सीएए विरोधी प्रदर्शन: जानिए प्रदर्शनों को दबाने के लिए बल प्रयोग करने की कानूनी वैधता

Update: 2019-12-23 03:15 GMT

शाश्वत अवस्थी एवं अनुष्का

सुप्रीम कोर्ट ने 17 दिसम्बर 2019 को नागरिकता संशोधन कानून, 2019 के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के दौरान जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के छात्रों के विरुद्ध पुलिस की दमनात्मक कार्रवाई की जांच अदालत की निगरानी में कराये जाने की अर्जी संबंधित उच्च न्यायालयों के समक्ष दायर करने का याचिकाकर्ताओं को निर्देश दिया।

शीर्ष अदालत के हस्तक्षेप न करने का मुख्य कारण स्थापित तथ्यों की अनुपस्थिति में उसकी अनिच्छा (तथ्य का पता लगाना अनिवार्य तौर पर ट्रायल कोर्ट का काम है) तथा इस घटना का विभिन्न क्षेत्रों में फैलना था, क्योंकि एएमयू जैसे अन्य विश्वविद्यालयों में भी संबंधित घटनाएं घटित होने की बात भी कही गयी थी। परिणामस्वरूप, 19 दिसम्बर को दिल्ली हाईकोर्ट ने सरकार और पुलिस को नोटिस जारी किये, लेकिन याचिकाकर्ताओं को कोई भी अंतरिम राहत प्रदान करने से इन्कार कर दिया था।

यह आलेख विरोध प्रदर्शनों को रोकने के लिए बल प्रयोग से संबंधित कानून का पता लगाकर इस मुद्दे को कानूनी परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है। आलेख में किसी भी पक्ष द्वारा की गयी कार्रवाई के गुण-दोष पर बात नहीं की गयी है, न ही उसे जायज ठहराये जाने का प्रयास किया गया है, बल्कि इसका उद्देश्य मीडिया में उपलब्ध तथ्यों की पृष्ठभूमि में इस मुद्दे का कानूनी पहलू प्रदान करना है।

तथ्यात्मक पृष्ठभूमि

रविवार, 15 दिसम्बर 2019 की शाम जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में छात्रों के विरोध प्रदर्शन के हिंसक हो जाने की खबर से पूरा देश हिल उठा था। लोकप्रिय अंग्रेजी दैनिक 'द हिन्दू' में खबर प्रकाशित की कि पुलिस ने विश्वविद्यालय प्रशासन की अनुमति के बिना उसके परिसर में प्रवेश किया था तथा छात्रों के प्रदर्शन को कुचलने के लिए आंसू गैस के गोले दागने सहित कठोर बल प्रयोग किया था। जामिया के छात्रों के खिलाफ पुलिस द्वारा रविवार को की गयी कार्रवाई को विश्वविद्यालय प्रशासन से जुड़े अधिकारियों ने अगले दिन 'युद्ध जैसी स्थिति' की संज्ञा दी थी तथा घटना की उच्च-स्तरीय जांच की मांग की थी। इसके अलावा, पुलिस ने 50 विद्यार्थियों को हिरासत में भी लिया था, जिन्हें सोमवार तड़के छोड़ दिया गया था।

दूसरी ओर, दक्षिण-पूर्व दिल्ली के पुलिस उपायुक्त चिन्मय विस्वाल ने प्रदर्शन के बारे में इंडिया टुडे टीवी से बातचीत में बताया कि ये विद्यार्थी ही थे, जिन्होंने पथराव सहित प्रदर्शन के हिंसक तरीकों का इस्तेमाल करके भीड़ को उकसाया था और पुलिस को कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए उग्र भीड़ को तितर-बितर करना पड़ा था।

इस घटना के कारण देश भर में विरोध प्रदर्शन हुए, जिसमें आईआईटी बम्बई, आईआईएससी बेंगलूर तथा एनएलयू जैसे कई प्रमुख राष्ट्रीय संस्थानों ने भी प्रदर्शनकारी छात्रों के समर्थन और पुलिस द्वारा बल के अत्यधिक प्रयोग के खिलाफ व्यापक समर्थन किया। हार्वर्ड और येल जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के पूर्व छात्र संघों ने भी प्रदर्शनकारी छात्रों के साथ एकजुटता प्रदर्शित करने संबंधी बयान जारी किये। दूसरी ओर, कई समाचार चैनलों और राजनेताओं ने पुलिस कार्रवाई का यह कहते हुए समर्थन किया कि पुलिस को कथित रूप से हिंसक हो चुके प्रदर्शन को विफल करने के लिए बल प्रयोग करने का पूरा अधिकार है।

