'संविधान की पवित्रता अनिवार्य रूप से धर्मनिरपेक्षता की पुष्टि में है': संविधान सभा की एकमात्र मुस्लिम महिला बेगम ऐज़ाज़ रसूल के भाषण के अंश
('संविधान सभा में महिलाएं' श्रृंखला में भारत की संविधान सभा में महिलाओं द्वारा निभाई गई भूमिका की चर्चा की जा रही है। यह श्रृंखला का चौथा लेख है।)
"संविधान की सर्वोत्कृष्ट विशेषता यह है कि भारत विशुद्ध धर्मनिरपेक्ष राज्य है। संविधान की पवित्रता अनिवार्य रूप से धर्मनिरपेक्षता की पुष्टि में निहित है और हमें इस पर गर्व है। मुझे पूरा विश्वास है कि धर्मनिरपेक्षता संरक्षित और अक्षुण्ण रहेगी, भारत के लोगों की पूर्ण एकता इसी पर निर्भर है, इसके बिना प्रगति की सभी आशाएं व्यर्थ हैं।"
[1] 22 नवंबर 1949 को भारतीय संविधान के प्रारूप को स्वीकार करने के लिए पेश डॉ भीमराव अंबेडकर के प्रस्ताव का समर्थन करते हुए एक महिला सदस्य ने यह टिप्पाणी भारतीय संविधान सभा में की। वह सदस्य भारतीय संविधान सभा की एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्य बेगम ऐज़ाज़ रसूल थीं। ।
विभाजन और उसके बाद की हिंसा के बीच, बेगम ऐज़ाज़ रसूल की एक मुस्लिम महिला के रूप में आवाज़, जबकि उनकी जड़ें पंजाब की थी, भारतीय संविधान सभा की एक महत्वपूर्ण (और शायद अनोखी भी) आवाज़ थी।
मौजूदा आलेख में, नए गणराज्य में अल्पसंख्यक अधिकारों और महिलाओं के अधिकारों पर उनके भाषणों के अंश प्रस्तुत किए जा रहे हैं-
बेगम ऐज़ाज़ रसूल का जीवन
बेगम ऐज़ाज़ रसूल मलेरकोटा के शाही परिवार के सर ज़ुल्फ़िकार अली ख़ान की बेटी थीं और नवाब सैयद ऐज़ाज़ रसूल, जो कि अवध के तालुकदार थे, से उनकी शादी हुई थी। [2] संविधान सभा में शामिल होने से पहले, वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्य थीं। वह संयुक्त प्रांत से 14 जुलाई 1947 को संविधान सभा में शामिल हुईं। [3] बाद में, उन्होंने 1952 से 1956 तक राज्यसभा के सदस्य के रूप में काम किया। [4] वह मौलिक अधिकारों पर सलाहकार समिति की तीन महिला सदस्यों में से एक थीं।
अल्पसंख्यक अधिकारों पर-
भारतीय संविधान सभा ने अपनी प्रारंभिक बैठकों में विधानसभा की अल्पसंख्यक अधिकारों पर उप-समिति की ओर से अनुशंसित कुछ समुदायों के लिए सीटों के आरक्षण के सिद्धांत को स्वीकार किया था। लेकिन विभाजन की घोषणा ने बहस की प्रकृति को बदल दिया। विभाजन के बाद, विधानसभा ने अल्पसंख्यकों के लिए अलग निर्वाचक मंडल और सीटों के आरक्षण के सिद्धांत को खारिज कर दिया। [5] वास्तव में, राजनीतिक संस्कृति अपने आप में किसी भी प्रकार के आरक्षण या विशेष उपचार की किसी भी मांग पर संदेह करती जा रही थी। [6] रसूल ने यह भी आशंका जताई कि अल्पसंख्यक समुदाय के लिए सीटों का आरक्षण 'अलगाववाद और सांप्रदायिकता की भावना को जीवित रख सकता है' और इस तरह के आरक्षण के प्रस्ताव को उन्होंने खारिज कर दिया। [7]
लेकिन ऐसा करते समय, उन्होंने अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए बहुसंख्यक समुदाय की भूमिका की परिकल्पना की और यह आज भी प्रासंगिक है। उनका मानना था कि अल्पसंख्यक समुदायों को 'बहुसंख्यक समुदाय की भलाई पर निर्भर' होना चाहिए, लेकिन यह भी कि बहुसंख्यकों को अपने कर्तव्य का एहसास रहे कि किसी भी अल्पसंख्यक के साथ भेदभाव न करें, [8] और बहुसंख्यक को, अल्पसंख्यक समुदायों के मन में आत्मविश्वास, सदइच्छा और सुरक्षा की भावना पैदा करनी है। [9]
