जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड : बोर्ड के एक एकल सदस्य द्वारा पारित निर्णय शून्य और निष्प्रभावी: हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट [निर्णय पढ़े]

Update: 2019-06-03 06:06 GMT

हिमाचल प्रदेश के उच्च न्यायालय ने हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम हैप्पी के मामले में कहा है कि जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के 1 सदस्य द्वारा पारित निर्णय, जुवेनाइल जस्टिस (केयर और प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन) अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार शून्य है।

आदेश है नॉन ज्यूडिशिस और शून्य

पीठ ने कहा कि प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट, जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के प्रावधानों के उल्लंघन में अंतत: मामले का निस्तारण नहीं कर सकते थे और इसलिए उनके द्वारा पारित आदेश नॉन ज्यूडिशिस और शून्य (void ab initio) है।

कोर्ट ने यह कहा कि यह अच्छी तरह से तय किया गया है और यह सिद्ध करने के लिए कोई विशेष अथॉरिटी की आवश्यकता नहीं है कि, "जहां एक न्यायालय उस अधिकार क्षेत्र का उपयोग करता है जो उसके पास नहीं है, तो वो फैसला कोई मायने नहीं रखता।"

मौजूदा परिस्थितियों में प्राधिकरण द्वारा पारित कोई भी आदेश गैर-न्यायिक है

नतीजतन न्यायालय के पास कोई अधिकार क्षेत्र न होने के चलते उसका कोई भी आदेश गैर स्थाई है और इसकी अमान्यता तब स्थापित की जा सकती है जब इसे लागू करने की मांग की जाती है या इसे एक अधिकार के रूप में क्रियान्वित किया जाता है, यहां तक ​​कि निष्पादन (execution) के चरण या संपार्श्विक (collateral) कार्यवाही में भी। इस तरह के प्राधिकरण द्वारा पारित कोई भी आदेश गैर-न्यायिक फैसला है।

प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट द्वारा अकेले बैठकर मामले का अंतिम रूप से निपटारा करने पर था सवाल

दरअसल न्यायमूर्ति तरलोक सिंह चौहान की खंडपीठ एक आपराधिक पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिसमें हिमाचल प्रदेश राज्य के बिलासपुर के जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट द्वारा पारित बरी के फैसले को चुनौती दी गई थी जिसमें नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सबस्टेंस एक्ट (एनडीपीएस एक्ट) की धारा 20 और 29 के तहत आरोपी किशोर को बरी कर दिया गया था।

गौरतलब है कि यह फैसला मेरिट के आधार पर लिया गया था लेकिन अदालत के सामने मुख्य सवाल यह था कि क्या प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट अकेले बैठकर मामले का अंतिम रूप से फैसला/निपटारा कर सकते थे?

"निस्तारण के लिए प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट समेत कम से कम 2 सदस्यों की उपस्थिति आवश्यक"

न्यायालय ने किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 और 2015 के प्रावधानों पर विचार किया और इस सवाल का उत्तर नकारात्मक में दिया।

कोर्ट ने कहा कि यह सीधे तौर से स्पष्ट है कि अधिनियमों के तहत, "कानून के साथ संघर्ष में किशोर" और "कानून के साथ संघर्ष में बच्चे", जैसा भी मामला हो, अंत में ऐसे मामले के निस्तारण के समय प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट समेत कम से कम 2 सदस्यों द्वारा ही निपटाया जा सकता है। प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट सहित कोई भी व्यक्तिगत सदस्य और प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट को छोड़कर कोई भी 2 सदस्य अंततः मामले का निपटारा नहीं कर सकते।

अदालत ने इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले, हश्म अब्बास सय्यद बनाम उस्मान अब्बास सय्यद और अन्य, एआईआर 2007 (एससी) 1077 पर भरोसा किया।

उस फैसले में यह कहा गया था कि, "मूल प्रश्न यह है कि अगर किसी व्यक्ति के पास क्षेत्राधिकार निहित नहीं है तो क्या उसका आदेश शून्य होगा? ऐसा ही होगा। छूट और प्राप्ति के सिद्धांतों या यहां तक ​​कि न्यायिकता जो प्रकृति में प्रक्रियात्मक हैं, उन मामलों में कोई आवेदन नहीं होगा जहां ट्रिब्यूनल/कोर्ट द्वारा एक आदेश पारित किया गया है, जिसमें उस क्षेत्राधिकार का कोई अधिकार नहीं है। न्यायालय द्वारा बिना किसी अधिकार के पारित किया गया कोई भी आदेश एक गैर न्यायिक संस्था के रूप में शून्य होगा और उसे आमतौर पर प्रभाव नहीं दिया जाना चाहिए।"

फैसला हुआ रद्द, नए निर्णय के लिए मामला बिलासपुर भेजा गया

न्यायालय ने आपराधिक पुनरीक्षण की अनुमति दी और दिए गए फैसले को रद्द कर दिया। दोनों पक्षों को सुनने के बाद कानून के अनुसार नए निर्णय के लिए मामले को किशोर न्याय बोर्ड, बिलासपुर को भेज दिया है। कोर्ट ने 30 सितंबर, 2019 तक मामले के शीघ्र निपटारे का निर्देश दिया।

इस मामले में याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व एडिशनल एडवोकेट जनरल विनोद ठाकुर और सुधीर भटनागर,डिप्टी एडवोकेट जनरल भूपिंदर ठाकुर, असिस्टेंट एडवोकेट जनरल राम लाल ठाकुर और प्रतिवादी का प्रतिनिधित्व वकील बलबीर सिंह कांता ने किया।


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