घायल व्यक्ति की गवाही भरोसे के लायक, बशर्ते उसके बयान में व्यापक विरोधाभास न हो, पटना हाईकोर्ट का फैसला

Update: 2019-10-20 13:01 GMT

पटना हाईकोर्ट ने बुधवार को एक बार फिर कहा कि घायल व्यक्ति की गवाही व्यापक महत्व की होती है और जब तक उसके बयान में व्यापक विरोधाभास न हो तब तक उस पर भरोसा अवश्य किया जाना चाहिए।

इस प्रकार, हाईकोर्ट ने निचली अदालत की ओर से अभियुक्त की दोषसिद्धि के उस आदेश में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया, जिसके तहत ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता चंदन चौधरी को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 307, 326, 341 और 447 के तहत सात साल जेल की सजा सुनायी थी।

इस मामले में अभियुक्त के खिलाफ घातक हथियारों से गंभीर रूप से घायल करके हत्या का प्रयास करने, गलत तरीके से अपने कब्जे में रखने तथा आपराधिक तरीके से अनाधिकार प्रवेश करने के आरोप थे। अपीलकर्ता और शिकायतकर्ता के बीच लंबे समय से दुश्मनी चल आ रही थी तथा निश्चित तौर पर अपीलकर्ता ने शिकायतकर्ता के घर पर धावा बोला था तथा उसे और उसके परिजनों की हत्या के प्रयास किये थे।

अपीलकर्ता ने दोषसिद्धि के आदेश को यह कहते हुए चुनौती दी थी कि यह आदेश उचित तथ्यों के आलोक में समीक्षा किये बिना यंत्रवत जारी किया गया था। उसने दलील दी थी कि अभियोजन पक्ष की ओर से जांच अधिकारी (आईओ) से पूछताछ नहीं की गयी थी, जबकि साक्ष्यों में तथ्यात्मक गड़बड़ियां भी थी और इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश भी किया गया था, लेकिन उसकी गैर-मौजूदगी में इन तथ्यों पर विचार नहीं किया गया।

न्यायालय ने बात पर सहमति जतायी कि मामले की गवाही में कुछ विरोधाभास हो सकते हैं, और आईओ से पूछताछ न होने के कारण इन पहलुओं पर विस्तृत विचार नहीं किया गया होगा।

इस संदर्भ में पीठ ने कहा,

"कानून में ऐसा कोई ठोस सिद्धांत नहीं है कि अभियोग के अंत में अपना केस साबित करने के लिए आईओ से पूछताछ होनी ही चाहिए। हालांकि अदालत को यह तय करना होता है कि क्या अभियोजन पक्ष आईओ की गैर-मौजूदगी में अपना केस सही तरीके से रख पाया है या नहीं? लेकिन यदि ऐसा पाया जाता है कि अभियोजन पक्ष के बयान में कोई कमी है तो वैसी स्थिति में आईओ से पूछताछ आवश्यक हो जाती है।
वैसी परिस्थिति में बचाव पक्ष की ओर से दिये गये अन्य तथ्यों के अलावा आईओ से पूछताछ न किये जाने को अभियोग की व्यापक खामी समझा जायेगा।"

इस मामले में हाईकोर्ट ने 'मानो दत्त एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2012)' मामले के फैसले पर भरोसा किया।

न्यायमूर्ति आदित्य कुमार त्रिवेदी ने स्पष्ट किया कि इस मामले में अभियोजन पक्ष ने सही तरीके से केस की व्याख्या की थी। साथ ही उन्होंने महज आईओ से पूछताछ न किये जाने के आधार पर ट्रायल कोर्ट के निष्कर्ष में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया।

उन्होंने आगे कहा कि अपीलकर्ता ने शिकायतकर्ता और उसके परिजनों के जख्म की प्रकृति के संबंध में चिकित्सा अधिकारी द्वारा दी गयी गवाही का खंडन नहीं किया है। जख्मी गवाह की अविवादित गवाही का भी व्यापक महत्व होता है। हाईकोर्ट ने कहा,

"जहां तक घायल गवाह का प्रश्न है तो उसे प्राथमिकता दी गयी है और उसके जख्म इस बात की गवाही देते हैं कि वह उसी प्रकार जख्मी हुआ है, जैसा उसने बयान दिया था। साथ ही घटनास्थल पर उसकी मौजूदगी की पुष्टि भी होती है। इसलिए जब तक उसमें स्पष्ट अंतर नहीं दिखता उसका बयान स्वीकार करने योग्य है।"

इस मामले में हाईकोर्ट ने 'मुकेश एवं अन्य बनाम दिल्ली सरकार एवं अन्य (2017)' के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये फैसले पर भरोसा जताया जिसमें शीर्ष अदालत ने विभिन्न दृष्टांतों के आलोक में कहा था,

"घायल गवाही के साक्ष्य को व्यापक तरजीह देनी चाहिए और इस तरह के गवाह के बयान को परिवाद से परे तथा भरोसेमंद माना जाना चाहिए। किसी घायल गवाह की गवाही को नकारने के लिए मजबूत एवं ठोस आधार और जमीनी हकीकत की जरूरत होती है।"

कोर्ट ने अंत में यह भी स्पष्ट किया कि अपीलकर्ता-अभियुक्त की पहचान को लेकर कुछ खामियां थीं, लेकिन यह घातक नहीं था, क्योंकि मुकदमे की सुनवाई के अंत तक यह स्पष्ट हो गया था।

इस मामले में 'शिवशंकर सिंह बनाम झारखंड (2011)' मामले के फैसले पर भरोसा जताया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि

"परीक्षण पहचान परेड आयोजित करने में जांच एजेंसी की विफलता से अदालत में पहचान के सबूत पर कोई असर नहीं पड़ता। इस तरह की पहचान का कितना महत्व होना चाहिए, इसका निर्धारण अदालत प्रत्येक मामले में अलग-अलग तथ्यों एवं परिस्थितियों के अुनरूप करेगी। उचित मामलों में अदालत पहचान के साक्ष्य को भी पुष्टि के बिना स्वीकार कर सकती है।"

अपीलकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता रमाकांत शर्मा एवं वकील अंजनी पराशर तथा धनंजय कुमार तिवारी ने जिरह की, जबकि राज्य सरकार का पक्ष सहायक लोक अभियोजक (एपीपी) एस ए अहमद ने रखा। 


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