यह मुद्दा अभी समाप्त नहीं हुआ है और खासतौर पर नागरिकता संशोधन कानून के पारित होने और इसके व्यापक विरोध की अशांत पृष्ठभूमि में नागरिकों के बीच विचारों के विभाजन का कारण बना है।

इस मसले से उठ रहे सवाल

यह निर्विवाद है कि लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित देश में, प्रत्येक नागरिक को असहमति व्यक्त करने का मौलिक अधिकार है। इस बात को लेकर विस्तार से चर्चा की आवश्यकता शायद ही है कि विधि-सम्मत असहमति को पर्याप्त स्थान दिया जाना किसी भी लोकतंत्र की विशिष्टता है। न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने भीमा कोरेगांव मामले में असहमति व्यक्त करने के अधिकार को लोकतंत्र के लिए 'सेफ्टी वॉल्व' करार दिया था। यह अधिकार तथा इस अधिकार के इस्तेमाल के लिए इकट्ठा होने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(एक)(ए) और 19(एक)(बी) में निहित है।

हालांकि हमेशा यह आशंका बनी रहती है कि पब्लिक रैली अनियंत्रित हो सकती है, जिससे जानमाल की क्षति हो सकती है। यह तब होता है जब एक सार्वजनिक सभा भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 141 की परिभाषा के तहत 'गैरकानूनी' हो जाती है। इसलिए यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि यह असहमति संवैधानिक तरीकों से दर्ज हो। हिंसक असहमति या वैसी असहमति जिससे आम जनता को नुकसान हो, असहमति नहीं रह जाती, बल्कि यह अपराध के दायरे में प्रवेश कर जाती है।

इस कर्तव्यनिर्देश प्रस्ताव को अनुच्छेद 19(दो) में भी स्थान दिया गया है, जिसके जरिये अनुच्छेद के पहले हिस्से के तहत प्रदत्त स्वतंत्रता के अधिकारों पर उचित प्रतिबंध लगाया जा सकता है। दरअसल, कई कानूनी प्रावधान पुलिस को कई प्रकार की शक्तियां प्रदान करते हैं, जिनमें किसी भी गैरकानूनी भीड़ को तितर-बितर करने और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए उचित बल का उपयोग करना शामिल है। इन प्रावधानों के उदाहरण इस प्रकार हैं:- सीआरपीसी की धारा 143 किसी कार्यकारी मजिस्ट्रेट को सार्वजनिक उपद्रवों की पुनरावृत्ति या निरंतरता पर विराम लगाने का अधिकार देती है और धारा 144 उन कार्यों से जनता को दूर रखने या उसके द्वारा कब्जे में ली गयी निश्चित सम्पत्ति को खाली कराने के लिए दिशानिर्देश जारी करने का मजिस्ट्रेट को अधिकार प्रदान करती है, यदि मजिस्ट्रेट को लगता है कि विधिवत नियोजित किसी व्यक्ति को काम में बाधा पहुंचने या चोट पहुंचने की आशंका है, या आदमी की जान, स्वास्थ्य या सुरक्षा को खतरा है, अथवा सार्वजनिक शांति भंग करने, दंगा फैलने या बलवे की आशंका है।

इसलिए, कानूनी प्रश्नों की चर्चा करने से पहले कुछ तथ्यात्मक प्रश्नों को न्यायालय द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए, जैसे- जामिया विश्वविद्यालय में विरोध की प्रकृति क्या थी? क्या परिसर में प्रवेश करने से पहले पुलिस द्वारा आवश्यक अनुमति ली गयी थी? क्या गैर-प्रदर्शनकारी छात्रों के साथ भी बल प्रयोग किया गया था?

