जमानत के संबंध में महत्वपूर्ण सवाल और उनके जवाब : भाग एक

Update: 2023-01-19 12:15 GMT

प्रश्न. ज़मानत का अर्थ और उद्देश।

इंग्लिश और अमेरिकी कानून में जमानत की संकल्पना का एक लंबा इतिहास रहा है। इंग्लैंड में, मध्यकाल के दौरान जमानत/Bail प्रथा का उद्भव हुआ, जिसके चलते जेल में बंद कैदियों के लिए किसी तीसरे पक्षकार द्वारा उसकी रिहाई और अदालत में उसकी पेशी की जिम्मेदारी ली जाती थी। इसकारण मध्ययुग में कई सारे कैदियों को इसी तर्ज पर जेलों से छोड़ा (bailout) जाने लगा। यद्यपि, अभियुक्त पश्चतवर्ती अवसर पर अदालत में पेश नहीं होता तो विचारण में जमानत दिलवाने वाले को उसके स्थान पर उपस्थित रहना होता था। बाद में इसे आधुनिक काल में प्रक्रियात्मक विधि का अंग बना लिया गया। ऐसे ही प्रावधान हमारे दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 33 में भी वर्णित हैं।

जानना आवश्यक होगा की, जमानत शब्द को संहिता में कही भी परिभाषित नहीं किया गया है। बल्कि मात्र मामलों को जमानतीय या अजमानतीय अपराधों में वर्गीकृत किया गया है। वास्तविक परिभाषा संहिता में धूमिल है, जबकि यह केवल जमानत प्रदान करने की युक्तियुक्त प्रक्रिया को बताता है न कि उसके आशय को। (मोतीराम बनाम एमपी राज्य AIR 1978SC 1594)

हैल्सबरी लॉस ऑफ इंग्लैंड, (चौथा संस्करण वोलियम.11,पेरा 166) के अनुसार जमानत आपराधिक मामले में एक अभियुक्त की अनंतिम रिहाई को दर्शाती है, जिसमें अदालत ने अभी तक अंतिम निर्णय की घोषणा नहीं की है। दूसरे शब्दों में जमानत मतलब अभियुक्त द्वारा कोर्ट के समक्ष अपनी उपस्थिति के लिए सिक्योरिटी जमा करवाना है।

गिरफ्तारी का प्राथमिक उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि एक आपराधिक मामले में अभियुक्त अपने विरुद्ध लगे आरोपों के संबंध में न्यायिक प्रक्रिया के दौरान किसी निश्चित तिथि या दिन पर बुलाए जाने पर कोर्ट के समक्ष उपस्थित हो। इस प्रकार, जमानत एक प्रकार की सिक्योरिटी है और इसमें व्यक्तिगत बॉन्ड भी शामिल है। संक्षिप्त में किसी अभियुक्त को सशर्त स्वतंत्रता के आधार पर छोड़ना ही जमानत है।

हमारे आपराधिक तंत्र में न्यायालय को सीआरपीसी की धारा 167(2), 436–439 तक में जमानत देने की शक्ति है और वही, पुलिस को धारा 81,436(1) और 437(2) के अंतर्गत यह शक्ति प्राप्त है परंतु यह धारा 71 के नियंत्रण के अधीन मानी जायेगी।

प्रश्न: क्या दैहिक स्वतंत्रता की संकल्पना और जमानत का अधिकार समव्यापी है?

प्रत्येक व्यक्ति को संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्राण व दैहिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। यह संविधान में सभी मूल अधिकारों में सबसे मौलिक है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोक व्यवस्था, राज्य की सुरक्षा आदि के हित में इन अधिकारों पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं लेकिन न्यायालय द्वारा इसके संतुलन का परीक्षण किया जाना अनिवार्य होगा। यदि किसी व्यक्ति को विधि विरुद्ध प्रक्रिया द्वारा निरूद्ध किया जाता है तो वह अवश्य ही अनुच्छेद 21 का उलंघन माना जायेगा। जैसे कि यदि किसी व्यक्ति को दंड प्रक्रिया संहिता (CRPC) की धारा 436(1) के अंतर्गत जमानतीय मामले में जमानत पर नहीं छोड़ा जाता है तब इस अनुच्छेद का उलंघन माना जायेगा।

