दिल्ली सरकार बनाम एलजी | लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार के पास जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए अपने अधिकारियों को नियंत्रित करने की शक्ति होनी चाहिए: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक महत्वपूर्ण फैसले में यह पुष्टि की कि राष्ट्रीय राजधानी में सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि संबंधित सेवाओं को छोड़कर - प्रशासनिक सेवाओं पर विधायी और कार्यकारी नियंत्रण राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की सरकार का है।
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सर्वसम्मत फैसले में चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, और जस्टिस एमआर शाह, जस्टिस कृष्ण मुरारी, जस्टिस हेमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा ने संसदीय सरकार के वेस्टमिंस्टर-व्हाइटहॉल मॉडल में सिविल सेवाओं की भूमिका पर चर्चा की, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों से भारत ने जिसे विरासत के रूप में प्राप्त किया है।
बेंच ने कहा कि राज्य की प्रभावकारिता और उत्तरदायी सरकार की योजना उन पेशेवरों पर निर्भर करती है, जो सक्षम और स्वतंत्र सिविल सेवा की संस्था का प्रतीक हैं।
"सरकार की नीतियों को जनता, संसद, कैबिनेट या मंत्रियों द्वारा नहीं, बल्कि सिविल सेवा अधिकारियों द्वारा लागू किया जाता है।"
इस संबंध में, संविधान पीठ ने कमांड की ट्रिपल चेन पर जोर दिया जो एक सिविल सेवक को देश की जनता या उसकी किसी संघीय इकाई से जोड़ता है। सिविल सेवा अधिकारी एक निर्वाचित सरकार के मंत्रियों के प्रति जवाबदेह होते हैं, जिनके अधीन वे कार्य करते हैं। मंत्री बदले में संसद या राज्य विधानमंडल, जैसा भी मामला हो, के प्रति जवाबदेह होते हैं, जो बदले में जनता के प्रति जवाबदेह हैं।
लोकतंत्र के संसदीय रूप में जनता ही है, जिसमें संप्रभुता निहित होती है। चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, "वेस्टमिंस्टर संसदीय लोकतंत्र के तहत, सिविल सेवा कमांड की ट्रिपल श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण घटक है जो लोकतांत्रिक जवाबदेही सुनिश्चित करती है।"
बेंच ने कहा, इसलिए एक 'गैर-जवाबदेह' और 'गैर-उत्तरदायी' सिविल सेवा लोकतंत्र में शासन की गंभीर समस्या पैदा कर सकती है।
बेंच ने चेतावनी दी, "यह ऐसी संभावना पैदा करता है कि स्थायी कार्यपालिका, जिसमें अनिर्वाचित सिविल सेवा अधिकारी शामिल हैं, सरकारी नीति के कार्यान्वयन में जिनकी निर्णायक भूमिका हैं, मतदाताओं की इच्छा की उपेक्षा कर कार्य कर सकते हैं।"
पीठ ने भारतीय संघवाद की आवश्यक विशेषताओं पर चर्चा करने के बाद कहा, "एक लोकतांत्रिक सरकार में, प्रशासन की वास्तविक शक्ति निर्वाचित हाथों में होनी चाहिए, संविधान की सीमाओं के अधीन।"
फैसले में कहा गया, "संवैधानिक रूप से स्थापित और लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार को अपने प्रशासन पर नियंत्रण रखने की आवश्यकता है।"
पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि प्रशासन में कई सार्वजनिक अधिकारी शामिल होते हैं, जो किसी विशेष सरकार की सेवाओं में तैनात होते हैं, भले ही वह सरकार उनकी भर्ती में शामिल हो या नहीं। यदि लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार को उनके अधिकार क्षेत्र के भीतर काम करने वाले सिविल सेवकों की बागडोर प्रदान नहीं की जाती है तो सामूहिक जिम्मेदारी की त्रिस्तरीय श्रृंखला में अंतर्निहित सिद्धांत बेमानी हो जाएगा।
पीठ ने कहा,
"यदि एक लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार को अपने कार्यक्षेत्र में तैनात अधिकारियों को नियंत्रित करने की शक्ति प्रदान नहीं की जाती है, तो सामूहिक उत्तरदायित्व की तिहरी श्रृंखला का सिद्धांत बेमानी हो जाएगा। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि सरकार अपनी सेवा में पदस्थ अधिकारियों को नियन्त्रित और लेखापरीक्षित नहीं कर पाती है तो विधायिका के साथ-साथ जनता के प्रति उसका उत्तरदायित्व कम हो जाता है। सामूहिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत अधिकारियों के उत्तरदायित्व तक विस्तृत होता है, जो बदले में मंत्रियों को रिपोर्ट करते हैं।"
