फ्लैट की डिलीवरी में 2 साल की देरी के लिए NCDRC ने बिल्डर को दिया होमबॉयर्स को 68 लाख रुपये रिफंड करने का निर्देश
नेशनल कंज़्यूमर डिस्प्यूट्स रेड्रेसल कमीशन (NCDRC या राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग) ने 'मूल स्थित में पुनर्स्थापना' (Restitutio in integrum) के सिद्धांत को लागू करते हुए रियल एस्टेट प्रमुख सुपरटेक लिमिटेड को 12 प्रतिशत ब्याज के साथ एक पीड़ित होमबॉयर को पूरी राशि वापस करने का निर्देश दिया। दरअसल 'Restitutio in integrum' के सिद्धांत के अनुसार, एक पीड़ित पक्ष की उस स्थिति को बहाल किया जाता है जो स्थिति, यदि उसे क्षति न हुई होती तो उसकी होती। दूसरे शब्दों में इस सिद्धांत को मूल या पूर्व-संविदात्मक स्थिति में पीड़ित पक्ष की बहाली के रूप में भी समझा जा सकता है।
अध्यक्ष न्यायमूर्ति आर. के. अग्रवाल और सदस्य एम. श्रीशा की पीठ ने सुपरटेक लिमिटेड को द्वारका स्थित दम्पति अंकुर और रिचा सक्सेना को 68,03,954 लाख रुपये वापस करने का निर्देश दिया है। दरअसल इस दम्पति ने कंपनी द्वारा गुड़गांव में अपनी परियोजना में अपार्टमेंट के वितरण में लगभग 2 साल देरी किये जाने के बाद फोरम का रुख किया था।
सक्सेना दम्पति ने वर्ष 2013 में 'सुपरटेक ह्यूस 'में एक अपार्टमेंट बुक किया था। चूंकि लेआउट योजना में बदलाव किया गया था, इसलिए कंपनी ने उन्हें 06.06.2014 को एक और क्रेता डेवलपर समझौते (Buyer Developer Agreement) को निष्पादित करने के लिए कहा। समझौते की शर्तों के अनुसार, यूनिट के कब्जे को अक्टूबर, 2017 तक यानी 42 महीने के भीतर डिलीवर किया जाना था, जो अप्रत्याशित परिस्थितियों के कारण 6 महीने की अवधि के लिए बढ़ाया जा सकता था। हालाँकि 68,03,954 रूपये प्राप्त करने के बावजूद, परियोजना पूरी न हो सकी।
सक्सेना दम्पति ने कंपनी से अपने द्वारा चुकाई गयी रकम वापसी का आग्रह किया लेकिन कंपनी की तरफ से उन्हें उनके पैसे नहीं लौटाए गए। इसके बाद उन्हें उपभोक्ता आयोग में आने के लिए मजबूर होना पड़ा, जहां उनके वकील, आदित्य पारोलिया ने मानसिक पीड़ा, उत्पीड़न और अनुचित उत्पीड़न के लिए 5 लाख रुपये के मुआवजे के अलावा 24 प्रतिशत ब्याज के साथ पूर्ण रकम की वापसी की मांग की।
दूसरी ओर, सुपरटेक ने 'फ़ोर्स मेजर' (force majeure) का निवेदन किया और कहा कि परियोजना पर काम पूरे जोरों पर नहीं चल रहा है और बहुत जल्द सभी आवंटियों को कब्जा प्रदान कर दिया जाएगा। दरअसल 'force majeure' के अंतर्गत एक पक्ष अप्रत्याशित परिस्थितियों का बचाव मांगता है, जो किसी को अनुबंध पूरा करने से रोकती हैं। दूसरे शब्दों में, फोर्स मेजर क्लॉज, किसी अनुबंध में मौजूद वह एक प्रावधान है जो किसी पक्ष को अपने संविदात्मक दायित्वों को निष्पादित करने से रोकता है, जो एक घटना या प्रभाव के कारण असंभव या अव्यवहारिक हो जाता है, और जो पार्टियों के अनुमान द्वारा नियंत्रित नहीं हो सकता था।
दोनों पक्षों को सुनने के बाद, बेंच ने कोलकाता वेस्ट इंटरनेशनल सिटी प्राइवेट लिमिटेड बनाम देवसी रुद्र और पायनियर अर्बन लैंड एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड बनाम गोविंदन राघवन में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा करते हुए कहा कि, "शिकायतकर्ताओं को अनिश्चित काल के लिए प्रतीक्षा करने के लिए कहा नहीं जा सकता है और इसलिए, वे उनके द्वारा जमा की गई राशि (ब्याज के साथ) के वापसी के हकदार हैं। हमारे विचार में, साधारण ब्याज @ 12% PA के हिसाब से रिफंड राशि, न्याय के सिरों को पूरा करेगी।"
"इस निष्कर्ष पर पहुंचने के दौरान, हमने 'Restitutio in integrum' के सिद्धांत को भी ध्यान में रखा है, जो एक प्रभावित पार्टी की उस स्थिति को बहाल करने के लिए एक हल प्रदान करता है, जो स्थिति प्रभावित पक्ष की क्षति से पहले थी।" यह निर्देश दिया गया कि डेवलपर, "शिकायतकर्ताओं से एकत्र की गई 68,03,954/ - की पूरी राशि को आज से लेकर 6 सप्ताह की अवधि के भीतर, साधारण ब्याज @ 12% PA (सम्बंधित भुगतानों की तारीख से वसूली तक) के साथ वापस करेगा।"
आदेश का स्वागत करते हुए, पारोलिया ने कहा, "माननीय न्यायालयों ने अब त्रुटिपूर्ण बिल्डरों के खिलाफ अपने विचार को क्रिस्टलीकृत कर दिया है और 'Restitutio in integrum' के सिद्धांत को लागू करने का फैसला किया है। अदालतों के इस तरह के निर्णय, बिल्डरों के लिए एक 'डीटरेंट' का कार्य करते हैं और यह सुझाव देते हैं कि कोई भी गलत कार्य करके वे बचकर नहीं निकल सकते हैं। न्यायालयों द्वारा अपनाए गए सख्त दृष्टिकोण सिद्धांत (strict approach principles) देश की न्यायिक प्रणाली में, एक आम व्यक्ति, जो व्यथित है, के विश्वास का निर्माण करते हैं। यह मुद्दा माननीय अदालत ने अपनी संस्था से केवल 12 महीनों में तय किया था, जो अपने आप में उल्लेखनीय है।"