मध्यस्थता के फ़ैसले में हस्तक्षेप तभी किया जा सकता है, जब यह साक्ष्य और आम नीति के विपरीत हो : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 34 और 37 के तहत किसी मध्यस्थता ट्रिब्यूनल के फ़ैसले में तभी हस्तक्षेप हो सकता है जब जांच ग़लत हो और साक्ष्यों एवं आम नीति के ख़िलाफ़ हो।
वर्तमान मामले में मध्यस्थता ट्रिब्यूनल का मत था कि झारखंड सरकार और एचएसएस इंटेग्रेटेड एसडीएन के बीच क़रार को समाप्त करना ग़ैरक़ानूनी था और ऐसा करते हुए उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया जो इस क़रार के तहत ज़रूरी था। ट्रिब्यूनल ने ₹ 2,10,87,304 के दावे के भुगतान की अनुमति दी। सरकार ने धारा 34 के तहत जो कार्यवाही कि उसमें इस आदेश की पुष्टि की गई। बाद में ने अधिनियम की धारा 37 के तहत दायर अपील को ख़ारिज कर दिया।
न्यायमूर्ति अरुण मिश्र और एमआर शाह की पीठ ने इस बारे में विशेष अनुमति याचिका को ख़ारिज कर दिया और इस बारे में निम्नलिखित मामलों में आए फ़ैसलों का ज़िक्र किया –
Associate Builders v. DDA (2015) 3 SCC 49
NHAI v. Progressive-MVR (2018) 14 SCC 688 और
Maharashtra State Electricity Distribution Co. Ltd. v. Datar Switchgear Ltd.
विशेष अनुमति याचिका को ख़ारिज करते हुए पीठ ने कहा,
"वर्तमान मामले में मध्यस्थता ट्रिब्यूनल का यह कहना है कि क़रार को ख़त्म करना ग़ैरक़ानूनी था और इसके लिए उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। यह निर्णय पेश किए गए साक्ष्यों पर ग़ौर करने और क़रार के संबंधित प्रावधानों पर विचार करने के बाद लिया गया है और इस वजह से यह उपलब्ध साक्ष्य के ख़िलाफ़ नहीं है और न ही ग़लत है। इसलिए पहली अपीलीय अदालत और हाईकोर्ट ने इस आदेश में हस्तक्षेप नहीं करके सही किया है।"
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