करेगी

Update: 2020-01-06 13:39 GMT

सुप्रीम कोर्ट की नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ सबरीमाला पुनर्विचार याचिकाओं की सुनवाई अगले सोमवार, 13 जनवरी 2020 से शुरू करेगी।

नोटिस में उन न्यायाधीशों के नाम का उल्लेख नहीं है जो नौ न्यायाधीश पीठ का हिस्सा होंगे। स्पेशल ड्यूटी ऑफिसर (लिस्टिंग) द्वारा यह सूचना दी गई:

"ध्यान दें कि 13 जनवरी, 2020 से शुरू होने वाले नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए निम्नलिखित मामलों को सूचीबद्ध किया जाएगा।"

संबंधित पक्षों को रजिस्ट्री द्वारा पहले दिए गए नोटिस में उनसे पेपर बुक के चार और पूर्ण सेट दाखिल करने का अनुरोध किया गया था।

कोर्ट की पाँच जजों की पीठ ने 13 नवंबर को कुछ क़ानूनी मामलों को 3:2 के फ़ैसले से बड़ी पीठ को सौंप दी जबकि इसकी पुनर्विचार याचिका को लंबित रखा था। बहुमत की राय थी कि अपना धर्म मानने, उसका प्रचार करने से संबंधित संविधान के अधिकार की व्याख्या के मामले को बड़ी पीठ को सुनवाई करनी चाहिए ताकि इस बारे में कोई प्रामाणिक फ़ैसला दिया जा सके।

बिंदु अम्मिनी और रेहाना फ़ातिमा की संरक्षण की याचिका पर ग़ौर करते हुए मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे ने कहा था कि 2018 का फ़ैसला अंतिम नहीं है। उन्होंने यह आश्वासन भी दिया था कि इस मामले पर अंतिम फ़ैसले के लिए वह सात जजों की पीठ का गठन कर सकते हैं।

अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने तीन अन्य लंबित मामलों का भी ज़िक्र किया था जिसमें कुछ ऐसे मुद्दे थे जो एक-दूसरे से ओवरलैप कर रहे थे और 28 सितम्बर 2018 के सबरीमाला फ़ैसले में इसका ज़िक्र किया गया था। इसमें फ़ीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन एंड पारसी विमन रिलिजस आयडेंटिटी का मामला भी सुप्रीम कोर्ट के पाँच जजों की पीठ के समक्ष है जबकि दूसरा मामला (मुस्लिम महिलाओं के मस्जिद में प्रवेश का) सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ के समक्ष लंबित है।

नौ जजों की पीठ के समक्ष विचार के निम्न बिंदु हो सकते हैं -

(i) संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के मुद्दे और भाग III के ठाट ख़ासकर अनुच्छेद 14 के संदर्भ में ग़ौर किया जाना है।

(ii) अनुच्छेद 25(1) के तहत जो 'आम व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य' की बात कही गई है उसका अर्थ क्या है?

(iii) संविधान में 'नैतिकता' या 'संवैधानिक नैतिकता' को परिभाषित नहीं किया गया है। क्या यह प्रस्तावना के संदर्भ में व्यापक है या सिर्फ़ धार्मिक विश्वास या मत तक सीमित है। उस अभिव्यक्ति की रूप-रेखा को वर्णित करने की ज़रूरत है नहीं तो यह व्यक्तिपरक हो जाएगा।

(iv) किसी भी व्यवहार के बारे में अदालत किस हद तक जाँच कर सकती है वह उस विशेष धर्म या धार्मिक मत को मानने का एक अभिन्न हिस्सा है और इसके निर्धारण का ज़िम्मा सिर्फ़ उस धार्मिक समुदाय के प्रमुख पर छोड़ा नहीं जा सकता।

(v) संविधान के अनुच्छेद 25(2) के तहत 'हिंदुओं के एक वर्ग' वाक्य का क्या मतलब है?

(v) किसी धार्मिक समुदाय या उसके एक वर्ग के 'ज़रूरी धार्मिक कार्य' को संविधान के अनुच्छेद 26 के तहत संरक्षण मिला हुआ है कि नहीं।

(vi) किसी धर्म या उसके किसी समुदाय के धार्मिक कार्यों पर प्रश्न उठानेवाली किसी ऐसे व्यक्ति की याचिका जो ख़ुद उस धर्म का नहीं है, को किस हद की न्यायिक मान्यता प्राप्त है?


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