मूल किरायेदार का रिश्तेदार होने के नाते किसी व्यक्‍ति को किरायेदारी का अधिकार नहीं मिला जाता है: बॉम्बे हाईकोर्ट

Update: 2020-01-08 12:30 GMT

बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा है कि किरायेदारी के स्वतंत्र अधिकार का दावा केवल इसलिए नहीं किया जा सकता है क्योंकि मूल किरायेदार एक रिश्तेदार था। अदालत ने एक किरायेदार द्वारा दायर याच‌िका, जिसमें उसने संपत्ति पर अधिकार का दावा किया था और जहां वह संयुक्त परिवार में 1979 से रह रही थी, को खारिज कर दिया है।

जस्टिस जीएस कुलकर्णी ने वसंत जोशी और उनके परिवार के सदस्यों द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई की। वसंत जोशी को निचली अदालत ने एक नवंबर, 1997 के अपने फैसले और आदेश में उक्त संपत्ति से बेदखल कर दिया था, कोर्ट ने ये फैसला संपत्ति के मालिकों द्वारा दायर किए गए मुकदमे में दिया था।

केस की पृष्ठभूमि

प्रतिवादी ने बेदखली के मुकदमें के मूल वादी के कानूनी उत्तराधिकारी हैं। जिस संपत्त‌ि के लिए मुकदमा दायर किया गया है, उसके मूल किरायेदार रघुनाथ थे, जो प्रतिवादी नंबर 1 अच्युत जोशी के पिता थे, जिसे इस याचिका में प्रतिवादी संख्या 3 के रूप में दर्ज किया गया है।

1971 में रघुनाथ की मृत्यु पर अच्युत के नाम पर किराए की रसीद हस्तांतरित की गई, हालांकि रघुनाथ के भाई और उनके परिवार के सदस्यों ने भी उक्त संपत्ति पर कब्जा कर लिया।

इसके बाद, अच्युत ने वर्ष 1979 में मुकदमे में शामिल संपत्त‌ि छोड़ दी और पुणे में एक अन्य आवास में रहने लगे। इस प्रकार उक्त परिसर बचाव पक्ष 2 -वसंत जोशी, जो कि अच्युत के चचेरे भाई और परिवार के सदस्य (याचिकाकर्ता) ‌थे, साथ ही इन कार्यवाहियों को आगे बढ़ा रहे हैं, के कब्जे में आ गया।

अगस्त 1982 में प्रतिवादियों के खिलाफ तीन आधारों के तहत मुकदमा दायर किया गया था- पहला आधार था ‌कि किरायेदार प्रतिवादी नंबर 1-अच्युत, मासिक किराए के भुगतान में चूक गया था, दूसरा यह कि प्रतिवादी संख्या 1 ने पुणे में एक फ्लैट ले लिया था पुणे, और परिवार के साथ उक्त फ्लैट में तीन साल से रह रहा था, इसलिए प्रतिवादियों को किराए के मकान की बिल्कुल जरूरत नहीं थी। अंत‌िम आधार ये कि वादी को आवास की जरूरत थी।

वादी के बच्चों को पुणे में शिक्षा के लिए रखा जाना था। वादी नंबर 1 को जल्द ही सेवानिवृत्त होना था और विवाद‌ित मकान को छोड़कर उनके पास पुणे में निवास करने के लिए कोई अन्य आवास नहीं था। वादी नंबर 1 को पुणे ट्र्रांसफर कर दिया गया था उन्हें मकान की सख्त जरूरत थी।

उपरोक्त आधार पर, वादी ने 10 मई, 1982 को अच्युत को एक नोटिस भेजा, जिसमें उपरोक्त आधारों पर किरायेदाररी को समाप्त कर दिया गया और मकान पर कब्जे की मांग की गई। अच्युत ने नोटिस का पालन नहीं किया, जिसके बाद बेदखली का मुकदमा दायर किया गया।

निर्णय

याचिकाकर्ताओं की ओर से वकील अनीता अग्रवाल पेश हुईं, अधिवक्ता धीरज गोले ने अच्युत जोशी की ओर से और अधिवक्ता ध्रुपद पाटिल प्रतिवादी नंबर 2 की ओर से पेश हुए।

कोर्ट ने कहा-

"अधिनियम की धारा 5 (11) (सी) (आई) के सामान्य अवलोकन से याचिकाकर्ता / प्रतिवादी नंबर 2 की ओर से आग्रह के रूप में पेश इस विवाद को स्वीकार करना मुश्किल है, जिनकी दलील है कि प्रावधान संयुक्त परिवार के प्रत्येक सदस्य या संयुक्त परिवार को बॉम्बे रेंट एक्ट के तहत किरायेदार मानता है।

वर्तमान संदर्भ में, याचिकाकर्ता/प्रतिवादी नंबर 2 द्वारा बताए गए संयुक्त परिवार के किसी भी सदस्य को शामिल करने के लिए अधिनियम की धारा 5 (11) में उपयोग किए गए वाक्यांश 'किसी भी व्यक्ति' की व्याख्या करना एक बेतुकापन होगा। "

इसके बाद कोर्ट ने कांति भट्टाचार्य और अन्य बनाम केएस परमेश्वरन और अन्य, विमलाबाई केशव गोखले बनाम अविनाश कृष्णजी बिन्नावाले और अन्य और शमकांत तुकाराम नाइक बनाम दयानबाई शमसान दिघोडकर के मामलों में ‌‌दिए हाईकोर्ट के पिछले निर्णयों पर विचार किया।

बेंच ने कहा-

"उपरोक्त निर्णयों को ध्यान में रखते हुए, यह संदेह के परे है कि वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता/प्रतिवादी नंबर 2, केवल इसलिए कि वह एक परिवार का सदस्य था, मृतक किरायेदार-रघुनाथ के भाई सदाशिव का पुत्र होने के नाते , किरायेदारी के किसी भी स्वतंत्र अधिकार का दावा नहीं कर सकता था और/ या किरायेदारी के अधिकार प्राप्त करने का दावा कर सकता था। "

याचिका को खारिज करते हुए, कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं को निर्णय की तारीख से छह महीने की अवधि के भीतर वादी को मकान का कब्जा सौंपने का निर्देश दिया।

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