[दहेज मृत्यु] साक्ष्य अधिनियम की धारा 113बी के तहत धारणा : निकटता परीक्षण कोई विशेष समय अवधि परिभाषित नहीं करता : सुप्रीम कोर्ट

Update: 2022-01-09 07:58 GMT

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने हाल के फैसले में दहेज मृत्यु और इससे संबंधित मामलों में अपराध की धारणा से संबंधित कानून की एक महत्वपूर्ण स्थिति को बरकरार रखा। भारतीय दंड संहिता की धारा 304बी और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113बी के घटक की व्याख्या की गयी है।

कोर्ट ने 'माया देवी एवं अन्य बनाम हरियाणा सरकार (2015) 17 एससीसी 405' के ऐतिहासिक मामले में निर्धारित निकटता परीक्षण पर भी भरोसा जताया।

न्यायमूर्ति हिमा कोहली द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी की प्रयोज्यता को पूरा करने के लिए, निम्नलिखित पूर्व-आवश्यकताओं को पूरा किया जाना चाहिए:

(i) कि एक महिला की मौत जलने या शारीरिक चोट के कारण हुई होगी या सामान्य परिस्थितियों से अलग हुई होगी;

(ii) कि ऐसी मृत्यु उसकी शादी के सात साल की अवधि के भीतर हुई होगी;

(iii) महिला को उसकी मृत्यु से ठीक पहले अपने पति के हाथों क्रूरता या उत्पीड़न का शिकार होना चाहिए; तथा

(iv) कि ऐसी क्रूरता या उत्पीड़न दहेज की किसी मांग के लिए या उससे संबंधित रहा होगा।

अदालत ने यह भी नोट किया कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 113 बी के साथ पढ़ी गई आईपीसी की धारा 304 बी इस बात में कोई संदेह नहीं छोड़ती है कि एक बार अभियोजन पक्ष यह प्रदर्शित करने में सक्षम हो गया है कि एक महिला को उसकी मृत्यु से ठीक पहले दहेज की मांग के लिए या उसके संबंध में क्रूरता या उत्पीड़न का शिकार बनाया गया है, तो कोर्ट इस अनुमान पर आगे बढ़ेगा कि जिन लोगों ने दहेज की मांग के लिए या उसे लेकर उसके साथ क्रूरता या उत्पीड़न किया है, वे आईपीसी की धारा 304बी के तहत दहेज मृत्यु का कारण हैं।

तथ्यात्मक पृष्ठभूमि

इस मामले में दहेज की मांग को लेकर मृतका की हत्या का उसके ससुराल वालों पर आरोप लगा है। मृतका की शादी आरोपी पति से कुछ महीने पहले हुई थी और अदालत के सामने कई गवाह थे जिन्होंने गवाही दी थी कि उससे दहेज की मांग की जा रही थी और उसके ससुराल वालों ने उसे धमकी भी दी थी कि अगर वह दहेज नहीं लाती है तो, उसका पति किसी और से पुनर्विवाह करेगा। एक दिन, मृतका लापता हो गई और सात दिन बाद उसका शव एक जलाशय से बरामद किया गया, जिसमें कोई मृत्यु पूर्व चोट नहीं थी।

कोर्ट ने इस मामले में दो अपीलों पर एक साथ सुनवाई की। पहली अपील मृतका की सास ने और दूसरी अपील मृतका के पति की ओर से दायर की गई है। ट्रायल कोर्ट ने 20 सितंबर, 1999 को दोनों अपीलकर्ताओं को धारा 304बी और धारा 201 के साथ पठित धारा 34 के तहत दोषी ठहराया था और उन्हें प्रत्येक मामले में क्रमशः दस साल और तीन साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी, जिसमें दोनों सजाएं साथ-साथ चलनी थीं। हाईकोर्ट ने अपने 'विवादित' फैसले में निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा।

वकीलों की दलीलें

अपीलकर्ताओं के वकील मृतका के लापता होने के संबंध में कोई ठोस स्पष्टीकरण देने में विफल रहे। एक तर्क दिया गया कि जलाशय से बरामद शव पहचानने योग्य नहीं रह गया था, लेकिन मृतका के पिता ने पहने हुए कपड़ों के आधार पर और चेहरे का कुछ हिस्सा बरकरार रहने के कारण इसे पहचान लिया। एक और तर्क दिया गया कि घटना के समय आरोपी पति कोलकाता में काम कर रहा था, हालांकि इसे अदालत के सामने साबित नहीं किया जा सका।

कई गवाहों की गवाही के माध्यम से अभियोजन पक्ष का मामला आरोपी पति के खिलाफ अच्छी तरह से स्थापित हो गया था। अदालत के समक्ष कोई चश्मदीद गवाह पेश नहीं किया गया था, हालांकि परिस्थितिजन्य साक्ष्य को आरोपी के अपराध को साबित करने के लिए पुष्टि की गई थी।

कोर्ट दोनों पक्षों को सुनने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अभियोजन पक्ष के मामले को अच्छी तरह से स्थापित करने के लिए आरोपी के खिलाफ सबूतों की पुष्टि की गई थी।

