महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण पर रोक लगाने से सुप्रीम कोर्ट का इनकार, पिछली तारीख से लागू नहीं होगा कानून

Update: 2019-07-13 04:57 GMT

सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की श्रेणी (SEBC) के तहत महाराष्ट्र सरकार द्वारा मराठा समुदाय को दिए गए आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने से इनकार कर दिया है।

हालांकि आरक्षण की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुवाई वाली पीठ ने शुक्रवार को यह साफ कर दिया कि ये आरक्षण पिछली तारीख से लागू नहीं होगा। पीठ ने इस संबंध में महाराष्ट्र सरकार को नोटिस जारी कर 2 हफ्ते में उनकी ओर से जवाब मांगा है। पीठ ने ये भी कहा कि इसके तहत आरक्षण सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अधीन होगा।

अदालत ने किया था अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज
इससे पहले 27 जून को बॉम्बे हाई कोर्ट ने SEBC के तहत राज्य सरकार द्वारा मराठा समुदाय को दिए गए आरक्षण की वैधता को बरकरार रखा था। हालांकि पीठ ने यह कहा था कि मराठा समुदाय को 16% फीसदी आरक्षण वाजिब नहीं है और ये पिछड़ा वर्ग आयोग के मुताबिक रोजगार के मामले में 12% व शैक्षणिक संस्थानों में 13% से अधिक नहीं होना चाहिए।

न्यायमूर्ति रंजीत मोरे और न्यायमूर्ति भारती डांगरे की पीठ ने मराठा आरक्षण अधिनियम (महाराष्ट्र राज्य आरक्षण (राज्य में शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए सीटें और राज्य के तहत लोक सेवा में पदों के लिए नियुक्ति के लिए) सामाजिक रूप से और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग (SEBC) अधिनियम, 2018 को चुनौती देने वाली दायर याचिका को खारिज कर दिया था। गौरतलब है कि (SEBC) एक्ट राज्य विधानसभा द्वारा 29 नवंबर, 2018 को पारित किया गया जिसमें मराठों को 16% आरक्षण दिया गया। इस मराठा आरक्षण के बाद महाराष्ट्र में कुल आरक्षण प्रभावी रूप से बढ़कर 52% से 68% हो गया जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 50% की सीमा तय की थी।।

SC में दी गयी थी इस फैसले को चुनौती

NGO 'यूथ फ़ॉर इक्वेलिटी' द्वारा SC में दायर विशेष अवकाश याचिका में इस फैसले को चुनौती दी गई थी कि मराठा आरक्षण ने इंदिरा साहनी मामले में ऐतिहासिक फैसले में शीर्ष अदालत द्वारा तय आरक्षण पर 50% की सीमा का उल्लंघन किया है।

याचिका में किया गया दावा

याचिका में यह दावा किया गया था कि मराठों के लिए SEBC अधिनियम का निर्धारण "राजनीतिक दबाव" के तहत और समानता और शासन के संवैधानिक सिद्धांतों की "पूर्ण अवहेलना" के तहत किया गया है।

"इंदिरा साहनी मामले का होगा उल्लंघन"

वकील पूजा धर द्वारा दाखिल याचिका में कहा गया था, "उच्च न्यायालय ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अन्य ओबीसी को मराठों के साथ अपना आरक्षण कोटा साझा करना होगा (यदि मराठा मौजूदा ओबीसी श्रेणी में शामिल किए गए हैं ) तो इंदिरा साहनी द्वारा निर्धारित सीमा 50 प्रतिशत का उल्लंघन करने वाली एक असाधारण परिस्थिति का गठन होगा।"

न्यायालय ने यह माना कि आरक्षण के लिए 50% की सीमा को "असाधारण परिस्थितियों" के तहत पार किया जा सकता है और यह कहा गया कि मराठा आरक्षण गायकवाड़ आयोग द्वारा प्रस्तुत उचित आंकड़ों पर आधारित है।

"HC ने की महत्वपूर्ण तथ्य की अनदेखी"

याचिका में यह भी दावा किया गया कि उच्च न्यायालय ने इस तथ्य की अनदेखी की है कि मराठों ने सामान्य श्रेणी में उपलब्ध सरकारी नौकरियों में से 40% पर कब्जा किया है।

"उच्च न्यायालय ने इस तथ्य की अनदेखी की कि खुद गायकवाड़ आयोग ने दर्ज किया कि मराठा समुदाय केवल 19 प्रतिशत जनसंख्या बनाता है, जो दर्शाता है कि एसईबीसी अधिनियम के अनुसार मराठाओं की आबादी का 30 प्रतिशत हिस्सा बताना सही नहीं था।"

सरकार के संवैधानिक शक्ति के इस्तेमाल पर उठाए गए सवाल

याचिका में यह कहा गया था कि यह स्पष्ट है कि महाराष्ट्र सरकार ने कानून के शासन का मजाक उड़ाया है। सरकार ने अपनी संवैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल राजनीतिक लाभ के लिए भी किया है।

याचिका में यह भी कहा गया था कि SEBC अधिनियम, बॉम्बे हाईकोर्ट के वर्ष 2015 के आदेश का उल्लंघन है और उसके आधार को हटाए बिना संविधान के 102वें संशोधन में निहित संवैधानिक मर्यादाओं को धता बताते हुए और राजनीतिक दबाव के लिए संवैधानिक सिद्धांतों का पूरी तरह से उल्लंघन किया गया। संविधान के 102वें संशोधन के अनुसार, राष्ट्रपति द्वारा तैयार की गई सूची में किसी विशेष समुदाय का नाम होने पर ही आरक्षण दिया जा सकता है।

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