उपराष्ट्रपति के अनुच्छेद 142 को 'न्यूक्लियर मिसाइल' कहने पर कपिल सिब्बल जताई आपत्ति, क्या कुछ कहा?

सीनियर एडवोकेट और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) के अध्यक्ष कपिल सिब्बल ने उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की टिप्पणी पर प्रेस कॉन्फ्रेंस की। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में सिब्बल ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ "न्यूक्लियर मिसाइल" के रूप में कर रहा है। सिब्बल ने कहा कि उन्हें इस बात का गहरा दुख है कि एक संवैधानिक पदाधिकारी ऐसी टिप्पणी कर रहा है।
मीडिया को संबोधित करते हुए सिब्बल ने कहा सुबह जब मैं उठा और अखबारों में उपराष्ट्रपति की टिप्पणी पढ़ी तो मुझे बहुत दुख और सदमा लगा। अगर आज भी कोई एक संस्था है, जिस पर लोगों को भरोसा है तो वह न्यायिक संस्थाएं हैं, चाहे वह सुप्रीम कोर्ट हो या हाईकोर्ट। यह वाकई चिंताजनक है कि कुछ सरकारी अधिकारी न्यायिक निर्णयों पर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं, जब फैसला उनके अनुकूल होता है। उदाहरण के लिए, आप अनुच्छेद 370 का उन्मूलन या राम जन्मभूमि का फैसला देखिये।
सिब्बल ने आगे कहा कि राम जन्मभूमि मामले में जब फैसला उनके अनुकूल होता है तो वे इसे सुप्रीम कोर्ट की समझदारी के रूप में उद्धृत करते हैं। लेकिन जैसे ही कोई निर्णय उनके विचारों से मेल नहीं खाता तो वे आरोप लगाना शुरू कर देते हैं। उदाहरण के लिए, हाल ही में जस्टिस पारदीवाला द्वारा दिए गए फैसले पर उनकी प्रतिक्रिया को देखिये।
उपराष्ट्रपति ने हाल ही में तमिलनाडु के राज्यपाल के फैसले में राज्यपाल द्वारा संदर्भित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित समयसीमा पर आपत्ति जताई। उन्होंने यहां तक कहा कि संविधान का अनुच्छेद 142 लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ जजों के लिए उपलब्ध "न्यूक्लियर मिसाइल" बन गया है।
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा था:
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में राष्ट्रपति को निर्देश दिया। हम कहां जा रहे हैं? देश में क्या हो रहा है? हमने इस दिन के लिए लोकतंत्र नहीं चुना था। राष्ट्रपति से समयबद्ध तरीके से निर्णय लेने के लिए कहा जाता है। यदि ऐसा नहीं होता है तो यह कानून बन जाता है। इसलिए हमारे पास ऐसे जज हैं, जो कानून बनाएंगे, जो कार्यकारी कार्य करेंगे, जो सुपर-संसद के रूप में कार्य करेंगे। उनकी कोई जवाबदेही नहीं होगी, क्योंकि देश का कानून उन पर लागू नहीं होता।
उपराष्ट्रपति की इन टिप्पणियों का उल्लेख करते हुए सिब्बल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि एक संवैधानिक पदाधिकारी को इस तरह की टिप्पणी करना शोभा नहीं देता।
उन्होंनेन कहा कि माननीय उपराष्ट्रपति के प्रति पूरे सम्मान के साथ अनुच्छेद 142 को 'न्यूक्लियर मिसाइल' कहना बेहद समस्याग्रस्त है। आप ऐसा कैसे कह सकते हैं? क्या आप जानते हैं कि अनुच्छेद 142 संविधान द्वारा सुप्रीम कोर्ट को दी गई शक्ति है? यह सरकार द्वारा दिया गया अधिकार नहीं है। यह संविधान है, जिसने फुल जस्टिस करने का अधिकार दिया है।
सिब्बल ने आगे बताया कि राष्ट्रपति और राज्यपाल के कार्य मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर निर्भर हैं। संविधान यही कहता है। मैं इस देश के नागरिकों को यह बताना चाहता हूं कि भारत का राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया है। राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के अनुसार कार्य करता है। किसी राज्य का राज्यपाल राज्य के मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर काम करता है। संविधान कहता है कि जब राज्यपाल को कोई विधेयक स्वीकृति के लिए दिया जाता है तो वह उसे विधानसभा को वापस कर सकता है। लेकिन विधानसभा द्वारा विधेयक को फिर से पारित करने के बाद राज्यपाल को अपनी स्वीकृति देनी होती है। संविधान यही कहता है।
