अदालती प्रथाएं और भाषाएं पारंपरिक समाजों के लिए एलियन; न्याय प्रणाली को लोगों के अनुकूल बनाने की जरूरत : सीजेआई एनवी रमाना

Update: 2021-09-25 12:04 GMT

भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमाना ने शनिवार को "न्यायपालिका के भारतीयकरण" के बारे में अपने विचार दोहराए और न्याय वितरण प्रणाली को "लोगों के लिए अनुकूल" बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। कटक में उड़ीसा राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण के नए भवन के उद्घाटन के अवसर पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि हमारे न्यायालयों की प्रथाएं और भाषाएं पारंपरिक समाजों के लिए अलग हैं।

उन्होंने कहा, "स्वतंत्रता के 74 वर्षों के बाद भी पारंपरिक और कृषि प्रधान समाज, जो प्रथागत जीवन शैली का पालन कर रहे हैं, अभी भी अदालतों का दरवाजा खटखटाने में संकोच करते हैं। अदालतों की प्रथाएं, प्रक्रियाएं, भाषा और हर चीज उन्हें एलियन लगती है। बेयर एक्ट्स की जटिल भाषा और न्याय वितरण की प्रक्रिया के बीच आम आदमी अपनी शिकायत को किस्मत के सहारे छोड़ देता है। अक्सर, इस प्रक्षेपवक्र में, एक न्याय की खोज में आया व्यक्ति प्रणाली के लिए खुद को बाहरी महसूस करता है। कठोर वास्तविकता यह है कि कानूनी प्रणाली सामाजिक वास्तविकताओं और निहितार्थों पर विचार करने में विफल रहती है।"

उल्लेखनीय है कि पिछले हफ्ते भी एक समारोह में बोलते हुए सीजेआई ने न्यायिक प्रणाली का "भारतीयकरण" करने की आवश्यकता पर बल दिया ‌था।

उन्होंने कहा था, "विधायिका को कानूनों पर फिर से विचार करने और समय और लोगों की जरूरतों के अनुरूप उनमें सुधार करने की आवश्यकता है। मैं जोर देता हूं, हमारे कानूनों को हमारी व्यावहारिक वास्तविकताओं से मेल खाना चाहिए। कार्यपालिका को संबंधित नियमों को सरल बनाकर इन प्रयासों का मिलान करना होगा। सबसे महत्वपूर्ण बात, संवैधानिक आकांक्षाओं को साकार करने के लिए कार्यपालिका और विधायिका को एक साथ काम करना चाहिए।"

"यह तभी होगा जब न्यायपालिका को कानून बनाने वाले के रूप में कदम रखने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा और केवल उसको लागू करने और व्याख्या करने के कर्तव्य के साथ छोड़ दिया जाएगा। अंततः यह राज्या के तीनों अंगों का का सामंजस्यपूर्ण कामकाज है, जो न्याय के लिए प्रक्रियात्मक बाधाओं को दूर कर सकते हैं।"

सीजेआई रमाना ने दोहराया कि समान न्याय की गारंटी संविधान निर्माताओं का मूल विश्वास है और हमारी संवैधानिक आकांक्षाओं को तब तक हासिल नहीं किया जा सकता जब तक कि सबसे कमजोर वर्ग अपने अधिकारों को लागू नहीं करते। उन्होंने स्वीकार किया कि न्याय तक पहुंचने की चुनौतियां उन राज्यों में बढ़ जाती हैं जो क्षेत्रीय और शैक्षणिक असमानता जैसी महत्वपूर्ण बाधाएं पैदा करते हैं, विशेष रूप से उड़ीसा राज्य में, जहां पिछली जनगणना के अनुसार, लगभग ८३.३% लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे हैं और जिन्हें अक्सर औपचारिक न्याय वितरण प्रणाली से बाहर रखा जाता है। उन्होंने व्यक्त किया कि कानूनी सेवा प्राधिकरण इन क्षेत्रों में बहुत महत्व रखते हैं।

उन्होंने कहा कि भारतीय न्यायिक प्रणाली दोहरी चुनौतियों का सामना कर रही है - पहली चुनौती न्याय वितरण प्रणाली का भारतीयकरण है।

कोर्ट ने कहा, "स्वतंत्रता के 74 वर्षों के बाद भी, पारंपरिक और कृषि प्रधान समाज, जो प्रथागत जीवन शैली का पालन कर रहे हैं, अभी भी अदालतों का दरवाजा खटखटाने में संकोच महसूस करते हैं। अदालतों की प्रथाएं, प्रक्रियाएं, भाषा और हर चीज उन्हें एलियन लगती है। बेयर एक्ट्स की जटिल भाषा के बीच- कार्य और न्याय वितरण की प्रक्रिया, इन सभी के बीच आम आदमी अपनी शिकायत को भाग्य के भरोसे छोड़ देता है।"

सीजेआई ने कहा कि दूसरी चुनौती जागरूकता बढ़ाकर लोगों को न्याय वितरण प्रणाली को डिकोड करने में सक्षम बनाना है।

उन्होंने कहा, "भारत में न्याय तक पहुंच की अवधारणा अदालत में वकीलों के जरिए प्रतिनिधित्व प्रदान करने की तुलना में अधिक जटिल है। भारत में कोर और हाशिए के लिए न्याय तक पहुंच का कार्य कानूनी सेवा संस्थानों को दिया गया है। उनकी गतिविधियों में कानूनी सेवाओं को ऐसे वर्गों के बीच जागरूकता और कानूनी साक्षरता के ज‌र‌िए बढ़ाना है, जो परंपरागत रूप से हमारी व्यवस्था के दायरे से बाहर रहे हैं।"

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