कोर्ट ने 'बंसीलाल बनाम हरियाणा सरकार (2011) 11 एससीसी 359' के मामले में दिये गये फैसले को संदर्भित किया, जिसमें कहा गया था कि "धारा 498-ए (एसआईसी धारा 304-बी) के तहत मामले पर विचार करते समय मृत्यु के समय की निकटता के दौरान क्रूरता साबित करनी होगी और यह निरंतर होना चाहिए और आरोपी द्वारा इस तरह के निरंतर शारीरिक या मानसिक उत्पीड़न मृतका के जीवन को दुखदायी बनाता प्रतीत होना चाहिए, जिससे मृतका आत्महत्या करने के लिए मजबूर हुई हो।''

कोर्ट ने 'माया देवी और अन्य बनाम हरियाणा सरकार (2015) 17 एससीसी 405' के मामले पर भी भरोसा जताया जहां व्यवस्था दी गयी थी कि- "धारा 304-बी के प्रावधानों को आकर्षित करने के लिए, अपराध के मुख्य तत्वों में से एक को स्थापित करने की आवश्यकता है कि "उसकी मृत्यु से तुरंत पहले" उसे "दहेज की मांग को लेकर, या इससे संबंधित क्रूरता या उत्पीड़न किया गया था। आईपीसी की धारा 304 और साक्ष्य अधिनियम धारा 113-बी में प्रयुक्त अभिव्यक्ति "उसकी मृत्यु से तुरंत पहले" निकटता परीक्षण के विचार के साथ मौजूद है। हालाँकि, उक्त अभिव्यक्ति का सामान्य रूप से अर्थ होगा कि संबंधित क्रूरता या उत्पीड़न और संबंधित मृत्यु के बीच अधिक अंतराल नहीं होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, दहेज की मांग को लेकर क्रूरता के प्रभाव और संबंधित मृत्यु के बीच एक निकट और सीधा सम्पर्क मौजूद होना चाहिए। यदि क्रूरता की कथित घटना समय में दूरस्थ है और संबंधित महिलाओं के मानसिक संतुलन को परेशान न करने के लिए पर्याप्त रूप से पुरानी हो गई है, तो इसका कोई परिणाम नहीं होगा।"

कोर्ट ने जोर दिया कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 304-आईपीसी और धारा 113-बी में प्रयुक्त अभिव्यक्ति "उसकी मृत्यु से पहले" निकटता परीक्षण के विचार के साथ मौजूद है जो किसी विशेष समय अवधि को परिभाषित नहीं करता है और मामला-दर-मामला आधार पर लागू होना चाहिए। इसके अलावा, आईपीसी की धारा 304बी के तहत उठायी गयी अवधारणा पर विस्तृत चर्चा करते हुए न्यायालय ने कहा:

"साक्ष्य अधिनियम की धारा 113 बी  सहपठित आईपीसी की धारा 304 बी इस बात में कोई संदेह नहीं छोड़ती है कि एक बार अभियोजन पक्ष यह प्रदर्शित करने में सक्षम हो गया है कि एक महिला को उसकी मृत्यु से ठीक पहले दहेज की मांग के लिए या उसके संबंध में क्रूरता या उत्पीड़न का शिकार बनाया गया है तो कोर्ट इस अनुमान पर आगे बढ़ेगा कि जिन लोगों ने दहेज की मांग के लिए या उसे लेकर उसके साथ क्रूरता या उत्पीड़न किया है, वे आईपीसी की धारा 304बी के तहत दहेज मृत्यु का कारण हैं। हालांकि, उक्त अवधारणा खंडन योग्य है और अभियुक्त द्वारा ठोस सबूत के माध्यम से प्रदर्शित करने में सक्षम होने पर हटाया जा सकता है कि आईपीसी की धारा 304बी के सभी तत्व संतुष्ट नहीं हुए हैं।" (पैरा 17)

कोर्ट ने कहा कि इस मामले में दहेज हत्या की अवधारणा इस आधार पर स्थापित हुई है, क्योंकि पीड़िता शादी के कुछ महीनों के भीतर अपने ससुराल से लापता हो गई थी और दहेज की मांग किए जाने के तुरंत बाद और उसकी मौत असामान्य परिस्थितियों में हुई थी। चूंकि अपीलकर्ता उनके खिलाफ स्थापित अवधारणा को संतुष्ट करने में सक्षम नहीं थे, अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची कि अभियोजन पक्ष का मामला पूरी तरह से परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित होने के बावजूद आरोपी पति के खिलाफ आईपीसी की धारा 304बी के सभी तत्व मौजूद हैं।

अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि आरोपी के खिलाफ दिया गया आक्षेपित निर्णय और सजा का आदेश बनाए रखने योग्य है। आरोपी सास के लिए अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची कि उसके खिलाफ कोई विशेष आरोप नहीं लगाया गया था, न ही कोई विशिष्ट सबूत या गवाही उसके प्रति अपराध की ओर इशारा करती थी। अदालत ने तदनुसार उसकी अपील की अनुमति दी और उसे रिहा करने का आदेश दिया।

केस शीर्षक: पार्वती देवी बनाम बिहार सरकार अब झारखंड सरकार; राम सहाय महतो बनाम बिहार सरकार अब झारखंड सरकार

कोरम: जस्टिस एन.वी. रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली।

निर्णय की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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