कॉलेजियम प्रणाली, तीन जज मामले और संवैधानिक अदालतों में नियुक्तियां/तबादले: समझिये यह महत्वपूर्ण गणित
प्रतिदिन हम केवल संसद एवं विधायिकाओं द्वारा बनाये गए कानूनों से ही निर्देशित नहीं होते हैं, बल्कि हमारी अदालतों द्वारा सुनाये गए निर्णयों एवं उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों से भी हम प्रभवित होते हैं। हालाँकि जहाँ संसद एवं विभिन्न राज्यों की विधायिकाओं में प्रवेश का एक तय नियम मौजूद है, वहीँ उच्चतम न्यायलय में न्यायाधीश की नियुक्ति को लेकर हमेशा से विवाद रहा है।
हम आज बात करने जा रहे हैं उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के बारे में। इसके साथ ही हम उन मामलों के बारे में भी आपको संक्षेप में बताएँगे जिनके जरिये इस नियुक्ति पर प्रभाव पड़ा है। तो चलिए यह सिलसिला शुरू करते हैं।
भारत का संविधान ऐसी सुविधा प्रदान करता है कि भारत के राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाएगी। यह नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश और राष्ट्रपति द्वारा (उनको जैसा आवश्यक लगे) तय सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के परामर्श (consultation) से की जाएगी। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश, संबंधित राज्य के राज्यपाल और उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श (consultation) से की जाती है।
अनुच्छेद 124 (2) कहता है कि, "सर्वोच्च न्यायालय के और राज्यों के उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श (consultation) करने के पश्च्यात, जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए परामर्श करना आवश्यक समझे, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर एवं मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा और वह न्यायाधीश तबतक पद धारण करेगा जब तक वह 65 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेता है। बशर्ते कि मुख्य न्यायाधीश के अलावा किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश से हमेशा सलाह ली जाएगी। परन्तु मुख्य न्यायमूर्ति से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा में भारत के मुख्य न्यायमूर्ति से सदैव परामर्श किया जायेगा"
और अनुच्छेद 217 कहता है कि, "भारत के मुख्य न्यायमूर्ति से, उस राज्य के राज्यपाल से और मुख्य न्यायमूर्ति से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा में उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श (consultation) करने के बाद, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर एवं मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा।"
कंसल्टेशन या कॉलेजियम?
उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की इस नियुक्ति में परामर्श या 'consultation' की अहम् भूमिका है। और इस पूरे लेख में हम यही समझेंगे कि कैसे इस शब्द की भूमिका, न्यायाधीशों की नियुक्तियों के लिए अहम् हो जाती है। हालाँकि इससे पहले हमारे लिए यह जान लेना भी जरुरी है कि 'कॉलेजियम' या 'कॉलेजियम प्रणाली (collegium system)' का मतलब क्या है। आपने जरूर इस शब्द को सुना होगा, और आज हम इसका मतलब भी आपको समझायेंगे।
"कॉलेजियम" शब्द का अर्थ है 'सदस्यों का समूह'। इनके जरिये संवैधानिक न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए उच्च न्यायालयों और भारत के सर्वोच्च न्यायालय में कॉलेजियम की स्थापना की जाती है। इन कॉलेजियम में उनके सदस्य के रूप में न्यायाधीश हैं। तो, नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम में, न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायाधीश करते हैं।
भारत के संविधान (अनुच्छेद के तहत) 124 और 217 में क्रमशः सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए प्रावधान किया गया है। कॉलेजियम प्रणाली वह प्रणाली है जहां भारत के मुख्य न्यायाधीश और उच्चतम न्यायालय के 4 वरिष्ठतम न्यायाधीशों का एक फोरम न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की सिफारिश करता है। हालाँकि, भारतीय संविधान में इसका कोई स्थान नहीं है।
दरअसल कॉलेजियम प्रणाली, न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की एक ऐसी प्रणाली है जो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है (न की संसद के अधिनियम द्वारा या संविधान के किसी प्रावधान द्वारा विकसित हुई है)। सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम, भारत के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में कार्य करता है और इसमें अदालत के 4 अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं। एक उच्च न्यायालय कॉलेजियम का नेतृत्व उस राज्य के मुख्य न्यायाधीश और उस अदालत के 4 अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश करते हैं।
यह भी समझने वाली बात है कि उच्च न्यायालय कॉलेजियम द्वारा नियुक्ति के लिए सिफारिश किए गए नाम, भारत के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम द्वारा अनुमोदन के बाद ही सरकार तक पहुंचते हैं। उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से ही की जाती है - और कॉलेजियम द्वारा नाम तय किए जाने के बाद ही सरकार की उस नियुक्ति में भूमिका अस्तित्व में आती है। हाँ यह जरूर है कि यदि किसी वकील को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया जाना है तो सरकार की भूमिका इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) द्वारा की जाने वाली जाँच तक सीमित होती है।
सरकार अनुमोदित किये गए नामों पर आपत्तियां भी उठा सकती है और कॉलेजियम की पसंद के बारे में स्पष्टीकरण भी मांग सकती है, लेकिन अगर कॉलेजियम फिर से उन्ही नामों को पुनः अनुमोदित करता है, तो सरकार संविधान पीठ के निर्णयों के तहत उन नामों को न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त करने के लिए बाध्य है।
कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत
जैसा कि हमने आपको बताया, कॉलेजियम प्रणाली न्यायालय के निर्णयों द्वारा विकसित की गयी प्रणाली है और इसको लेकर संविधान में कोई प्रावधान नहीं है। प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय न्यायाधीश के मामलों में (First, Second and Third Judges case) सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रासंगिक संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या के माध्यम से कॉलेजियम प्रणाली अस्तित्व में आई.