उन्होंने आगे कहा:
राज्यपाल को विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रखने का अधिकार है लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल ही उसे इस पर सहायता और सलाह देगा। राष्ट्रपति का यह व्यक्तिगत अधिकार नहीं है कि वह जो चाहे करे, धनखड़ जी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए। वह कहते हैं कि आप राष्ट्रपति की शक्तियों में कटौती कर रहे हैं। ऐसा कौन कर रहा है? यह वास्तव में विधायिका की सर्वोच्चता में दखल है। अगर संसद कोई विधेयक पारित करती है तो क्या राष्ट्रपति यह कहकर उस पर बैठ सकते हैं कि वह हस्ताक्षर नहीं करेंगे? अगर वह हस्ताक्षर नहीं करती हैं तो क्या किसी को यह अधिकार है कि [उन्हें यह बताया जाए कि वह ऐसा नहीं कर सकतीं]।
सिब्बल ने कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर लगातार हमले हो रहे हैं। हमें अपनी न्यायिक संस्थाओं पर हमला नहीं करना चाहिए या उन्हें कमतर नहीं आंकना चाहिए। अगर कार्यपालिका न्यायपालिका पर हमला करना शुरू कर दे, खास तौर पर जब वह मंत्री और सदन का अध्यक्ष हो, तो ऐसा लगता है कि... तब न्यायपालिका अपना बचाव नहीं कर सकती। देश की राजनीति को आगे आकर न्यायपालिका का बचाव करना चाहिए। हमें भरोसा है कि न्यायपालिका सही काम करेगी, [न्याय और संविधान को कायम रखने में]। न्यायपालिका की स्वतंत्रता इस देश में लोकतंत्र के लिए मौलिक है। इसके बिना सभी अधिकार खतरे में हैं, जोकि वे पहले से ही हैं।
राज्यसभा ट्रेनीज़ के छठे बैच को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा था कि अनुच्छेद 145(3) के अनुसार, किसी महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दे पर कम से कम 5 जजों वाली पीठ द्वारा निर्णय लिया जाना चाहिए। हालांकि, राष्ट्रपति के खिलाफ निर्णय दो जजों वाली खंडपीठ (जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन) द्वारा दिया गया।
उपराष्ट्रपति ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा था कि जब पांच जजों की नियुक्ति निर्धारित की गई है तो तब सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या आठ थी। चूंकि अब सुप्रीम कोर्ट की संख्या बढ़कर 31 हो गई है, इसलिए संविधान पीठ में जजों की न्यूनतम संख्या बढ़ाने के लिए अनुच्छेद 145(3) में संशोधन करने की आवश्यकता है।
उन्होंने कहा था कि हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते, जहां आप भारत के राष्ट्रपति को निर्देश दें और किस आधार पर? संविधान के तहत आपके पास एकमात्र अधिकार अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या करना है। वहां इसमें पांच या अधिक जजों होने चाहिए। अनुच्छेद 142, न्यायपालिका के लिए चौबीसों घंटे उपलब्ध लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ एक न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है।
उपराष्ट्रपति राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में देरी को लेकर तमिलनाडु के राज्यपाल के खिलाफ मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में पारित फैसले का जिक्र कर रहे थे। राज्यपाल के लिए समयसीमा निर्धारित करने के अलावा, फैसले में संविधान के अनुच्छेद 201 के अनुसार संदर्भित विधेयकों पर राष्ट्रपति के फैसले के लिए समयसीमा भी तय की गई है। यदि राष्ट्रपति निर्धारित समय सीमा के भीतर निर्णय लेने में विफल रहते हैं तो राज्य राष्ट्रपति के खिलाफ परमादेश रिट की मांग करते हुए अदालतों का दरवाजा खटखटा सकते हैं।
अदालत ने यह भी कहा कि यदि राज्यपाल द्वारा असंवैधानिकता के आधार पर कोई विधेयक संदर्भित किया जाता है तो राष्ट्रपति को निर्णय लेने से पहले अनुच्छेद 143 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट की राय लेनी चाहिए।