सुप्रीम कोर्ट ने असम सरकार से हिरासत केंद्रों व उनमें रखे गए विदेशी बंदियों का ब्योरा मांगा
असम के हिरासत केंद्र में रखे गए बंदियों को लेकर दाखिल जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने असम सरकार से पूछा है कि पिछले 10 सालों में असम से कितने विदेशी निर्वासित किए गए हैं।
चीफ जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने असम सरकार को 3 सप्ताह के भीतर ये जानकारी देने का निर्देश दिया है कि असम में कितने हिरासत केंद्र हैं, और इनमें कितने बंदी मौजूद हैं। इसके अलावा ट्रिब्यूनल ने कितने को विदेशी घोषित किया है। कितने बंदियों को निर्वासित किया जा रहा है और कितनों को पहले ही निर्वासित किया जा चुका है। इन बंदियों के खिलाफ कितने मामले लंबित हैं। यह सभी जानकारियां सुप्रीम कोर्ट द्वारा मांगी गई हैं।
इस दौरान याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि इन केंद्रों में कुछ विदेशियों को सजा काटने के बाद भी हिरासत में रखा गया है, जबकि असम सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि 986 कैदियों को विदेशी घोषित किया गया है।
इस पर चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा कि अगर कैदियों को विदेशी देश द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता तो भी उन्हें हिरासत केंद्रों में नहीं रखा जा सकता। पीठ ने यह भी कहा कि ऐसे मामले में संसद में एक बिल लंबित है। पीठ ने अगली सुनवाई की तारीख 19 फरवरी को तय की है।
20 सितंबर 2018 को संविधान के अनुच्छेद 21 और अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुरूप असम के हिरासत केंद्रों में रखे गए करीब 2,000 बंदियों के साथ निष्पक्ष, मानवीय और वैध उपचार को सुनिश्चित करने के लिए दाखिल जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और असम सरकार को नोटिस जारी किया था।
जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की पीठ ने अमन बिरदारी के संस्थापक सदस्य हर्ष मंदर की याचिका पर नोटिस जारी किया, जिसमें ये दिशा निर्देश भी मांगा गया है कि जो लोग विदेशी तय किए गए हैं और प्रत्यावर्तन की प्रक्रिया के लंबित रहते हिरासत में हैं, उन्हें शरणार्थियों के रूप में माना जाना चाहिए।
माता-पिता के हिरासत में होने की स्थिति में जो बच्चे आजाद हैं उनकी पीड़ा और दुर्दशा को इंगित करते हुए याचिकाकर्ता चाहते हैं कि उन्हें किशोर न्याय अधिनियम के तहत देखभाल और सुरक्षा (सीएनसीपी) की आवश्यकता वाले बच्चों के रूप में माना जाए; जिला या उप-जिला स्तर पर स्थापित बाल कल्याण समितियों द्वारा उनका संज्ञान लिया जाए।
याचिकाकर्ता ने रिट याचिका के माध्यम से कहा है कि वो वर्तमान में असम में 6 हिरासत केंद्रों/जेलों में रखे गए लोगों के मौलिक अधिकारों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त मानवाधिकारों के उल्लंघन का निवारण करना चाहते हैं, जिन्हें या तो असम में विदेशियों के ट्रिब्यूनल द्वारा विदेशियों के रूप में घोषित किया गया है या बाद में अवैध रूप से भारत में प्रवेश करने के चलते हिरासत में लिया गया है।
यह याचिका, मुख्य रूप से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के लिए असम हिरासत केंद्रों में खराब स्थितियों के निष्कर्षों पर एक रिपोर्ट पर आधारित है।
याचिका, ऐसे व्यक्तियों की हिरासत में भयानक स्थितियों पर केंद्रित है, जो उन्हें संवैधानिक अधिकारों से वंचित करती हैं। ये वो अधिकार हैं, जो भारत में रहने वाले सभी लोगों को संविधान गारंटी करता है। इन व्यक्तियों को विदेशियों के लिए ट्रिब्यूनल द्वारा कोई भी नोटिस नहीं दिया गया और बाद में ट्रिब्यूनल द्वारा पारित एक पक्षीय आदेशों के बाद उन्हें 6 जेल/हिरासत केंद्रों में भेज दिया गया।
याचिका उन लोगों की दुर्दशा को इंगित करती है जो विदेशी होने का दावा करते हैं और अभी तक वो अपने निर्वासन के लिए किसी भी स्पष्ट प्रक्रिया या समय-रेखा की अनुपस्थिति में अनिश्चित काल तक हिरासत में हैं।
इसमें कहा गया है कि अनिश्चितकालीन हिरासत में ऐसे व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर और निर्वासन की प्रक्रिया को लेकर न्यायिक और राजनीतिक दृढ़ संकल्प की जरूरत है, जिसके लिए याचिकाकर्ता तत्काल समाधान की मांग करता है।
असम सरकार के विदेशियों पर व्हाइट पेपर के मुताबिक पहचान के तुरंत बाद विदेशियों को हिरासत केंद्रों में हिरासत में रखने का उद्देश्य, यह सुनिश्चित करना है कि वे "गायब ना हो जाएं"। विदेशियों को उनके देश में निर्वासन तक इस तरह के हिरासत केंद्रों में रखा जाता है।
याचिकाकर्ता ने कहा है कि मानवीय विचारों और अंतरराष्ट्रीय कानून दायित्वों के लिए आवश्यक है कि उनके परिवारों को किसी भी परिस्थिति में अलग नहीं किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, यातना और अमानवीय या अपमानजनक उपचार या सजा की रोकथाम के लिए यूरोपीय समिति यह कहती है कि 'यदि परिवार के सदस्य को कानून के तहत हिरासत में लिया जाता है तो परिवार को अलग करने से बचने के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए।'