रामजन्मभूमि- बाबरी मस्जिद विवाद : सुप्रीम कोर्ट में संविधान पीठ 26 फरवरी को करेगी सुनवाई
अयोध्या रामजन्मभूमि- बाबरी मस्जिद विवाद मामले में चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एस. ए. बोबड़े, डी. वाई. चंद्रचूड, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर की पीठ 26 फरवरी को सुनवाई करेगी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी सर्कुलर के मुताबिक ये सुनवाई सुबह 10.30 पर होगी।
10 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में 5 जजों की संविधान पीठ में सुनवाई उस वक्त टल गई थी जब पीठ में शामिल जज जस्टिस यू. यू. ललित ने मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया क्योंकि वो वर्ष 1997 में बाबरी मस्जिद मामले में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के लिए पेश हुए थे। इसके बाद नई पीठ का गठन किया गया और इस पीठ को 29 जनवरी को मामले की सुनवाई करनी थी लेकिन उस दिन जस्टिस बोबड़े के छुट्टी पर होने की वजह से मामले की सुनवाई टल गई थी।
इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1993 के अयोध्या अधिनियम की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका को अयोध्या मामले की सुनवाई करने वाली संविधान पीठ को भेज दिया था जिसके तहत केंद्र ने विवादित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद परिसर और आस-पास के क्षेत्रों सहित 67.703 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया था।
वहीं अयोध्या विवाद मुकदमे की अपील में मुस्लिम पक्ष की तरफ से पेश वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने कहा कि याचिका में उठाए गए मुद्दे पर वर्ष 1994 में इस्माइल फारुकी फैसले में संविधान पीठ द्वारा निर्णय लिया जा चुका है। इसलिए 27 साल बाद इस पर पुर्नविचार नहीं किया जा सकता।
"हम इसे उस बेंच को भेज रहे हैं। इसे वहां आने दें," चीफ जस्टिस गोगोई ने जवाब दिया था।
ये याचिका इस तथ्य के बावजूद दायर की गई है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इस्माइल फारुकी मामले में अपने वर्ष 1994 के फैसले में पहले ही धारा 4 की उपधारा (3) को छोड़कर अयोध्या अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा था।राम लला के भक्त होने का दावा करने वाले लखनऊ के 2 वकीलों सहित कई व्यक्तियों द्वारा दायर याचिका में भूमि का अधिग्रहण करने की संसद की विधायी क्षमता को चुनौती दी गई है।
याचिकाकर्ताओं ने दावा किया है कि वर्ष 1993 के अधिनियम ने संविधान के अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता, अभ्यास और धर्म के प्रचार) के तहत संरक्षित हिंदुओं के धर्म के अधिकार का उल्लंघन किया है।
याचिका में अदालत और केंद्र सरकार से उत्तर प्रदेश सरकार को हस्तक्षेप करने से रोकने की मांग की गई है, जिसमें विशेष रूप से राम से संबंधित भूमि पर अधिनियम के तहत 67.703 एकड़ भूमि के भीतर स्थित पूजा स्थलों पर पूजा, दर्शन और अनुष्ठान में हस्तक्षेप करने से रोक दिया गया है।
इससे पहले राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले में एक बड़ा ट्विस्ट तब आ गया था जब केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी दाखिल कर बाबरी- रामजन्मभूमि की विवादित भूमि के आसपास अधिग्रहीत की गई "निर्विवाद" भूमि को वापस देने की अनुमति मांगी थी।
केंद्र की अर्जी के मुताबिक केंद्र ने अयोध्या में 67.703 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था, जिसमें उस भूखंड को भी शामिल किया गया था, जहां बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाने वाला ढांचा शामिल था। ये जमीन अयोध्या अधिनियम, 1993 के तहत अधिग्रहीत की गई थी।
यह विवाद केवल 0.313 एकड़ भूमि से संबंधित है, जहां बाबरी मस्जिद खड़ी थी तो अतिरिक्त भूमि को उसके सही मालिकों को वापस करने की अनुमति दी जानी चाहिए। इसमें 42 एकड़ भूमि रामजन्मभूमि न्यास की भी है।
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के वर्ष 2003 के असलम भूरे बनाम राजेंद्र बाबू केस में फैसले को संशोधित करने की मांग की है जिसमें कहा गया था कि अतिरिक्त जमीन को असल विवाद के निपटारे के बाद वापस किया जाएगा।
इससे पहले 27 सितंबर 2018 को तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर की बेंच ने 2:1 के बहुमत से फैसला दिया था कि वर्ष 1994 के संविधान पीठ के फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है जिसमें कहा गया था कि मस्जिद में नमाज पढना इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है।
तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और जस्टिस अशोक भूषण ने बहुमत के फैसले में मुस्लिम दलों में से एक के लिए पेश वरिष्ठ वकील राजीव धवन की दलीलों को ठुकरा दिया था कि वर्ष 1994 के 5 जजों के संविधान पीठ के फैसले कि "मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है और नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है, यहां तक की खुले में भी " पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है।
जस्टिस अशोक भूषण ने फैसला पढ़ते हुए कहा था कि ये टिप्पणी सिर्फ अधिग्रहण को लेकर की गई थी। सभी धर्म, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च बराबर हैं। इस फैसले का असर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वर्ष 2010 में टाइटल के मुकदमे के फैसले पर नहीं पड़ा।
वहीं तीसरे जज एस. जस्टिस अब्दुल नजीर इससे सहमत रहे। उन्होंने कहा कि वर्ष 1994 के इस्माईल फारूखी फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता है क्योंकि इस पर कई सवाल हैं। ये टिप्पणी बिना विस्तृत परीक्षण और धार्मिक किताबों के की गईं। उन्होंने कहा कि इसका असर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वर्ष 2010 के फैसले पर भी पड़ा। इसलिए इस मामले को संविधान पीठ में भेजना चाहिए।