गैंगरेप-हत्या के दोषियों की समय से पहले रिहाई को चुनौती देने वाली बिलकिस बानो की याचिका पर सुनवाई से जस्टिस बेला त्रिवेदी ने खुद को अलग किया
सुप्रीम कोर्ट की न्यायाधीश जस्टिस बेला त्रिवेदी ने मंगलवार को 2002 के गुजरात दंगों के दौरान सामूहिक बलात्कार और हत्या के लिए उम्रकैद की सजा पाए 11 दोषियों की समय से पहले रिहाई को चुनौती देने वाली बिलकिस बानो द्वारा दायर रिट याचिका पर सुनवाई से खुद को अलग कर लिया।
जस्टिसअजय रस्तोगी और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की पीठ के समक्ष रिट याचिका सूचीबद्ध हुई, लेकिन जब मामले की सुनवाई हुई तो जस्टिस रस्तोगी ने याचिकाकर्ता की वकील एडवोकेट शोभा गुप्ता को जस्टिस त्रिवेदी के इस सुनवाई से अलग होने के बारे में बताया।
जस्टिस रस्तोगी ने कहा,
"मामले को उस पीठ के समक्ष सूचीबद्ध करें जिसका हम में से कोई हिस्सा नहीं हो।"
इसके बाद गुप्ता ने शीतकालीन अवकाश में कोर्ट बंद होने से पहले मामले को तत्काल सूचीबद्ध करने का अनुरोध किया। जस्टिस त्रिवेदी को 2004-2006 के दौरान गुजरात सरकार के कानून सचिव के रूप में प्रतिनियुक्त किया गया था।
जस्टिस रस्तोगी की अगुवाई वाली पीठ ने मई, 2022 में फैसला सुनाया था कि गुजरात सरकार के पास छूट के अनुरोध पर विचार करने का अधिकार क्षेत्र है, क्योंकि अपराध गुजरात में हुआ था।
गुजरात हाईकोर्ट ने पहले माना कि महाराष्ट्र राज्य द्वारा छूट पर विचार किया जाना है, क्योंकि गुजरात से स्थानांतरण पर मुंबई में ट्रायल किया गया। बाद में 15 अगस्त, 2022 को सभी ग्यारह दोषियों को रिहा कर दिया गया। रिहा किए गए दोषियों के वीरतापूर्ण स्वागत के दृश्य सोशल मीडिया में वायरल हो गए, जिससे कई वर्गों में आक्रोश फैल गया। इस पृष्ठभूमि में दोषियों को दी गई राहत पर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकाएं दायर की गईं। माकपा नेता सुभाषिनी अली, पत्रकार रेवती लाल, टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा, पूर्व आईपीएस अधिकारी मीरा चड्ढा बोरवंकर और कुछ अन्य पूर्व सिविल सेवक, नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वीमेन आदि कुछ याचिकाकर्ता हैं। याचिकाओं का जवाब देते हुए गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को हलफनामे में बताया गया कि यह फैसला दोषियों के अच्छे व्यवहार और उनके द्वारा 14 साल की सजा पूरी होने को देखते हुए केंद्र सरकार की मंजूरी के बाद लिया गया।
राज्य के हलफनामे से पता चला कि सीबीआई और ट्रायल कोर्ट (मुंबई में विशेष सीबीआई कोर्ट) के पीठासीन न्यायाधीश ने इस आधार पर दोषियों की रिहाई पर आपत्ति जताई कि अपराध गंभीर और जघन्य है। राज्य के हलफनामे के अनुलग्नकों से पता चलता है कि दोषियों में से एक को 2020 में पैरोल पर बाहर रहने के दौरान एक महिला के यौन उत्पीड़न के लिए गिरफ्तार किया गया था। अब, अपराध की पीड़िता ने खुद ही दोषियों को रिहा करने के फैसले पर सवाल उठाते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया है।
बैकग्राउंड
यह अपराध गुजरात में 2002 के सांप्रदायिक दंगों के दौरान हुआ था। पांच महीने की गर्भवती बिलकिस बानो, जो तब लगभग 19 साल की थी, अपने परिवार के सदस्यों के साथ दाहोद जिले के अपने गांव से भाग रही थी। जब वे छप्परवाड़ गांव बिलकिस के बाहरी इलाके में पहुंचे तो उनकी मां और तीन अन्य महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और उनकी तीन साल की बेटी सहित उनके परिवार के 14 सदस्यों की हत्या कर दी गई।
आरोपी व्यक्तियों के राजनीतिक प्रभाव और मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार जांच सीबीआई को सौंपी गई। सुप्रीम कोर्ट ने भी मुकदमे को महाराष्ट्र स्थानांतरित कर दिया। 2008 में मुंबई की एक सत्र अदालत ने आरोपी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। 15 साल जेल में बिताने के बाद एक आरोपी ने अपनी समय से पहले रिहाई की याचिका के साथ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसे पहले गुजरात हाईकोर्ट ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि उपयुक्त सरकार महाराष्ट्र की होगी न कि गुजरात की। सुप्रीम कोर्ट ने 13.05.2022 को फैसला किया कि छूट देने वाली उपयुक्त सरकार गुजरात सरकार होगी और उसे 1992 की छूट नीति के संदर्भ में दो महीने की अवधि के भीतर याचिका पर विचार करने का निर्देश दिया।