जानिए आरोप का अर्थ और आरोप का प्ररूप

Shadab Salim

26 March 2020 5:45 AM GMT

  • जानिए आरोप का अर्थ और आरोप का प्ररूप

    आपराधिक प्रकरण संचालन के लिए प्रक्रिया विधि में आरोप का महत्वपूर्ण स्थान है। दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 17 में आरोप के लिए यह पूरा अध्याय है, जिसमें धारा 211 से लेकर 224 तक आरोप संबंधित सभी प्रावधान दिए गए हैं। इस लेख तथा इसके बाद के अन्य लेखों के माध्यम से हम आरोप क्या होता है और आरोप का प्ररूप क्या है इसे समझने का प्रयास करेंगे तथा अगले लेखों में आरोप से संबंधित अन्य विशेष जानकारियों पर चर्चा होगी।

    आरोप का अर्थ

    आरोप अभियोजन की प्रथम कड़ी होती है तथा आरोप के बाद ही अभियोजन की अगली कार्यवाही की जाती है। आरोप के अभाव में अभियोजन प्रारंभ नहीं हो सकता। आरोप अभियुक्त के विरुद्ध अपराध की जानकारी का ऐसा लिखित कथन होता है जिसमें आरोप के आधार के साथ साथ अपराध की 'विधि' 'समय' 'स्थान' उसमें शामिल 'व्यक्ति' एवं 'वस्तु' का भी उल्लेख रहता है।

    आरोप के आधार पर ही अभियुक्त अपना बचाव प्रस्तुत करता है। सामान्यता आरोप तभी लगाया जाता है जब मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि आरोपी के विरुद्ध प्रथम दृष्टया अपराध बनता है।

    आरोपित प्रकार की जानकारी होती है जो अभियुक्त को दी जाती है। यह नैसर्गिक न्याय है कि किसी भी अभियुक्त पर जब अभियोजन चलाया जाए तो उसको अभियोजन से संबंधित संपूर्ण जानकारी दे दी जाए। आरोप मजिस्ट्रेट द्वारा लगाए जाते हैं न की अभियोजन द्वारा। अभियोजन पक्ष अपनी रिपोर्ट लेकर आता है।

    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 के अंतर्गत अभियोजन अपना अंतिम प्रतिवेदन पेश करता है। अंतिम प्रतिवेदन के पेश होने के उपरांत मजिस्ट्रेट आरोप लगाता है। न्यायालय आरोप को लिखता है तथा अभियुक्त व्यक्ति को यह संज्ञान देता है कि उस पर क्या आरोप लगाए गए हैं और कौन से अपराध का विचारण उस अभियुक्त पर आगे चलाया जाएगा।

    आरोप का प्ररूप

    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 211 आरोप के प्ररूप का वर्णन करती है। इस धारा में आरोप की अंतर्वस्तु के बारे में उपबंध दिए गए हैं। आरोप को संहिता की धारा 2 के परिभाषा खंड के अधीन परिभाषित किया गया है परंतु धारा 2 के अंतर्गत केवल आरोप की परिभाषा मात्र दी गई है तथा संहिता के अध्याय 17 में आरोप से संबंधित समस्त जिज्ञासाओं को शांत किया गया है। साधरण भावबोध में आरोप शब्द से तात्पर्य अभियुक्त को उसके अपराध के बारे में जानकारी देने का एक साधन है, जिसमें आरोप के आधारों के साथ-साथ समय स्थान तथा उस व्यक्ति या वस्तु का उल्लेख रहता है जिसके विरुद्ध अपराध किया गया है।

    न्यायालय द्वारा आरोप उसी सूरत में लगाया जाता है जब न्यायालय को यह समाधान हो जाता है कि प्रथम दृष्टया कोई अपराध बनता है। अजय कुमार बनाम झारखंड राज्य के एक प्रसिद्ध मामले में न्यायालय ने यह कहा है कि आरोपों को तय करने से पहले अभियोजन के साक्षियों का प्रति परीक्षण करने का अवसर अवश्य दिया जाना चाहिए परंतु विजयन बनाम केरल राज्य के मामले में न्यायालय ने कहा है कि जब मजिस्ट्रेट को यह प्रथम दृष्टया समाधान होता है की कोई अपराध किया गया है तो उस आधार पर ही आरोप तय होते है तथा दोनों पक्षों को बहस मात्र कर लेने से ही आरोप तय करने का अधिकार न्यायालय को प्राप्त हो जाता है।

    आरोप की अंतर्वस्तु

    आरोप की अंतर्वस्तु में निम्नलिखित बातों का उल्लेख होना चाहिए।

    1) अभियुक्त पर आरोपित अपराध

    2) उस अपराध का सृजन करने वाली विधि यदि उस अपराध का कोई विनिर्दिष्ट नाम देती हो तो आरोप में उसका वर्णन उसी नाम से किया जाएगा।

    3) अपराध का सृजन करने वाली विधि उसे कोई विनिर्दिष्ट नाम ना देती हो तो उस अपराध की इतनी परिभाषा देनी चाहिए जिससे अभियुक्त को इस बात की सूचना हो जाएगी उस पर किस अपराध का आरोप है।

    4) आरोप में संबंधित विधि और उसकी निश्चित धारा का उल्लेख होना चाहिए जिसके विरुद्ध अपराध किया गया है।

    5) यह तथ्य कि आरोप लगा दिया गया है इस बात का प्रमाण होगा कि मामले में विधि द्वारा अपेक्षित प्रत्येक शर्त पूरी हो गई है।

    6) आरोप न्यायालय की भाषा में लिखा जाना चाहिए

    7) यदि अभियुक्त किसी पूर्व दोष सिद्धि के कारण अतिरिक्त या वर्धित दंड का भागी है तो उस दशा में आरोप में पूर्व दोष सिद्धि की तिथि समय तथा स्थान आदि का उल्लेख किया जाएगा।

    अनुप कुंवर बनाम गुजरात राज्य 1985 क्रिमिनल लॉ 394 मामले में कहा गया है

    "आरोप में इस बात को भी दर्शाया गया है कि अभियुक्तों में से प्रत्येक अभियुक्त अपराध में किस प्रकार संबंधित है तथा उनमें से प्रत्येक ने किस तरह से अपराध में भाग लिया है।"

    यह सभी कुछ आरोप की अंतर्वस्तु है न्यायालय द्वारा लगाए जाने वाले किसी भी आरोप में इन सभी अंतर्वस्तु का महत्वपूर्ण स्थान है और इन सभी को किसी भी आरोप में होना ही चाहिए।

    जब धारा 211 एवं 212 में वर्णित विशिष्टियां अभियुक्त पर उस पर लगाए गए आरोप या आरोपों के बारे में समुचित जानकारी देने के लिए अपर्याप्त हो तो मजिस्ट्रेट द्वारा आरोप में उस रीति का उल्लेख भी किया जाना चाहिए जिस प्रकार से अभी कथित अपराध किया गया है। आशय यह है कि अभियुक्त को उसके विरुद्ध आरोप के बारे में यथेष्ठ सूचना दी जानी चाहिए ताकि वह अपना बचाव कर सकें।

    जब धारा 211 एवं 212 यह संपूर्ण जानकारी देने में अपर्याप्त होती है कि अभियुक्त ने अपराध किस तरीके से किया है तो इसके बाद धारा 213 की सहायता से अपराध किए जाने की रीति कथित की जाने का प्रावधान रखा है।

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