कोई भी दंड न्यायालय जब आरोप तय करता है तो वह आरोप धारा 211 एवं धारा 212 के अंतर्गत बताए गए प्ररूप के अनुसार तय होते पर कभी-कभी न्यायालय आरोप तय करने में गलतियां कर देता है। ऐसी गलतियों के प्रभाव पर प्रश्न खड़ा होता है। इसके लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 215 में गलतियों के प्रभाव संबंधी प्रावधान दिए गए हैं।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 216 में न्यायालय को यह शक्ति दी गयी है कि वह आरोपों को परिवर्तित कर सकता है तथा उनका परिवर्धन भी कर सकता है। अर्थात आरोपों को बदल भी सकता है और आरोपों को बढ़ा भी सकता है या घटा भी सकता है। यह दोनों शक्तियां दंड न्यायालय को प्राप्त होती हैं।
जानिए आरोप का अर्थ और आरोप का प्ररूप
इस लेख के माध्यम से दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 17 आरोप के गलतियों के प्रभाव तथा न्यायालय की आरोपों का परिवर्तन तथा परिवर्धन करने की शक्ति का विश्लेषण करेंगे।
आरोप में गलतियों के प्रभाव
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 215 के अंतर्गत गलतियों के प्रभाव के परिणाम दिए गए हैं। धारा 215 के अनुसार आरोप विचरित करते समय या विशिष्टियों में कोई गलती हो जाए तो इन गलतियों का क्या प्रभाव होगा इस पर वर्णन किया गया है।
इस धारा के अनुसार किसी भी एंट्री में किसी भी गलती या लोप से कोई अभियुक्त वास्तव में भुलावे में पड़ गया है और उसके कारण मामले में न्याय नहीं हो पाया है तो ऐसी परिस्थिति में गलती को तात्विक माना जाएगा।
धारा 215 स्पष्ट करती है कि गलती या लोप को तभी तात्विक माना जाएगा जब गलती या लोप के कारण अभियुक्त के साथ अन्याय हुआ हो या फिर अभियुक्त भुलावे में पड़ गया हो और ऐसे भुलावे में पड़ने के कारण अन्याय हुआ हो।
धारा में आरोप में गलतियों के कारण उत्पन्न होने वाले दुष्परिणाम के निवारण हेतु को उपबंध दिए गए है। यह धारा अपने लक्ष्य को भली-भांति प्राप्त भी करती है।
दामोदरन बनाम राज्य ए आई आर 1953 के मामले में यह कहा गया है कि ऐसे त्रुटिपूर्ण आरोप के आधार पर किए गए विचारण को तब तक घोषित नहीं माना जाएगा जब तक कि उक्त त्रुटिपूर्ण आरोप से अभियुक्त के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़ा हो। यह न्याय निर्णय भी स्पष्ट करता है कि अभियुक्त के न्याय के अधिकार पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तो ही धारा 215 के अधीन गलतियों को तात्विक माना जाएगा।
हेमंत कुमार महापात्र बनाम विनोद बिहारी महापात्र एक महत्वपूर्ण मामले में निश्चित किया गया कि आरोप में भारतीय दंड संहिता की धारा 34 का उल्लेख ना किया जाना एक ऐसा लोप है जिसका केवल बौद्धिक महत्व है क्योंकि इसके कारण अभियुक्त अपने अपराध के बारे में बुलावे में नहीं पड़ा था। इस मामले में आरोप लगाते समय धारा 34 का लोप हो गया था।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 464 एवं 465 भी इस ही संबंध में है। धारा 464 में यह उपबंधित है कि यदि आरोप में कोई तात्विक त्रुटि है गलती रह गई है जिसके कारण न्याय की निष्फलता हुई है तो अभियुक्त का पुनः विचार किया जाएगा।
धारा 215 को धारा 465 के साथ पढ़ा जाना चाहिए। इन दोनों धाराओं का संयुक्त प्रभाव होकर यदि आरोप की रचना में किसी प्रकार की भूल, लोप या कोई अनियमितता हुई है तो न्यायालय केवल इस बात पर विचार करेगा कि क्या इसके कारण अभियुक्त के प्रति उसके बचाव में कोई अन्याय हुआ है। यदि अभियोजन पक्ष ने आरोप पत्र में अभिकथित आरोप के अलावा कोई अन्य मामला गढ़ा है तो अभियुक्त के साथ सरासर अन्याय होगा।
आरोपों में परिवर्तन तथा परिवर्धन-(बदलना और बढ़ाना)
