महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण : सुप्रीम कोर्ट खुली अदालत में सुनवाई और इस साल आरक्षण लागू करने पर 15 जुलाई को देगा अंतरिम आदेश 

Update: 2020-07-07 09:01 GMT

सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की श्रेणी  (SEBC) के तहत महाराष्ट्र सरकार द्वारा मराठा समुदाय को दिए गए आरक्षण को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट 15 जुलाई को अंतरिम आदेश देने पर विचार करेगा ।

जस्टिस एल नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने मंगलवार को कहा कि वो इस मामले की खुली अदालत में सुनवाई करने और महाराष्ट्र राज्य में इस साल के लिए शिक्षा और नौकरियों में मराठों को आरक्षण देने पर 15 जुलाई को अंतरिम आदेश जारी करेगा। पीठ ने कहा कि वो इस मामले में दिन-प्रतिदिन सुनवाई करेगा और अगले महीने ये शुरू होगी ।

पीठ ने मामले में शामिल पक्षों ने लिखित प्रस्तुतियां दर्ज करने के लिए कहा और प्रत्येक को बहस करने के लिए समय तय करने को कहा

जस्टिस राव ने कहा कि एक सम्मेलन आयोजित करें और तय करें कि प्रत्येक वकील को कितना समय लगेगा। प्रस्तुतियों की कोई पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए ।वहीं वरिष्ठ वकील श्याम दीवान ने पीठ से आग्रह किया कि वे इस मामले की सुनवाई पूरी सावधानी के साथ हो और वर्चुअल सुनवाई ना हो।उन्होंने आग्रह किया कि इस मामले की खुली अदालत में सुरक्षा उपायों को अपनाते हुए सुनवाई की जाए।

गौरतलब है कि 12 जुलाई 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था हालांकि आरक्षण की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए पीठ ने साफ कर दिया था कि ये आरक्षण पिछली तारीख से लागू नहीं होगा। पीठ ने इस संबंध में महाराष्ट्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा था। पीठ ने ये भी कहा था कि इसके तहत आरक्षण सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अधीन होगा। 

इससे पहले 27 जून 2019 को बॉम्बे हाई कोर्ट ने SEBC के तहत राज्य सरकार द्वारा मराठा समुदाय को दिए गए आरक्षण की वैधता को बरकरार रखा था। हालांकि पीठ ने कहा कि मराठा समुदाय को 16% फीसदी आरक्षण वाजिब नहीं है और ये पिछड़ा वर्ग आयोग के मुताबिक रोजगार के मामले में 12 % व शैक्षणिक संस्थानों में 13% से अधिक नहीं होना चाहिए। 

न्यायमूर्ति रंजीत मोरे और न्यायमूर्ति भारती डांगरे की पीठ ने मराठा आरक्षण अधिनियम (महाराष्ट्र राज्य आरक्षण (राज्य में शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए सीटें और राज्य के तहत लोक सेवा में पदों के लिए नियुक्ति के लिए) सामाजिक रूप से और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग ( SEBC) अधिनियम, 2018 को चुनौती देने वाली दायर याचिका को खारिज कर दिया था। SEBC एक्ट राज्य विधानसभा द्वारा 29 नवंबर, 2018 को पारित किया गया जिसमें मराठों को 16% आरक्षण दिया गया। इस मराठा आरक्षण के बाद महाराष्ट्र में कुल आरक्षण प्रभावी रूप से बढ़कर 52% से 68% हो गया जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 50% की सीमा तय की थी।

NGO 'यूथ फ़ॉर इक्वेलिटी' द्वारा SC में दायर विशेष अवकाश याचिका में इस फैसले को चुनौती दी गई है कि मराठा आरक्षण ने इंदिरा साहनी मामले में ऐतिहासिक फैसले में शीर्ष अदालत द्वारा तय आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन किया है। 

याचिका में दावा किया गया है कि मराठों के लिए SEBC अधिनियम का निर्धारण "राजनीतिक दबाव" के तहत और समानता और शासन के संवैधानिक सिद्धांतों की " पूर्ण अवहेलना" के तहत किया गया है। 

वकील पूजा धर द्वारा दाखिल याचिका में कहा गया है, " उच्च न्यायालय ने यह निष्कर्ष निकाला कि अन्य ओबीसी को मराठों के साथ अपना आरक्षण कोटा साझा करना होगा (यदि मराठा मौजूदा ओबीसी श्रेणी में शामिल किए गए हैं ) तो इंदिरा साहनी द्वारा निर्धारित सीमा 50 प्रतिशत का उल्लंघन करने वाली एक असाधारण परिस्थिति का गठन होगा।" न्यायालय ने माना कि आरक्षण के लिए 50% की सीमा को "असाधारण परिस्थितियों" के तहत पार किया जा सकता है और यह कहा गया कि मराठा आरक्षण गायकवाड़ आयोग द्वारा प्रस्तुत उचित आंकड़ों पर आधारित है। 

याचिका में यह भी दावा किया गया कि उच्च न्यायालय ने इस तथ्य की अनदेखी की कि मराठों ने सामान्य श्रेणी में उपलब्ध सरकारी नौकरियों में से 40 प्रतिशत पर कब्जा किया है। 

"उच्च न्यायालय ने इस तथ्य की अनदेखी की कि खुद गायकवाड़ आयोग ने दर्ज किया कि मराठा समुदाय केवल 19 प्रतिशत जनसंख्या बनाता है, जो दर्शाता है कि एसईबीसी अधिनियम के अनुसार मराठाओं की आबादी का 30 प्रतिशत हिस्सा बताना सही नहीं था। 

याचिका में कहा गया है कि यह स्पष्ट है कि महाराष्ट्र सरकार ने कानून के शासन का मजाक उड़ाया है। सरकार ने अपनी संवैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल राजनीतिक लाभ के लिए भी किया है।

याचिका में कहा कि SEBC अधिनियम, बॉम्बे हाईकोर्ट के 2015 के आदेश का उल्लंघन है और उसके आधार को हटाए बिना संविधान के 102 वें संशोधन में निहित संवैधानिक मर्यादाओं को धता बताते हुए और राजनीतिक दबाव के लिए संवैधानिक सिद्धांतों का पूरी तरह से उल्लंघन किया गया। संविधान के 102 वें संशोधन के अनुसार, राष्ट्रपति द्वारा तैयार की गई सूची में किसी विशेष समुदाय का नाम होने पर ही आरक्षण दिया जा सकता है।

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