हम इन तीन न्यायाधीश मामलों को आगे समझेंगे लेकिन उससे पहले हमे यह जान लेना जरुरी है कि प्रचलित कॉलेजियम प्रणाली 'की बहुत आलोचना की जाती है। कहा जाता है कि यह गैर-पारदर्शी है और यह प्रणाली भाई-भतीजावाद का शिकार है, जिसमें कई न्यायविदों और बार के सम्मानित सदस्यों ने खुद इशारा किया है कि किसी अन्य बड़े लोकतंत्र में कोई संस्था इतनी शक्तिशाली नहीं है जो अपने स्वयं के सदस्यों का चयन करें।
हम कॉलेजियम को जिस भी तरह से देखें (या समर्थन करें या विरोध) लेकिन यह तय है कि संविधान ऐसे किसी प्रणाली की बात नहीं करता है। हमारे मौलिक अधिकारों में से कुछ के विपरीत, अनुच्छेद 124 और 217, ऐसे शब्दों में नहीं लिखे गए हैं जिनमें व्याख्यात्मक अभ्यास की आवश्यकता हो। इसलिए कॉलेजियम प्रणाली द्वितीय जज मामले की शुद्ध रचना के अलावा कुछ नहीं है।
प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय न्यायाधीश के मामले
A- प्रथम जज मामला
एस. पी. गुप्ता बनाम भारत संघ, 1981 में सर्वोच्च न्यायालय ने बहुमत से यह निर्णय दिया कि न्यायाधीशों के चयन के मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश की प्रधानता की अवधारणा का हमारे संविधान में कोई स्थान नहीं है। यह भी माना गया कि उच्च न्यायालय में की जाने वाली नियुक्ति का प्रस्ताव, आवशयक रूप से उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की ओर से आना जरुरी नहीं। बल्कि यह प्रस्ताव अनुच्छेद 217 में उल्लिखित विभिन्न संवैधानिक पदाधिकारियों में से किसी एक से भी आ सकता है।
संविधान पीठ ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 124 और 217 में प्रयुक्त "परामर्श (consultation)" शब्द का मतलब "सहमति (concurrence)" नहीं है - इसका मतलब है कि भले ही राष्ट्रपति अनुच्छेद में बताये गए पदों पर बैठे लोगों से परामर्श करेंगे, लेकिन उनका निर्णय आवश्यक रूप से दी गयी परामर्श से बाध्य नहीं होगा। अर्थात राष्ट्रपति अपना स्वतंत्र निर्णय ले सकते हैं, जिसके अंतर्गत उनके द्वारा प्राप्त परामर्श को मन्ना आवश्यक नहीं होगा। आपको बता दें कि यह स्थिति अगले 12 वर्षों तक बनी रही।
B- द्वितीय जज मामला
सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ, 1993 में, एक 9-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने एस. पी. गुप्ता मामले में दिए फैसले को को रद्द कर दिया और न्यायाधीशों की नियुक्ति और हस्तांतरण के लिए 'कॉलेजियम सिस्टम' नामक एक विशिष्ट प्रक्रिया तैयार की। इस कॉलेजियम प्रणाली के बारे में हम पहले ही बात कर चुके हैं। यह भी रेखांकित किया गया कि 'परामर्श' शब्द, नियुक्ति एवं ट्रांसफर के मामले में मुख्य न्यायमूर्ति की महत्वता को कम नहीं कर सकता है। यह निर्णय यह कहते हुए सुनाया गया कि सर्वोच्च अदालत को "न्यायपालिका की अखंडता की रक्षा और स्वतंत्रता की रक्षा" के पक्ष में कार्य करना चाहिए, और इसलिए भारत के मुख्य न्यायमूर्ति को प्रधानता प्रदान की जानी चाहिए।
"भारत के मुख्य न्यायाधीश की भूमिका प्रकृति में महत्वपूर्ण है और चूँकि यह मामला न्यायिक परिवार के भीतर का एक विषय है, इसलिए कार्यपालिका का इस मामले में बराबर का हस्तक्षेप नहीं हो सकता है। कॉलेजियम प्रणाली का बारे में बताते हुए, अदालत ने कहा कि नामों की सिफारिशें भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा अपने 2 वरिष्ठतम सहयोगियों के साथ परामर्श करके की जानी चाहिए, और इस तरह की सिफारिश को आम तौर पर कार्यपालिका द्वारा प्रभाव दिया जाना चाहिए। इसमें कहा गया है कि कार्यपालिका कॉलेजियम से इस मामले पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकती है और उसे बता सकती है कि उसे किसी नाम पर आपत्ति है, हालाँकि, पुनर्विचार करने पर, अगर कॉलेजियम ने अपनी सिफारिश फिर से उसी नाम पर दी, तो कार्यपालिका वह नियुक्ति करने के लिए बाध्य होगी।