वैसी ही, धारा 167(2) तहत किसी व्यक्ति को 90 या 60 दिन की अवधि पूर्ण हो जाने के पश्चात भी जमानत पेश करने पर नहीं छोड़ा जाता है, तब वह व्यक्ति की दैहिक स्वतंत्रता का हनन माना जायेगा। शायद इसीलिए सीआरपीसी की धारा 57 को आधार प्रदान किया गया जिससे गिरफ्तार व्यक्ति 24 घंटे से अधिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता और उसे जमानत संबंधित उपबन्धो के अधीन रहते हुए मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जा सकेगा।

ऐसे ही जोगिंदर कुमार बनाम यूपी राज्य और अन्य, 1994 एससीसी 1349 मामले में जोर दिया कि “गिरफ्तार करने की शक्ति एक बात है और इसके प्रयोग का औचित्य अलग बात। पुलिस अधिकारी को अपनी शक्ति के अलावा गिरफ्तारी को सही ठहराने में सक्षम होना चाहिए इसलिए किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी और पुलिस हिरासत में रखने से उसकी प्रतिष्ठा और स्वाभिमान को अपूरणीय क्षति हो सकती है।

इस कारण यह कोर्ट का दायित्व है कि वे जमानत देते समय मामले के तथ्यों व सामग्री पर पूरा ध्यान दे, अन्यथा ऐसे में यह अनुछेद 21 का उलंघन माना जायेगा। क्योंकि, व्यक्तिगत स्वतंत्रता से बढ़कर कोई स्वतंत्रता नहीं है और इसे अक्षुण्ण बनाए रखने से बढ़कर कोई कर्तव्य नहीं है।“

हाल ही में सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टिगेशन ऑफिस बनाम राहुल मोदी, 2022 SCC OnLine SC153,में शीर्ष न्यायालय ने तय किया कि यदि धारा 167(2) के अंतर्गत रिमांड आदेश अवैध है तो पीड़ित संविधान के अनु. 32 या 226 के अधीन बंदी–प्रत्यक्षीकरण की याचिका दायर कर सकता है, क्योंकि मूल अधिकारों और संविधिक अधिकारों में टकराव होने पर हमेशा मूल अधिकार ही अभिभावी होंगे।

कहना उचित होगा की जमानत प्रदान करने से इंकारी अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एक प्रतिबंध है। परंतु किसी व्यक्ति को दैहिक स्वतंत्रता से वंचित करने के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया न्यायपूर्ण व युक्तियुक्त होनी चाहिए। (बिहार राज्य बनाम कमलेश्वर,AIR1965, SC575)। इसलिए एक युक्तियुक्त उपबंध होने के कारण दैहिक स्वतंत्रता और जमानत का अधिकार दोनों एक दूसरे के अनुपूरक और सम व्यापी है।

प्रश्न: जमानतीय अपराध और अजमानतीय अपराध में क्या मुख्य अंतर है?

संहिता में बताए वर्गीकरण के आधार पर जमानत के संबंध में अपराधों को दो प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है। जैसे-

• जमानतीय अपराध।

• अजमानतीय अपराध।

प्रथम: धारा 2(a) के अनुसार जमानतीय अपराध अर्थात् वे अपराध जो संहिता के अंर्तगत अनुसूची 1 में जमानतीय बताये गए हैं।

महत्वपूर्ण है कि धारा 50 के अनुसार जब भी किसी व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ्तार किया जाता है तो यह पुलिस अधिकारी का कर्तव्य है कि वह उस अपराध का पूरा विवरण बताए, जिसके लिए व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया है। इसके अलावा, यदि जिस अपराध के लिए व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया है वह जमानतीय है, तो यह पुलिस का कर्तव्य है कि वह यह सूचित करें कि वह ज़मानत देने के बाद जमानत पर रिहा होने का हकदार है।

सीआरपीसी की धारा 436 के अनुसार, जब भी किसी जमानतीय अपराध के आरोपी व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ्तार किया जाता है और जमानत देने के लिए तैयार किया जाता है तो ऐसे व्यक्ति को जमानत पर रिहा कर दिया जाएगा। जमानत राशि तय करने का विवेक न्यायालय या अधिकारी के पास है, जैसा भी मामला हो।