पीठ ने चेताया,
“अगर अधिकारी मंत्रियों को रिपोर्ट करना बंद कर देते हैं या निर्देशों का पालन नहीं करते हैं, तो सामूहिक जिम्मेदारियों का पूरा सिद्धांत प्रभावित होता है। एक लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार केवल तभी कार्य कर सकती है जब अधिकारियों को इसके परिणाम के बारे में जागरूकता हो, यदि वे प्रदर्शन नहीं करते हैं। यदि अधिकारियों को लगता है कि वे निर्वाचित सरकार के नियंत्रण से अछूते हैं, जिसकी वे सेवा कर रहे हैं, तो वे गैर-जवाबदेह हो जाते हैं या अपने प्रदर्शन के प्रति प्रतिबद्धता नहीं दिखा सकते हैं।”
पीठ ने पाया कि केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच संबंध एक 'असममित' संघीय मॉडल जैसा था, जिसके तहत दिल्ली सरकार ने संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची और समवर्ती सूची के निर्दिष्ट क्षेत्रों में अपने विधायी और कार्यकारी नियंत्रण का प्रयोग किया। हालांकि, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की 'अद्वितीय' स्थिति को ध्यान में रखते हुए, और शासित होने वाले लोगों के लिए लोकतांत्रिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के महत्व को ध्यान में रखते हुए, संविधान पीठ ने निष्कर्ष निकाला,
"अनुच्छेद 239AA जिसने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को एक विशेष दर्जा प्रदान किया और संवैधानिक रूप से सरकार के एक प्रतिनिधि रूप में स्थापित किया, संघवाद की भावना में संविधान में इस उद्देश्य के साथ शामिल किया गया कि राजधानी शहर के निवासियों की आवाज होनी चाहिए और कैसे उन्हें शासित किया जाना है। एनसीटीडी की सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह दिल्ली की जनता की इच्छा को अभिव्यक्ति दे, जिसने उसे चुना है। इसलिए, आदर्श निष्कर्ष यह होगा कि जीएनसीटीडी को सेवाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए, जो कि इसके विधायी डोमेन से बाहर के विषयों के बहिष्करण के अधीन है।"
पृष्ठभूमि
मामले में मुद्दा यह था कि क्या दिल्ली सरकार के पास संविधान की अनुसूची VII, सूची II और प्रविष्टि 41 के तहत 'सेवाओं' के संबंध में विधायी और कार्यकारी शक्तियां हैं और क्या विभिन्न 'सेवाओं' जैसे IAS, IPS, DANICS और DANIPS के आधिकारी, जिन्हें केंद्र सरकार दिल्ली को आवंटित करती है, उन पर दिल्ली सरकार का प्रशासनिक नियंत्रण है।
फरवरी 2019 में, सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने अलग-अलग विचार व्यक्त किए थे, जिसके अनुसार इस मामले को समाधान के लिए तीन जजों की बेंच के समक्ष रखने का निर्देश दिया गया था।
जस्टिस एके सीकरी ने माना कि संयुक्त सचिव के रैंक और उससे ऊपर के अधिकारियों के स्थानांतरण और पोस्टिंग दिल्ली के लेफ्टिनेंट जनरल की शक्तियों के अधीन है। अन्य अधिकारी दिल्ली सरकार के नियंत्रण में हैं। जस्टिस अशोक भूषण ने यह माना कि "सेवाएं" पूरी तरह से दिल्ली सरकार के दायरे से बाहर हैं।
संविधान पीठ ने आज कहा कि वह खंडित फैसले में जस्टिस अशोक भूषण से सहमत नहीं है।
भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने 2022 में विवाद पर फैसला करने के लिए तीन जजों की बेंच का गठन किया। बाद में, तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कानूनी विवाद से संबंधित सीमित प्रश्नों को एक संविधान पीठ केे संदर्भित किया। इसके बाद चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस एमआर शाह, जस्टिस कृष्णा मुरारी, जस्टिस हेमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की पांच जजों की बेंच ने इस विवाद की सुनवाई शुरू की।
केस टाइटल: एनसीटी दिल्ली सरकार बनाम यूनियन ऑफ इंडिया
साइटेशन: 2023 लाइवलॉ (एससी) 423