C- तृतीय जज मामला
वर्ष 1998 में, राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने संविधान के अनुच्छेद 143 (सलाहकार क्षेत्राधिकार) के तहत "परामर्श" शब्द के अर्थ पर सर्वोच्च न्यायालय के लिए एक राष्ट्रपति संदर्भ (Presidential Reference) जारी किया। सवाल यह था कि क्या "परामर्श" को भारत के मुख्य न्यायाधीश की राय बनाने में कई न्यायाधीशों के साथ परामर्श की आवश्यकता थी, या क्या भारत के मुख्य न्यायाधीश का एकमात्र विचार "परामर्श" का गठन कर सकता है या नहीं।
जवाब में, सुप्रीम कोर्ट ने नियुक्तियों और तबादलों के लिए कोरम के कामकाज के लिए 9 दिशानिर्देश दिए - यह मौजूदा समय का कॉलेजियम का स्वरूप बन गया है, और यह तब से लागू है। यह राय रखी गई कि नामों की सिफारिश 2 के बजाय भारत के मुख्य न्यायाधीश और उनके 4 वरिष्ठतम सहयोगियों द्वारा की जानी चाहिए। यह भी माना गया कि जब किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का नाम आता है तो, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश जो उसी उच्च न्यायालय से हैं, उनसे भी सलाह ली जानी चाहिए।
यह भी कहा गया कि अगर 2 न्यायाधीशों ने किसी नाम पर प्रतिकूल राय दी, तो भी भारत के मुख्य न्यायाधीश को सरकार को सिफारिश नहीं भेजनी चाहिए। एक दृष्टिकोण से इस फैसले में भारत के मुख न्यायाधीश को कॉलेजियम का एक अति महत्वपूर्ण पद के तौर पर घोषित कर दिया गया.
कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC)
NJAC को संविधान [संविधान (निन्यानबेवाँ संशोधन) अधिनियम, 2014] में संशोधन करके 13 अगस्त, 2014 को लोकसभा द्वारा और 14 अगस्त 2014 को राज्य सभा द्वारा पारित किया गया था। इसके साथ ही संसद ने NJAC के कार्यों को विनियमित करने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्तियाँ आयोग अधिनियम, 2014 भी पारित किया। दोनों विधेयकों को 16 राज्य विधानसभाओं के द्वारा अनुमोदित किया गया था और राष्ट्रपति ने 31 दिसंबर, 2014 को इसपर अपनी सहमति दी थी। NJAC अधिनियम और संवैधानिक संशोधन अधिनियम 13 अप्रैल, 2015 से लागू हुआ।
ऐसा प्रस्तावित था की इसमें 6 लोग शामिल होंगे (जो न्यायाधीशों के नाम पर अपनी सिफारिश देंगे) - भारत के मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय के 2 सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश, कानून मंत्री, और 2 प्रतिष्ठित व्यक्ति'। इन प्रतिष्ठित व्यक्तियों को मुख्य न्यायाधीश, प्रधान मंत्री, और लोकसभा में विपक्ष के नेता वाली एक समिति द्वारा 3 साल के कार्यकाल के लिए नामांकित किया जायेगा, हालाँकि वो फिर से नामांकन के लिए पात्र नहीं होंगे।
हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम और 99वें संवैधानिक संशोधन को खारिज कर दिया था (सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ मामला)। अदालत के इस फैसले के साथ ही यह तय हो गया कि भारत में उच्चतर न्यायसेवा में नियुक्तियां और ट्रांसफर कॉलेजियम प्रणाली से की जाएँगी। अदालत ने अपने बहुमत के फैसले में साफ़ कहा था की, "एक वैकल्पिक प्रक्रिया (NJAC) को स्वीकार करने का कोई सवाल नहीं है, जो उच्चतर न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों के चयन और नियुक्ति के मामले में न्यायपालिका की प्रधानता सुनिश्चित नहीं करता है।"
हालाँकि, वर्ष 2015 के इस फैसले ने, अंत में, भविष्य की नियुक्तियों को निर्देशित करने के लिए एक नए मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (MoP) का मार्ग प्रशस्त किया है, ताकि नियुक्ति और ट्रांसफर के पात्रता मानदंड में कमी और पारदर्शिता के बारे में चिंताओं का निवारण किया जा सके। बेंच ने सरकार से कहा था कि वह भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद एक नए MoP का मसौदा तैयार करे।