इन तथ्यों की स्थापना के बाद ही, न्यायालय इस मुद्दे से उत्पन्न व्यापक कानूनी पहलुओं का निर्धारण करेगा, जिसका उत्तर इस आलेख के जरिये दिया जाना है, जैसे- क्या विरोध प्रदर्शन को विफल करने के लिए बल प्रयोग किया जा सकता है? यदि हाँ, तो ऐसे बल का उपयोग कब किया जा सकता है? इस मुद्दे से कुछ और प्रश्न उत्पन्न हो रहे हैं जैसे- बल का अत्यधिक उपयोग क्या है? पुलिस द्वारा प्रयोग किया गया बल अत्यधिक था या नहीं, उसके निर्धारण का मानदंड क्या है? अंत में, विचारार्थ जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठता है, वह है कि सरकार द्वारा बल प्रयोग को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत क्या हैं?

प्रदर्शन को रोकने के लिए कब और किस हद तक बल का प्रयोग किया जा सकता है?

इस प्रश्न के संबंध में जिस पहले मामले को संदर्भित किया जाना चाहिए, वह है- करम सिंह बनाम हरदयाल सिंह (1979 एससीसी ऑनलाइन पीएंडएच 180), जिसमें हाईकोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि सीआरपीसी की धारा 129-132 के तहत भीड़ को तितर-बितर करने के लिए बल प्रयोग का आदेश देने से पहले मजिस्ट्रेट को तीन आवश्यक बातों का ध्यान रखना चाहिए।

पहला, हिंसा के इरादे से गैर-कानूनी भीड़ इकट्ठी हो या सार्वजनिक स्थान पर गड़बड़ी फैलाने के इरादे से पांच या उससे अधिक व्यक्तियों का जमावड़ा हो। दूसरा, कार्यकारी मजिस्ट्रेट ने भीड़ को अलग-थलग होने का पहले आदेश दिया हो। तीसरा, इस आदेश के बावजूद लोग वहां से नहीं हटे हों।

इसके अलावा, शीर्ष अदालत ने रामलीला मैदान (2012, 5एससी1) मामले में पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों से निपटने के तरीके की आलोचना करते हुए व्यवस्था दी थी कि अनुच्छेद 19 के तहत प्रदत्त स्वतंत्रता के अधिकारों पर केवल उचित प्रतिबंध लगाया जा सकता है, जल्दबाजी में गैर-वाजिब प्रतिबंध नहीं।

अनीता ठाकुर बनाम जम्मू कश्मीर सरकार (2016, 15एससीसी 525) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अंतत: ऐसे प्रतिबंधों को लेकर स्थिति स्पष्ट की थी। इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया था कि पुलिस ने उनका विरोध प्रदर्शन रोकने के लिए अत्यधिक बल प्रयोग किया था। पुलिस ने यह कहते हुए इन आरोपों को खारिज कर दिया था कि याचिकाकर्ताओं ने ही हिंसा भड़काई थी और पुलिस पर पथराव शुरू कर दिया था। पुलिस ने यह दलील दी थी कि उसने केवल इस तरह के उकसावे का जवाब दिया था।

यद्यपि याचिकाकर्ताओं ने हिंसा भड़़काई थी, इसके बावजूद न्यायमूर्ति ए के सिकरी और न्यायमूर्ति आर के अग्रवाल की पीठ ने पुलिस को विरोध प्रदर्शन को नियंत्रित करने के लिए अत्यधिक बल प्रयोग करने का दोषी माना था।

कोर्ट ने मंतव्य दिया :-

"उन मामलों में जहां भीड़ शांतिपूर्ण हो, पुलिस बल का प्रयोग पूरी तरह आवंछित है। हालांकि, जब भीड़ हिंसक हो जाती है, वहां वाजिब पुलिस बल का इस्तेमाल आवश्यक और न्यायोचित हो सकता है, लेकिन यह उस वक्त गहरी समस्या बन जाती है, जब इस तरह का बल प्रयोग करते वक्त पुलिस अत्यधिक बल प्रयोग करके अपनी हदें पार कर जाती है और बर्बर हो जाती है, इतनी ही नहीं, वह स्थिति को नियंत्रित करने के बाद भी दमनात्मक कार्रवाई नहीं रोकती, इसे जारी रखती है। इसके कारण मानवाधिकारों एवं मानव सम्मान का उल्लंघन होता है। यही कारण है कि मानवाधिकार कार्यकर्ता यह महसूस करते हैं कि पुलिस अक्सर बल प्रयोग करने के अपने अधिकारों का दुरुपयोग करती है, जो कानून के शासन के लिए एक गम्भीर खतरा बन जाता है।"