अल्पसंख्यकों पर सलाहकार समिति की रिपोर्ट पर विचार करते हुए, उन्होंने कहा की-
"हम मुसलमान के रूप में अपने लिए कोई विशेषाधिकार नहीं चाहते हैं लेकिन हम यह भी नहीं चाहते हैं कि हमारे साथ कोई भेदभाव किया जाए। यही कारण है कि मैं कहती हूं कि इस महान देश के नागरिक के रूप में हम आकांक्षाओं और यहां रहने वाले लोगों की आशाओं को साझा करते हैं, और उसी समय उम्मीद करते हैं कि हमारे साथ सम्मान और न्याय के साथ व्यवहार किया जाए। "[10]
इसी प्रकार, इस आशंका पर कि आरक्षण के बिना मुसलमान विधायिका में नहीं आ पाएंगे और राजनीतिक रूप से उनकी अनदेखी की जा सकती है, उन्होंने टिप्पणी की-
"मैं भविष्य में किसी भी राजनीतिक दल की कल्पना नहीं करती, जो मुसलमानों की अनदेखी करके चुनावों में अपने उम्मीदवार खड़ा करे। मुसलमान इस देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं। मुझे नहीं लगता कि कोई भी राजनीतिक दल कभी भी उनकी उपेक्षा कर सकता है।"[11]
उन्होंने धर्म के आधार पर देश के प्रति एक व्यक्ति की वफादारी को चुनौती देने की प्रवृत्ति पर भी सवाल उठाया और कहा-
"मुझे समझ में नहीं आता है कि वफादारी और धर्म एक साथ क्यों चलते हैं। मुझे लगता है कि जो व्यक्ति राज्य के हितों के खिलाफ काम करते हैं और विध्वंसक गतिविधियों में भाग लेते हैं, वे हिंदू या मुसलमान या किसी भी अन्य समुदाय के सदस्य हों, वफादार नहीं हैं। जहां तक मामला है, मुझे लगता है कि मैं कई हिंदुओं की तुलना में अधिक निष्ठावान हूं क्योंकि उनमें से कई विध्वंसक गतिविधियों में लिप्त हैं, जबकि मेरे दिल में मेरे देश का खयाल है।" [12]
महिला और भारतीय संविधान-
रसूल का मानना था कि भारतीय संविधान न केवल महिलाओं के साथ भेदभाव खत्म करेगा, बल्कि वास्तव में यह नए गणराज्य में महिलाओं के लिए 'अवसर की समानता' भी सुनिश्चित करेगा। [13] अन्य महिला सदस्यों की तरह, उन्होंने भी यह तर्क दिया कि भारतीय विरासत ऐतिहासिक रूप से महिलाओं की समानता को मान्यता देती है। (एक ऐसा विचार जो ऐतिहासिक रूप से विवादित है)। संविधान स्वीकार करने पर उन्होंने कहा-
"भारत की महिलाएं जीवन और गतिविधि के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ पूर्ण समानता की अपनी उचित विरासत को आगे बढ़ाकर खुश हैं। मैं ऐसा इसलिए कहती हूं क्योंकि मुझे विश्वास है कि यह कोई नई अवधारणा नहीं है, जिसे इस संविधान के उद्देश्यों के लिए अपनाया गया है। यह एक ऐसा आदर्श है, जिसे लंबे समय से भारत ने पोषित किया है, हालांकि कुछ समय के लिए सामाजिक परिस्थितियों ने इसे व्यावहार से बाहर कर दिया था।
यह संविधान इस आदर्श की पुष्टि करता है और इस बात का आश्वासन देता है कि भारतीय गणराज्य में कानून में महिलाओं के अधिकारों का पूर्ण सम्मान किया जाएगा।"[14]
आज, यह हम पर है कि बेगम ऐज़ाज़ रसूल की स्थिति पर फिर से विचार करें और खुद से पूछें कि क्या आजादी के 70 साल से अधिक समय बाद भी महिलाओं और अल्पसंख्यक समुदायों को न्याय और समानता की गारंटी दी जा सकती है या फिर हम उस संवैधानिक वादे से मुकर गए हैं?
लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।
(नोट- बेगम ऐज़ाज़ रसूल पर आधारित लेख के दूसरे भाग में, मौलिक अधिकारों पर उनकी स्थिति, संपत्ति का अधिकार और संसद को 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के रूप में नामित करने के उनके प्रस्ताव पर चर्चा की जाएगी)
(सुरभि ने अपना एलएलएम का शोध प्रबंध भारतीय संविधान सभा की नारीवादी आलोचना पर किया है। उन्होंने नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली में सेमिनार के पाठ्यक्रम के रूप में इसे पढ़ाया भी है। उनकी ईमेल आईडी surbimamtakarwa31@gmail.com है।)
यह भी पढ़ें:
1. Dakshayani Velayudhan - The Lone Dalit Woman In Constituent Assembly
2. Women In Constituent Assembly : Engaging With The Role Of Hansa Mehta
3. Women In Constituent Assembly: G. Durgabai, The Most Frequent Woman Voice
[1] कांस्टिट्यूशनल असेंबली डिबेट्स (प्रोसिडिंग्स) - वॉल्यूम XI, लोकसभा (22 नवंबर 1949)
[2] जेरल्डीन फोर्ब्स, दी न्यू कैम्ब्रिज़ हिस्ट्री ऑफ इंडियाः वोमेन इन मॉडर्न इंडिया 198-199 (कैम्ब्रिज यूनवर्सिटी प्रेस, 1998).
[3] कांस्टिट्यूशनल असेंबली डिबेट्स (प्रोसिडिंग्स) - वॉल्यूम IV, लोकसभा (14 July 1947)
[4] बेगम एज़ाज रसूल, , भारत का संविधान < https://www.constitutionofindia.net/constituent_assembly_members/begum_aizaz_rasul>
[5] विभाजन ने अल्पसंख्यकों के संरक्षण को कैसे प्रभावित किया, इसे समझने के लिए देखेंः कनिका गाबा, फॉरगेटिंग पार्टीशन, कॉन्स्टिट्यूशनल एम्नेसिया एंड नेशनलिज्म, 51 इपीडब्ल्यू 39 (2016) और जोया हसन, पॉलिटिक्स ऑफ इन्क्लूज़न, कॉस्ट, माइनोरिटीज़, एंड अफरमेटिव एक्शन (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2011)
[6]
उदाहरण के लिए राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के लिए विशेष प्रावधानों के प्रश्न को 'महिलाओं के क्षेत्र में एक गलत सिद्धांत का विस्तार' के रूप में भी देखा गया था। देखेंः अनुपमा रॉय, जेंडर्ड सिटिजनशिपः हिस्टॉरिकल एंड कन्सेप्चुअल एक्सप्लोरेशंस 167 (ओरियंड ब्लैकस्वान 2013).
[7] कांस्टिट्यूशनल असेंबली डिबेट्स (प्रोसिडिंग्स) - वॉल्यूम VIII, लोकसभा (25 May 1949)
[8] कांस्टिट्यूशनल असेंबली डिबेट्स (प्रोसिडिंग्स) - वॉल्यूम VII, लोकसभा (8 November 1948)
[9] कांस्टिट्यूशनल असेंबली डिबेट्स (प्रोसिडिंग्स) - वॉल्यूम VIII, लोकसभा (25 May 1949)
[10] कांस्टिट्यूशनल असेंबली डिबेट्स (प्रोसिडिंग्स) - वॉल्यूम VIII, लोकसभा (25 May 1949)
[11] कांस्टिट्यूशनल असेंबली डिबेट्स (प्रोसिडिंग्स) - वॉल्यूम VIII, लोकसभा (25 May 1949)
[12] कांस्टिट्यूशनल असेंबली डिबेट्स (प्रोसिडिंग्स) - वॉल्यूम VIII, लोकसभा (25 May 1949)
[13] कांस्टिट्यूशनल असेंबली डिबेट्स (प्रोसिडिंग्स) - वॉल्यूम VII, लोकसभा (8 November 1948)
[14] कांस्टिट्यूशनल असेंबली डिबेट्स (प्रोसिडिंग्स) - वॉल्यूम XI, लोकसभा (22 November 1949)