अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट FIR में आरोपों की सत्यता का निर्धारण नहीं कर सकता : सुप्रीम कोर्ट
“हाईकोर्ट केवल अपवाद की स्थिति में ही केवल समीक्षा कर सकता है, यदि प्राथमिकी के आरोपों से पूर्व दृष्टया किसी अपराध का खुलासा नहीं होता है।”
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि प्राथमिकी के आरोपों की सत्यता के निर्धारण के लिए हाईकोर्ट के रिट संबंधी अधिकार क्षेत्र को लागू नहीं किया जा सकता।
न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की खंडपीठ ने कहा कि हाईकोर्ट का हस्तक्षेप केवल अपवाद की स्थिति में ही हो सकता है, यदि प्राथमिकी के आरोपों से पूर्व दृष्टया किसी अपराध का खुलासा नहीं होता है।
बेंच उत्तराखंड हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती देने वाली अपील पर विचार कर रहा था, जिसमें हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश गैंगस्टर और समाज-विरोधी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1986 की धारा 2/3 के तहत याचिकाकर्ता के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी रद्द करने संबंधी रिट याचिका खारिज कर दी थी।
बेंच ने कहा कि प्राथमिकी पर विचार करने से यह पता चलता है कि अपीलकर्ता एवं अन्य लोग अपने खिलाफ मामले के गवाहों की आवाज दबाने के लिए सार्वजनिक तौर पर धमकी दे रहे हैं और शारीरिक हिंसा सहित अन्य तरह की दादागीरी का सहारा ले रहे हैं।
बेंच ने अपील खारिज करते हुए कहा :
"हाईकोर्ट भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत कार्यवाही करते हुए प्राथमिकी में दर्ज आरोपों की सत्यता को लेकर निर्णय नहीं देता है। कोर्ट केवल अपवाद की स्थिति में ही हस्तक्षेप कर सकता है, यदि प्राथमिकी के आरोपों से पूर्व दृष्टया किसी अपराध का खुलासा नहीं होता है। हमारा सुविचारित विचार है कि हाईकोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत प्राथमिकी को निरस्त करने से इन्कार करके और रिट याचिका खारिज करके सही निर्णय लिया है।"
केस नं.- क्रिमिनल अपील नं. 20/2010
केस का नाम : पद्मा मिश्रा बनाम उत्तराखंड सरकार
कोरम : न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी एवं न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस
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