कोर्ट ने साथ ही, विभिन्न दस्तावेजों का उल्लेख किया, जैसे- गैरकानूनी भीड़ के खिलाफ पुलिस द्वारा बल प्रयोग से संबंधित मॉडल नियम, जिसे 1964 में आयोजित पुलिस महानिरीक्षकों के सम्मेलन में अपनाया गया था, और उस बल को लागू करने वाले कई पुलिस मैनुअल, जिसमें यह अनिवार्य किया गया है कि बल प्रयोग तभी किया जाना चाहिए जब यह वास्तव में अनिवार्य हो, साथ ही यह समानुपातिक रूप से इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

"अत्यधिक बल" को परिभाषित करना

अमेरिकी न्यायालयों ने ग्राहम बनाम कॉनर (490 अमेरिका, 386, 396-399, 1989) मामले में 'अत्यधिक बल' शब्द को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया था :

"अत्यधिक बल वैसा बल है जो किसी अधिकारी द्वारा किसी व्यक्ति को परिस्थितिवश गिरफ्त में लेने या नियंत्रित करने के लिए आवश्यकता से अधिक इस्तेमाल किया जाता है।"

इस परिभाषा को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अनीता ठाकुर मामले में स्पष्ट किया था कि कोई भी बल प्रयोग अत्यधिक कहलायेगा जब वह नियंत्रण के लिए जरूरी बल से अधिक और गैर-समानुपातिक होगा। इसी के आधार पर हम सरकार/कानून लागू कराने वाली एजेंसियों द्वारा बल के इस्तेमाल के नियंत्रण के सिद्धांतों पर विचार करते हैं।

बल के इस्तेमाल के नियमन वाले तीन सिद्धांत

बल के इस्तेमाल के लिए अब तक संबंधित कानून के तीन मुख्य घटक हैं : आवश्यकता, आनुपातिकता, एवं एहतियात। ये मानदंड सभी सरकारों पर कानून के सामान्य सिद्धांतों के रूप में बाध्यकारी हैं। आवश्यकता और अनुपातिकता इस बात की सीमा निर्धारित करती है कि पुलिसिया कार्रवाई के दौरान कैसे और कब बल प्रयोग किया जा सकता है। कानून लागू कराने वाले अधिकारियों को दोनों सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और किसी भी सिद्धांत के पालन में असफल रहने का मतलब सरकार द्वारा मानवाधिकारों का उल्लंघन होगा। इसके विपरीत, एहतियात के सिद्धांतों के तहत सरकारों द्वारा यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि कानून लागू कराने संबंधी कार्रवाई सुनियोजित हो तथा इस प्रकार संचालित किया गया हो कि इससे घायल होने का जोखिम कम से कम हो सके।

'तीन सिद्धांतों पर आधारित परीक्षण' का इस्तेमाल कोर्ट ऑफ अपील के लॉर्ड न्यूबर्जर ने आर(मैक्लयोर और मूस) बनाम मेट्रोपॉलिटन पुलिस (2012, ईडब्ल्यूसीए सिविल, 12) के मामले में इस्तेमाल किया गया था, जिसमें उन्होंने कहा था, "शांति भंग करने के लिए गिरफ्तारी या नियंत्रण में लेने जैसी गिरफ्तारी से थोड़ी कम श्रेणी की कार्रवाई के लिए यह न्यायोचित ठहराया जाना चाहिए कि ये (केवल चरम एवं असाधारण परिस्थितियों में) जरूरी हैं या तार्किक एवं समानुपातिक हैं।"

सुप्रीम कोर्ट ने ओम कुमार बनाम भारत सरकार (2001 (2) एससीसी 386) के ऐतिहासिक मामले में समानुपातिकता के महत्व को भी रेखांकित करते हुए व्यवस्था दी थी कि "भारत में मौलिक अधिकारों को प्रभावित करने वाली प्रशासनिक कार्रवाई का परीक्षण हमेशा समानुपातिकता के दायरे में किया जाता रहा है।"

इसलिए, कानून लागू करने वाली एजेंसियों द्वारा बल के इस्तेमाल की वैधता को बनाये रखने के लिए निम्नलिखित परीक्षणों पर खरा उतरना जाना चाहिए :-

सबसे पहले, क्या बल का इस्तेमाल आवश्यक था?

दूसरे, क्या इस्तेमाल किया गया बल नियंत्रित करने के लिए आवश्यक कार्रवाई के लिए आनुपातिक था?