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 216 के अंतर्गत न्यायालय को यह शक्ति प्राप्त है कि वह किसी भी आरोप में परिवर्तन तथा परिवर्धन कर सकता है।
विचारण की कार्यवाही के दौरान मजिस्ट्रेट यह अनुभव करें कि आरोप अपूर्ण एवं दोषपूर्ण है तो वह उसमें परिवर्तन कर सकता है। यह बात ए ए सिंह बनाम मणिपुर केंद्र शासित प्रदेश ए आई आर 1961 मणिपुर के मामले में कही गयी है।
धारा 216 आरोप में परिवर्तन या परिवर्धन के पश्चात निम्नलिखित प्रक्रिया का अनुसरण करने का उपबंध करती है-
1) इस तरह का प्रत्येक परिवर्तन या परिवर्धन अंश अभियुक्त को पढ़कर सुनाया तथा समझाया जाएगा।
2) इस तरह के परिवर्तन या परिवर्धन से न्यायालय की राय में अभियुक्त को स्वयं की प्रतिरक्षा करने एवं अभियोजन के संचालन में कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है तो न्यायालय ऐसे परिवर्तन या परिवर्धन के पश्चात स्वविवेक से विचारण को अनुवर्तित क्रम में ऐसे चला सकता है मानो परिवर्तित या परिवर्धित आरोप ही मूल आरोप है।
3) यदि परिवर्तन या परिवर्धन ऐसा है कि न्यायालय की राय में उससे अभियुक्त या अभियोजन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा तो न्यायालय या तो नए विचारण का निर्देश दे सकता है या आवश्यकता अनुसार विचारण को अनुवर्तित अवधि के लिए स्थगित कर सकता है।
4) यदि परिवर्तित या परिवर्धित आरोप के परिणाम स्वरूप कथित अपराध के अभियोजन के लिए पूर्व मंजूरी की आवश्यकता है तो ऐसी मंजूरी प्राप्त किए बिना कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी।
न्यायालय द्वारा स्वयं के विवेक से या अभियोजन के पक्ष के आवेदन पर आरोप में परिवर्तन या परिवर्तन किया जा सकता है।
निजी अधिनवक्ता भी दे सकता है आरोप में परिवर्तन के लिए आवेदन-
जहां आरोप में परिवर्तन हेतु परिवादी की ओर से किसी निजी अधिवक्ता ने आवेदन किया हो तथा उसे लोक अभियोजक ने अग्रेषित किया हो तो ऐसा परिवर्धन स्वीकार होगा तथा इसमे किसी प्रकार की अवैधता नहीं होगी। यह बात राधेश्याम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1992 के मामले में कही गई है।
सामान्यतः अभियोजन पक्ष न्यायालय को आरोपों में परिवर्तन तथा परिवर्धन करने हेतु कोई आवेदन देता है।
उच्चतम न्यायालय ने एक बड़े और महत्वपूर्ण मामले में सब्बी मलेसू बनाम आंध्र प्रदेश राज्य ए आई आर 2006 उच्चतम न्यायालय 2747 के मामले में यह कहा है कि न्यायालय के आरोप परिवर्तित या परिवर्धन शक्ति के बारे में कोई संदेह नहीं है या फिर कोई शंका भी नहीं है लेकिन धारा 216 उपधारा (2) न्यायालय से यह अपेक्षा अवश्य करती है कैसे परिवर्तन या परिवर्धन की सूचना अभियुक्त को अनिवार्य रूप से दे दी जाए ताकि वह तदनुसार अपने बचाव की व्यवस्था कर सकें।
किसी भी परिस्थिति में आरोप का अर्थ अभियुक्त को दी जाने वाली एक सूचना है जो अभियुक्त को यह जानकारी देती है कि उसके विरुद्ध किस न्यायालय में, किस अधिनियम, किस विधि के अंतर्गत, किन धाराओं के अनुसार, किस अपराध में अभियोजन चलाया जा रहा है। उससे यह पूछा जाता है कि वह आरोपों को स्वीकार करता है या फिर अभियोजन चाहता है।
धारा 217 आरोप में परिवर्तन होने पर साक्षियों को पुनः बुलाया जाने का उपबंध करती है। ऐसा कोई भी साक्षी जो आरोप के परिवर्तन और परिवर्धन से संबंध रखता है। न्यायालय साक्षी को पुनः बुला सकती है, अभियुक्त और अभियोजन को भी बुलाएगी परंतु यदि न्यायालय को यह लगता है कि किसी ऐसे साक्षी को अनावश्यक बुलाया जा रहा है जिसका आरोप के परिवर्तन तथा परिवर्धन में कोई भी महत्व नहीं है तो न्यायालय इस साक्षी को नहीं बुलाएगी। ऐसे साक्षी को जिसे न्यायालय आवश्यक समझे बुलाने की अवज्ञा दी जाएगी।
धारा 217 अभियुक्त का अधिकार है तथा यह धारा अभियुक्त का संरक्षण करती है।