सुप्रीम कोर्ट ने रसिक लाल बनाम किशोर (2009) 4 एससीसी 446 मामले में कहा कि, “यदि किसी व्यक्ति को किसी जमानतीय अपराध के अभियोग के लिए गिरफ्तार किया जाता है तो जमानत का दावा करने का उसका अधिकार पूर्ण और अपरिहार्य है। यदि आरोपी व्यक्ति तैयार है, तो अदालत या पुलिस, जैसा भी मामला हो जमानत पर रिहा करने के लिए बाध्य होंगे।"

प्रक्रिया :- एक जमानतीय अपराध के मामले में जमानत के लिए आवेदन करने के लिए व्यक्ति को जमानत का एक फॉर्म यानी फॉर्म नंबर 45 भरना होगा। जो कि पहली अनुसूची में दिया गया है और जमानत के लिए आवेदन करना होगा और अदालत को जमानत देनी होगी।

सीआरपीसी की धारा 2 (a) के अनुसार, अजमानतीय अपराध में वे सभी अपराध शामिल हैं जो पहली अनुसूची में जमानतीय अपराध में शामिल नहीं हैं। इसके अलावा, इसके दूसरे भाग में पहली अनुसूची के अंत में गैर-जमानतीय अपराध को उन अपराधों के रूप में परिभाषित किया गया है जो मृत्युदंड, आजीवन कारावास या सात वर्ष से अधिक के कारावास से दंडनीय हैं। साथ ही, ऐसे अपराध के आरोपी को जमानत पर रिहा होने का अधिकार नहीं है। लेकिन सीआरपीसी की धारा 437 में दी गई कुछ शर्तों के अधीन कोर्ट के विवेक के आधार पर जमानत दी जा सकती है।

437(1) के अनुसार “यदि किसी व्यक्ति को किसी भी गैर-जमानतीय अपराध के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है तो उसे जमानत पर रिहा नहीं किया जाएगा यदि उचित आधार है कि ऐसा व्यक्ति मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध का दोषी है। परंतु निम्न दशाओं में जमानत प्रदान की जा सकती है, जैसे-

• यदि वह व्यक्ति सोलह वर्ष से कम आयु का है।

• बीमार व्यक्ति या दुर्बल व्यक्ति है।

• कोई महिला है।

• अजमानतीय अपराध के अभियुक्त का विचारण उस मामले में साक्ष्य देने के लिए नियत प्रथम तारीख से साठ दिन की अवधि के अन्दर पूरा नहीं हो जाता है तो यदि ऐसा व्यक्ति उक्त सम्पूर्ण अवधि के दौरान अभिरक्षा में रहा है तो, जब तक ऐसे कारणों से जो लेखबद्ध किए जाएंगे मजिस्ट्रेट अन्यथा निदेश न दे वह मजिस्ट्रेट की समाधानप्रद जमानत पर छोड़ दिया जाएगा।

• यदि जांच के किसी भी स्तर पर कोर्ट के समक्ष उचित आधार हैं कि व्यक्ति ने गैर-जमानतीय अपराध नहीं किया है तो व्यक्ति को न्यायालय के विवेक पर जमानत पर रिहा किया जा सकता है। 

उपरोक्त परिस्तिथ्यों में धारा 437(3) में वर्णित शर्तों को अधिरोपित कर अभियुक्त को जमानत पर छोड़ा जा सकेगा। इसके अतिरिक्त, जमानत पर छोड़ने के युक्तियुक्त आधार से तात्पर्य अभियोजन पक्ष द्वारा अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्टि मामला स्थापित नहीं किए जाने से है। (प्रह्लाद सिंह भाटी बनाम NCTदिल्ली,Scc(2001)

इस निष्कर्ष से यह कहना उचित होगा कि, जमनातीय अपराध के मामले में जमानत एक अधिकार है परंतु, अजमानतीय अपराधों के मामले में यह न्यायालय के विवेकाधिकार पर आधारित एक शक्ति है। इसलिए यह भी इंगित करना उचित होगा कि धारा 437 दैहिक स्वतंत्रता के मूल अधिकार का एक अपवाद है। (कल्याणचंद्र सरकार बनाम राजेश रंजन scc,2005) अपवाद

