अगर आज़ाद प्रेस मर गया है, तो लोकतंत्र भी नहीं बच पाएगाः सीमा च‌िश्ती

Update: 2020-07-01 16:45 GMT

इंडियन एक्सप्रेस की डिप्‍टी एडिटर सीमा चिश्ती ने कहा है कि, "पहले, पहले, गौरी लंकेश की हत्या तक, लोग गैर-कानूनी तरीकों से पत्रकारों परेशान करते थे। लेकिन, अब, लोग कानून का इस्तेमाल कर उन्हें परेशान कर रहे हैं।

उन्होंने यह बात लाइवलॉ की ओर से आयोजित एक ई-सेमिनार में कही है, जिसका विषय था, "शूटिंग दी मैसेंजरः दी च‌िलिंग इफेक्‍ट ऑफ क्रिमिनालाइजिंग जर्नलिज्म।"  उन्होंने कहा, "अगर फ्री प्रेस मर गया है, तो लोकतंत्र भी नहीं बच पाएगा। इसलिए, हमें अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए, फ्री प्रेस को बचाने की आवश्यकता है।"

ई-सेमिनार में जस्टिस मदन बी लोकुर और सीनियर एडवोकेट डॉ कॉलिन गोंसाल्विस अन्य प्रमुख वक्ता थे। कार्यक्रम को एडवोकेट मालविका प्रसाद ने संचालित किया।

कार्यक्रम की शुरुआत देश भर के पत्रकारों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए और 188 जैसे संज्ञेय और गैर-संज्ञेय अपराधों के तहत दर्ज एफआईआर पर चर्चा से हुई। इन मामलों में संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत प्रदत्त प्रेस की स्वतंत्रता की गरंटी को खतरे में डालने की क्षमता है।

इस संदर्भ में, चिश्ती ने लॉकडाउन के दरमियान पत्रकारों को आई बाधाओं और मुश्किलों का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि भारत में पत्रकारिता का परिदृश्य काफी डरावना है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 142वें स्‍थान पर हैं।

इसे ध्यान में रखते हुए, वरिष्ठ पत्रकार ने इस मुद्दे की चार बिंदुओं के जर‌िए विस्तार से चर्चा की: 1. पत्रकारों के लिए सरकार का दृष्टिकोण; 2. मीडिया में तकनीकी चुनौतियों के कारण उत्पन्न मुद्दे; 3. पत्रकारों के संबंध में नकारात्मक जनमत; और 4. संस्थागत सहायता का अभाव।

चिश्ती ने कहा कि पत्रकारों के लिए सरकार के दृष्टिकोण ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें सरकार पर सवाल उठाने वाले को जवाबदेह ठहराया जाता है।

"सरकार को निश्चित रूप से अपनी बात कहनी चाहिए। लेकिन, ऐसे वरिष्ठ मंत्री हैं, जिन्होंने पत्रकारों को 'प्रेस्टीट्यूट्स' कहा है। हमारे पास आम जनता की राय भी है। जब आपातकाल घोषित किया गया था, तो अखबार के संपादकों को जनता का समर्थन मिल रहा था। अब ऐसा नहीं है। जनता पत्रकारों की तरफ नहीं है। अदालतों से भी कोई संस्थागत समर्थन नहीं है। "

वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ कॉलिन गोंसाल्वेस ने पत्रकारों के खिलाफ इस्तेमाल किए जा रहे देशद्रोह के कानून के मुद्दे पर चिश्ती से सहमत हुए।

उन्होंने कहा, "मैं सुश्री चिश्ती से सहमत हूं कि कानून का वैसे ही क्रूर प्रयोग हो सकता है, जैसे एक 'डंडा' का प्रयोग। देशद्रोह के कानून का व्यापक रूप से उपयोग किया जा रहा है और इसकी सावधानीपूर्वक निगरानी भी नहीं हो रही है। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां कानूनी प्रतिनिधित्व भी कम है।"

गोंसाल्वेस ने मणिपुर के मुख्यमंत्री के एक केस का जिक्र किया, जिसमें उन्होंने एक पत्रकार के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज कराया था। उस पत्रकार ने उनके खिलाफ अपशब्द का प्रयोग किया था। उन्होंने कहा कि केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) का निर्णय बहुत ही खराब था, इसलिए, देशद्रोह के कानून इस प्रकारअंधाधुंध तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा था।

हालांकि पत्रकारों की सुरक्षा के लिए नए कानूनों को लागू करने के सवाल पर, चिश्ती और गोंसाल्वेस दोनों अनिच्छा जाहिर की। गोंसाल्वेस ने कहा कि कि नए कानूनों को बनाने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि उन कानूनों की व्याख्या और उपयोग महत्वपूर्ण होता है। चिश्ती ने मौजूदा सरकार की कुशलता पर सवाल उठाया, जो एक ऐसे कानून को लागू कर सकती है, जिससे प्रेस की स्वतंत्रता को बढ़ावा मिले।

चिश्ती ने एक मजबूत न्यायपालिका की आवश्यकता पर जोर दिया, जो सरकार से सवाल पूछने पर एक पत्रकार या किसी व्यक्ति की रक्षा करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का निर्वहन करती हो।

"हमें रीढ़ की आवश्यकता है, हमें एक अच्छे रवैये की आवश्यकता है। हमें 'क्या आप राष्ट्रवादी हैं, क्या आप राष्ट्र-विरोधी हैं' के द्वैध से मुक्त होने की आवश्यकता है। हमें अपने लोकतंत्र के प्रति अपनी धारणा को ताजा करने के लिए दृष्टिकोण में बदलाव की आवश्यकता है। सरकार दबाव डालेगी और भीड़ रास्ते में आएगी। इस कारण न्यायाधीशों को संवेदनशील बनाने की जरूरत है। "

चिश्ती और गोंसाल्विस ने प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए खुद को संगठित करने वाले पत्रकारों के महत्व पर भी प्रकाश डाला। गोंसाल्वेस ने कहा कि "एक पत्रकार का अपमान सभी का अपमान होना चाहिए। यह एक व्यक्तिगत समस्या नहीं होनी चाहिए। एक पत्रकार के संकट को देखते रहने के बजाय, सभी पत्रकारों को एक साथ आकर उस संकट का जवाब देना चाहिए।"

कार्यक्रम का पूरा वीडियो देखने के लिए क्तिक कीजिए-


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