मृत्युदंड के प्रतिस्थापन के तौर पर बिना किसी छूट के अंतिम सांस तक आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती है : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मृत्युदंड के प्रतिस्थापन के तौर पर बिना किसी छूट के अंतिम सांस तक आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती है।
जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एमएम सुंदरेश की पीठ ने एक मामले में रखी गयी उस दलील को खारिज कर दिया कि 'भारत सरकार बनाम वी. श्रीहरन- (2016) 7 एससीसी 1' मामले में अल्पमत वाले दृष्टिकोण पर विचार किया जाना चाहिए, जिसमें संविधान पीठ के दो न्यायाधीशों ने एक तरह का मंतव्य प्रकट किया था।
कोर्ट ने रवीन्द्र नामक व्यक्ति द्वारा रिट याचिका पर विचार करने के दौरान कहा,
"एक बार जब किसी विशेष मामले में बहुमत की राय आती है तो यह संविधान पीठ का निर्णय होता है। बहुमत का फैसला कहता है कि मौत की सजा के स्थानापन्न के रूप में अंतिम सांस तक बिना किसी छूट के आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती है। इस प्रकार, हम उस तर्क को अस्वीकार करते हैं।''
हालांकि, कोर्ट ने रिट याचिका में किशोरता के सीमित मुद्दे पर नोटिस जारी किया।
'वी. श्रीहरन' मामले में संविधान पीठ ने क्या व्यवस्था दी थी?
वी. श्रीहरन मामले में संविधान पीठ द्वारा विचार किए गए दो मुद्दे ये थे: (1) क्या दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 45 के साथ पठित धारा 53 के अनुसार आजीवन कारावास का अर्थ कैदी के शेष जीवन के लिए कारावास है या आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे दोषी को छूट का दावा करने का अधिकार है और (2) क्या बहुत कम मामलों के लिए सजा की एक विशेष श्रेणी बनाई जा सकती है जहां मौत की सजा को आजीवन कारावास की सजा या चौदह साल से अधिक की अवधि के लिए कारावास की सजा से प्रतिस्थापित किया जा सकता है और उस श्रेणी को छूट के आवेदन से परे रखा जा सकता है।
बहुमत (3:2) के फैसले में (जस्टिस एचएल दत्तू (तत्कालीन सीजेआई), जस्टिस फकीर मोहम्मद इब्राहिम कलीफुल्ला और जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष ने इन मुद्दों का उत्तर दिया था (1) दंड संहिता की धारा 45 के साथ पठित धारा 53 के संदर्भ में आजीवन कारावास का अर्थ दोषी के शेष जीवन के लिए केवल कारावास है। संविधान के अनुच्छेद 72 या अनुच्छेद 161 के तहत प्रदान की गयी छूट, कम्यूटेशन (सजा को कम करना), रिप्रीव (दंड विराम) आदि का दावा करने का अधिकार हमेशा संवैधानिक उपचार के रूप में उपलब्ध रहेगा जिसे न्यायालय नहीं छू सकता है। (2) 'स्वामी श्रद्धानंद बनाम कर्नाटक सरकार' के मामले में निर्धारित फैसला कि मौत के बजाय, एक विशेष श्रेणी की सजा को आजीवन कारावास की सजा या 14 साल से अधिक की अवधि के लिए प्रतिस्थापित किया जा सकता है और उस श्रेणी को छूट की अर्जी से परे रखा जाना पूर्णरूपेण स्थापित है।
न्यायमूर्ति यूयू ललित और न्यायमूर्ति एमएम सुंदरेश ने एकमत फैसले में कहा कि यह अदालत के लिए मौत की सजा के स्थान पर किसी विशेष श्रेणी की सजा बनाने और उस श्रेणी को छूट के आवेदन से परे रखने के लिए विचारणीय नहीं होगा, और न ही सीआरपीसी की धारा 433ए के तहत निर्धारित वास्तविक कारावास की कोई अनिवार्य अवधि तय करने की अनुमति होगी।
केस का नाम: रवींद्र बनाम भारत सरकार
साइटेशन : 2022 लाइव लॉ (एससी) 156
कोरम: जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एमएम सुंदरेश
मामला संख्या | दिनांक: रिट याचिका (क्रिमिनल) 45/2022 | 11 फरवरी 2022
केस लॉ: मिसाल का कानून - संविधान पीठ का फैसला - किसी विशेष मामले में बहुमत से निर्णय होता है, वह संविधान पीठ का फैसला होता है। (पैरा 3)
भारत का संविधान, 1950 - अनुच्छेद 72 और 161 - दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 - धारा 432, 433 और 433ए - भारतीय दंड संहिता, 1860 - धारा 45 और 53 - मौत की सजा के प्रतिस्थापन के रूप में अंतिम सांस तक बिना किसी छूट के आजीवन कारावास दी जा सकती है । (पैरा 3)
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