आवेदन प्रक्रिया-

अजमानतीय अपराध के लिए जमानत के आधार निर्धारित करते हुए एक आवेदन देना होगा। यदि कोर्ट आश्वस्त हो जाता है कि जमानत दी जानी चाहिए तो वह दलीलें सुनने के बाद आदेश पारित कर सकती है। उस स्तर पर व्यक्ति को ज़मानत द्वारा विधिवत हस्ताक्षरित जमानत बांड भरना होता है और अपने अधिवक्ता के माध्यम से भरना होता है। यदि अभियुक्त न्यायालय के समक्ष है, तो उसे न्यायालय में ही छोड़ा कर दिया जाता है और यदि अभियुक्त जेल में निरुद्ध है, तो जमानत प्रदान करने के आदेश सम्बन्धित कारागार को भेज दिये जाते है।

मुख्य अंतर-

अंतर का आधार जमानतीय अपराध अजमानतीय अपराध

संहिता की धारा 2(a) के अनुसार संहिता के तहत प्रावधान संहिता की धारा 2(a) के अनुसार एक ऐसे अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसे पहली अनुसूची में जमानतीय के रूप में दिखाया गया है, या जिसे किसी अन्य कानून में जमानतीय बनाया गया है। संहिता की धारा 2(a) के अनुसार जमानतीय अपराध के अलावा कोई अन्य अपराध, अजमानतीय अपराध माना जायेगा।

अपराध की प्रकृति जमानतीय अपराधों को प्रकृति में कम गंभीर माना जाता है। जबकि, अजमानतीय अपराधों को अधिक गंभीर/जघन्य प्रकृति का माना जाता है

सजा की मात्रा सामान्य नियम के अनुसार जमानतीय अपराध वे हैं जिनमें सजा की अवधि 3 वर्ष या उससे कम है। जैसे, समन मामले [धारा 2(w], लेकिन इस नियम के कुछ अपवाद भी हैं।

जैसे, आईपीसी की धारा 363 जमानतीय है। जबकि वह 7 वर्ष तक की अवधि के कारावास से दंडनीय अपराध है। जबकि, अजमानतीय अपराधों में सजा की मात्रा, मृत्यु दंड, आजीवन कारावास, या 3 या 7 वर्ष की कठोर दण्ड से दंडनीय हो सकती है।

जैसे, धारा 2(x) वाले मामले।

जमानत की शक्ति जमानतीय अपराधों में, जमानत का अधिकार के रूप में दावा किया जा सकता है और पुलिस अधिकारी या कोर्ट द्वारा इसे अज्ञापक रूप से प्रदान किया जाता है। जैसे, संहिता की धारा 436(1)। जबकि, इसमें ज़मानत का एक अधिकार के रूप में दावा नहीं किया जा सकता है और अदालत या पुलिस अधिकारी के पास प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद ही जमानत देने का विवेकाधिकार मौजूद होगा। जैसे की धारा 437 के नियम उदाहरण जैसे, आईपीसी की धारा 379,403,171। जैसे, आईपीसी की धारा 304बी,302,307,376, 364ए।

अपराध जमानतीय अपराधों में जमानत आदेश देने से इनकार करना विधिविरुद्ध परिरोध माना जायेगा, जो की आईपीसी की धारा 342 में एक अपराध है। परंतु, अजमानतीय मामलों में ऐसी कोई बात नहीं है।

प्राधिकारी जमानतीय अपराध के मामले में धारा 436(1) के अधीन जमानत देने का अधिकार न्यायालय या पुलिस को है।

धारा अजमानतीय मामलों में मुख्यतः जमानत प्रदान करने की शक्ति न्यायालय को होती है। परंतु धारा 437(2) में वर्णित परिस्थिति में पुलिस अधिकारी भी जमानत दे सकता है।

जमानत के प्रकार

सीआरपीसी में जमानत संबंधित प्रावधानों के अनुसार जमानत को हम निम्नलिखित प्रकारों में विभक्त कर सके है। जैसे-

1. नियमित जमानत(Regular bail)– नियमित जमानत आमतौर पर उस व्यक्ति को दी जाती है, जिसे गिरफ्तार किया गया है या पुलिस हिरासत में है। सीआरपीसी की धारा 436 या 437 के तहत नियमित जमानत के लिए अर्जी दाखिल की जा सकती है।