तीसरा, क्या इस तरह के बल का इस्तेमाल करने से पहले उचित प्रक्रिया का पालन किया गया (जैसे आवश्यक अनुमति) और जोखिम का आकलन किया गया?

अत्यधिक बल के वाहक एवं पुलिस संवेदीकरण की आवश्यकता

नागरिकों के खिलाफ पुलिस द्वारा अत्यधिक बल का इस्तेमाल दोनों के बीच सामान्य संघर्ष के कारण होता है। ज्यादातर पुलिस विभाग इस मान्यता के तहत कार्य करते हैं कि उनकी सभी कार्रवाइयों को सरकार की मंजूरी प्राप्त है। इस तरह की मान्यता नागरिकों के अधिकारों के प्रति सहानुभूति या संवेदनशीलता की कमी का परिणाम है। इस मान्यता के कारण ही पुलिस की कार्रवाई के खिलाफ लोगों का आंदोलन उग्र होता है, जो बाद में दोनों समूहों के बीच हिंसक संघर्ष के रूप में परिणत होता है और इसके परिणामस्वरूप अत्यधिक बल का इस्तेमाल किया जाता है।

यह व्यवहार एक संगठनात्मक संस्कृति में संक्रामक हो जाता है जो बल के दुरुपयोग को सहन करता है और बढ़ावा देता है। वास्तव में, देख-देखकर सीखने की प्रवृत्ति संबंधी शोध से पता चलता है कि जो अधिकारी अपने अन्य अधिकारियों को अत्यधिक बल प्रयोग करते देखते हैं, उनमें भविष्य में उसी नक्शे कदम पर चलकर अत्यधिक बल प्रयोग करने की संभावना ज्यादा होती है। इसलिए, कोर्ट को न केवल पुलिस बल के अत्यधिक इस्तेमाल पर संतुलन सुनिश्चित करना है, बल्कि इस प्रणाली को अंतर-विभाग स्तर पर भी जगह मिलनी चाहिए।

दूसरी बड़ी समस्या नागरिकों के अधिकारों के बोर में संवेदनशीलता की कमी से संबंधित है। पुलिस संवेदीकरण के मामले का निपटारा मोनिका कुमार बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2017, 16 एससीसी 169) के मामले में बखूबी किया गया है। शीर्ष अदालत ने नागरिकों के अधिकारों के बारे में पुलिस को संवेदनशील बनाने और पुलिस द्वारा सभ्य तरीके से सार्वजनिक व्यवस्था बनाये रखने का की आवश्यकता का उल्लेख किया। न्यायालय ने विशेष पुलिस प्रशिक्षण के लिए विभिन्न दिशानिर्देश जारी किये तथा इस बाबत सकारात्मक परिणाम के लिए सुझाव भी दिये।

निष्कर्ष

ऐसी घटनाएं जिसकी वजह से बल, खासकर खतरनाक बल, का प्रयोग किया जाता है, उसकी जांच की जानी चाहिए और इससे सीख ली जानी चाहिए। नीतिगत दृष्टिकोण से, पुलिस अधिकारियों को टकराव कम करने तथा भीड़ नियंत्रित करने के लिए कम से कम बल के इस्तेमाल के रचनात्मक तरीके लागू करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। नागरिकों को भी असहमति दर्ज कराने के संवैधानिक तरीके के मूल्यों के बारे में एक दूसरे को प्रशिक्षित करना चाहिए। जामिया मामले में संदर्भ में यह स्थापित है कि पुलिस ने प्रदर्शन कर रहे छात्रों के खिलाफ अत्यधिक या अनावश्यक बल का इस्तेमाल किया था, आौर सरकार को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।

अंत में, यह महत्वपूर्ण है कि न्यायालय इस मुद्दे का निर्धारण करते समय सभी उल्लेखित बातों का संयुक्त रूप से ध्यान रखे और इसे अलग-थलग करके न निपटे।

ये लेखक के निजी विचार हैं।

(लेखक डॉ. राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, लखनऊ में तीन-वर्षीय बीए. एलएलबी. (ऑनर्स) के छात्र हैं। लेखक सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड (एओआर) श्री ताल्हा अब्दुल रहमान को उनकी मूल्यवान अंतर्दृष्टि के लिए धन्यवाद देना चाहते हैं।) 

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