बॉम्बे हाई कोर्ट के मराठा आरक्षण को वैध ठहराने का मामला सुप्रीम कोर्ट में,महाराष्ट्र सरकार और याचिकाकर्ता ने दाखिल की कैविएट

Update: 2019-06-28 10:34 GMT

सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की श्रेणी (SEBC) के तहत राज्य सरकार द्वारा मराठा समुदाय को दिए गए आरक्षण का मामला अब सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया है।

शुक्रवार को महाराष्ट्र सरकार और याचिकाकर्ता विनोद पाटिल व संदीप देखमुख ने सुप्रीम कोर्ट में कैविएट याचिका दाखिल कर यह आग्रह किया है कि अगर अदालत इस मामले में कोई भी फैसला देती है तो उनका पक्ष भी सुना जाए।

इससे पहले गुरुवार को बॉम्बे हाई कोर्ट ने SEBC के तहत राज्य सरकार द्वारा मराठा समुदाय को दिए गए आरक्षण की वैधता को बरकरार रखा है।

हालांकि पीठ ने यह कहा कि मराठा समुदाय को 16% फीसदी आरक्षण वाजिब नहीं है और ये पिछड़ा वर्ग आयोग के मुताबिक रोजगार के मामले में 12 % व शैक्षणिक संस्थानों में 13% से अधिक नहीं होना चाहिए।

अदालत ने किया अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज

न्यायमूर्ति रंजीत मोरे और न्यायमूर्ति भारती डांगरे की पीठ ने मराठा आरक्षण अधिनियम (महाराष्ट्र राज्य आरक्षण (राज्य में शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए सीटें और राज्य के तहत लोक सेवा में पदों के लिए नियुक्ति के लिए) सामाजिक रूप से और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग (SEBC) अधिनियम, 2018 को चुनौती देने वाली दायर याचिका को खारिज कर दिया। गौरतलब है कि (SEBC) एक्ट राज्य विधानसभा द्वारा 29 नवंबर, 2018 को पारित किया गया जिसमें मराठों को 16% आरक्षण दिया गया। इस मराठा आरक्षण के बाद महाराष्ट्र में कुल आरक्षण प्रभावी रूप से बढ़कर 52% से 68% हो गया जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 50% की सीमा तय की थी।

न्यायालय ने यह माना कि आरक्षण के लिए 50% की सीमा को "असाधारण परिस्थितियों" के तहत पार किया जा सकता है और यह कहा गया कि मराठा आरक्षण गायकवाड़ आयोग द्वारा प्रस्तुत उचित आंकड़ों पर आधारित है।

मामले में चली एक महीने तक सुनवाई

कोर्ट ने इस मामले में एक महीने से अधिक समय तक सुनवाई करने के बाद अपना फैसला सुरक्षित रखा था। न्यायमूर्ति रंजीत मोरे और न्यायमूर्ति भारती डांगरे की पीठ ने आरक्षण की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाले सभी याचिकाकर्ताओं के साथ-साथ हस्तक्षेप करने वालों और राज्य सरकार की धैर्यपूर्वक सुनवाई की, जिसने आरक्षण के समर्थन में दलील दी थी।

महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों की की गई जांच

सुनवाई के दौरान पीठ ने महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों की भी जांच की थी जिसमें न्यायमूर्ति एम. जी. गायकवाड़ के नेतृत्व में 9 सदस्य शामिल थे। MSBCC ने लगभग 43,000 मराठों का सर्वेक्षण किया था जो राज्य की कुल आबादी का लगभग 30% हिस्सा हैं। यह सर्वेक्षण 5 विशेषज्ञ संस्थानों द्वारा किया गया था।

मामले में पेश हुए जाने माने वकील एवं संबंधित पार्टियां

याचिकाकर्ता उदय धोपले की ओर से वरिष्ठ वकील श्रीहरि एनी पेश हुए और मामले में याचिकाकर्ताओं में से एक की ओर से वरिष्ठ वकील अरविंद दातार भी उपस्थित हुए। इसके अलावा इस मामले के साथ 3 अन्य जनहित याचिकाएं भी थीं जिनमें पीपुल्स हेल्थ ऑर्गनाइजेशन द्वारा दायर और उक्त कानून के समर्थन में 4 हस्तक्षेप याचिकाएं शामिल हैं।

वकील अरविंद दातार द्वारा प्रस्तुत किये गए तर्क

दातार ने अदालत द्वारा यह प्रस्तुत किया कि मराठों के लिए उक्त कोटा अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध) और अनुच्छेद 16 (सार्वजनिक रोजगार के मामलों में अवसर की समानता) का उल्लंघन है। उन्होंने आगे तर्क दिया-

"केवल भारत के राष्ट्रपति केंद्र या राज्य में पिछड़े वर्गों के लिए एक सूची को अधिसूचित या गैर- अधिसूचित कर सकते हैं। इसलिए यदि राज्य ने किसी श्रेणी को अधिसूचित करने का निर्णय लिया है तो अधिसूचना की पूरी प्रक्रिया को फिर से करना होगा। संविधान का अनुच्छेद 14 किसी भी विशेष समुदाय के लिए आरक्षण व वर्ग के आरक्षण को रोकता है और ऐसे कानून को प्रतिबंधित करता है क्योंकि यह प्राकृतिक भेदभाव नहीं है।"

वकील श्रीहरि एनी द्वारा प्रस्तुत किये गये तर्क

जबकि एनी ने प्रस्तुत किया- "कोई यह नहीं कह सकता कि मैं सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (एसईबीसी) से संबंधित हूं क्योंकि यह एक 'वर्ग' है न कि 'जाति' और यह अज्ञात और भारतीय संविधान से अलग है। मैं SEBC की संवैधानिक वैधता को चुनौती दे रहा हूं। "

वकील प्रदीप संचेती द्वारा अदालत के सामने रखी गयी दलील

इस मामले में याचिकाकर्ताओं में से एक की ओर से पेश वकील प्रदीप संचेती ने दलील दी कि पश्चिमी महाराष्ट्र, कोंकण में मराठा समुदाय के शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ेपन पर सर्वेक्षण करने के लिए राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा नियुक्त किए गए 5 विशेषज्ञ संस्थानों में मराठवाड़ा, विदर्भ और उत्तर महाराष्ट्र क्षेत्रों में इस तरह के सर्वेक्षण का संचालन करने के लिए 'तकनीकी विशेषज्ञता' का अभाव है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि इनमें से 3 संस्थान 'राजनीतिक रूप से जुड़े हुए हैं।' इसके अलावा मुंबई में ऐसा कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया जबकि मराठा समुदाय के 20 प्रतिशत लोग यहां रहते हैं।

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