2. अंतरिम जमानत (Interim bail)- यह जमानत मामले की सुनवाई से पूर्व एक निश्चित समय के लिए दी जाती है और नियमित जमानत या अग्रिम जमानत देने की सुनवाई से पहले दी जाती है। यह मुख्य रूप से इसलिए दिया जाता है क्योंकि निचली अदालतों से उच्च न्यायालय में दस्तावेज़ प्रस्तुत करने में समय लगता है। हालांकि, जमानत की सुनवाई के दौरान अंतरिम जमानत समाप्त हो जाती है।

3. अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail)- अग्रिम जमानत सीआरपीसी की धारा 438 के तहत सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा दी जाती है। अग्रिम जमानत देने के लिए आवेदन उस व्यक्ति द्वारा दायर किया जा सकता है जिसे यह विश्वास है कि उसे अजमानतीय अपराध के लिए पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया जा सकता है।

4. उच्चतर न्यायालयों द्वारा जमानत (bail by higher courts)- धारा 439 के अनुसार, किसी भी अपराध का अभियुक्त यदि पहले से ही हिरासत में है तो वह सेशन कोर्ट या हाई कोर्ट के समक्ष अपनी जमानत के लिए आवेदन कर सकते है।

5. संविधिक जमानत (Default Bail)- धारा 167(2), के अनुसार 90 या 60 दिन की अवधि के भीतर यदि अन्वेषण अधिकारी द्वारा आरोपपत्र कोर्ट के समक्ष दाखिल नहीं किया जाता है तो अभियुक्त के पास जमानत पर छूटने का अधिकार होगा तथा साथ ही, न्यायालय के लिए उसे जमानत प्रदान करना आज्ञापक होगा।

6. ट्रांसिट जमानत (Transit Bail)- सीआरपीसी में कही भी वर्णित नहीं है परंतु विविध निर्णयों से इसकी पुष्टि धारा 81 करती है। इस धारा के नियमों के अनुसरण में दी जाने वाली जमानत ट्रांसिट जमानत कहलाती है।

जबकि दूसरी ओर आरोपों के आधार पर जमानत के प्रकारों को निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है-

1. स्थाई जमानत (Permanent bail)-

इस जमानत की प्रकृति स्थाई होती है और यह केवल और केवल आवेदक और विपरीत पक्षकार को सुनने के बाद ही दी जाती है।

2. गिरफ्तारी पर जमानत (Bail on Arrest)-

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 में अभियुक्त के किसी आरोप के विषय में गिरफ्तार होने के पश्चात् दी जाती है, चाहे मामला जमानतीय हो या अजमानतीय।

3. महिला और बच्चों के संबंध में जमानत (Bail for child and women)-

अजमानतीय अपराध के अंतर्गत महिला और बच्चों को भी जमानत का लाभ दिया जा सकता है। धारा 437 के अंतर्गत स्पष्ट प्रावधान है।

4. बीमारी के आधार पर जमानत (Sickness bail)-

यदि, जमानत का आवेदक शारीरिक रूप से गम्भीर बीमारी से ग्रस्त है तब उसे अजमानतीय मामले भी जमानत प्रदान की जा सकती हैं।

5. F.I.R. दर्ज कराने में विलम्ब होने के आधार पर जमानत (Delay of registration of FIR)-

यदि, FIR दर्ज करवाने में विलम्ब किया गया है और कोई उचित स्पष्टीकरण भी नहीं दिया गया है तब अवश्य ही, अभियुक्त अजमानतीय मामले में भी जमानत पर छोड़ा जा सकेगा।

6. साक्ष्यों के अभाव में जमानत (Bail on lack of evidence)-

कार्यवाही के किसी प्रकरण में कोर्ट के पास उचित आधार है कि अभियुक्त के विरुद्ध ये युक्तियुक्त साक्ष्य मौजूद नहीं है जिससे उसे हिरासत में रखना उचित होगा। उस दशा में कोर्ट जमानत प्रदान कर सकेगा।

7. शक के आधार पर जमानत (Bail on Doubt)-

जब अभियोजन पक्ष अभियुक्त पक्ष के विरुद्ध प्रथम दृष्ट्या मामला स्थापित करने में असफल रहता है और उपस्थिति सामग्री अभियोजन मामले में शक पैदा करता है तो उसका लाभ अभियुक्त को देते हुए कोर्ट कार्यवाही के किसी भी स्तर पर जमानत पर छोड़ सकता है।

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