आरोपी को डिफ़ॉल्ट जमानत का अधिकार नहीं, न्यायालय 60 दिनों के भीतर सुनवाई पूरी करने में विफल रहा: बॉम्बे हाईकोर्ट

Update: 2024-10-01 06:28 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि कोई व्यक्ति सिर्फ़ इस आधार पर डिफ़ॉल्ट जमानत का हकदार नहीं है कि मामले की सुनवाई दंड प्रक्रिया संहिता (CrPc) की धारा 437 (6) के तहत निर्धारित 60 दिनों के भीतर पूरी नहीं हुई।

औरंगाबाद पीठ में बैठे जस्टिस संजय मेहरे की एकल पीठ ने धोखाधड़ी और आपराधिक साजिश के मामले में आरोपी महिला को जमानत देने से इनकार किया।

पीठ ने याचिकाकर्ता लताबाई जाधव की मुख्य दलील पर गौर किया, जिन्होंने तर्क दिया कि वह डिफ़ॉल्ट जमानत की हकदार हैं, क्योंकि निचली अदालत मामले को साक्ष्य के लिए तय करने के 60 दिनों के भीतर सुनवाई पूरी करने में विफल रही।

23 सितंबर को पारित अपने आदेश में जस्टिस मेहरे ने कहा कि हाईकोर्ट ने पहले ही धारा 437 की व्याख्या कर ली है। निष्कर्ष दर्ज किया कि धारा 437 की विभिन्न उप-धाराओं के तहत जमानत देने की शक्ति विवेकाधीन है। इसका प्रयोग ठोस न्यायिक सिद्धांतों के आधार पर किया जाना चाहिए।

जस्टिस मेहरे ने कहा,

"यही सिद्धांत CrPC की धारा 437(6) के तहत जमानत पर भी लागू होगा। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि यदि साक्ष्य के लिए निर्धारित पहली तारीख से 60 दिनों के भीतर मुकदमा समाप्त नहीं होता है तो अभियुक्त को जमानत दी जानी चाहिए। केवल इसलिए कि धारा में करेगा शब्द का उपयोग किया गया। इसका मतलब यह नहीं कि ऐसा करना अनिवार्य है। उक्त उप-धारा में जब तक शब्द को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भले ही 60 दिनों की अवधि समाप्त हो गई हो, न्यायालय के पास धारा 437(6) के तहत जमानत देने से इनकार करने का विवेकाधिकार है, लेकिन इसके लिए कारण दर्ज किए जाने चाहिए।”

न्यायाधीश ने रिकॉर्ड से पाया कि मजिस्ट्रेट कोर्ट और सेशन कोर्ट दोनों ने आवेदक को जमानत देने से इनकार किया, क्योंकि आवेदक फरार हो गया। उसे देरी से गिरफ्तार किया गया था। इसने दोनों न्यायालयों द्वारा व्यक्त की गई इस आशंका को ध्यान में रखा कि यदि उसे जमानत पर रिहा किया जाता है तो वह साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ कर सकती है और गवाहों को प्रभावित करने का प्रयास कर सकती है।

जज ने आदेश में कहा,

"जहां CrPC की धारा 437(6) के तहत निर्धारित 60 दिनों के भीतर मुकदमा समाप्त नहीं होता है तो चूक के लिए जमानत का अधिकार नहीं मिलता। उक्त धारा में 'करेगा' शब्द विवेकाधीन है। न्यायालय को ऐसी शक्तियों का विवेकपूर्ण तरीके से प्रयोग करना चाहिए और दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 के तहत प्रदान की गई अन्य परिस्थितियों पर विचार करना चाहिए।"

इसके अलावा पीठ ने कहा कि मुकदमा शुरू होने और साक्ष्यों की जांच की तारीख तय होने के तुरंत बाद मुकदमा रोक दिया गया और तब तक केवल कुछ गवाहों की जांच की गई।

इस पर ध्यान देते हुए जस्टिस मेहरे ने मुकदमे को टीम वर्क मानने की आवश्यकता पर जोर दिया और वादियों से सहयोग करने का आग्रह किया।

जज ने रेखांकित किया,

"मुकदमे में थोड़ी देरी हुई और ट्रायल कोर्ट को शीघ्र सुनवाई की उम्मीद थी। ऐसा प्रतीत होता है कि ट्रायल कोर्ट मुकदमे को जल्द से जल्द समाप्त करने की पूरी कोशिश कर रहा है। लेकिन कई बार कई चीजें पीठासीन अधिकारी के नियंत्रण में नहीं होती । यह एक टीम वर्क है। सभी संबंधित पक्षों को उचित अवधि के भीतर मुकदमे को समाप्त करने में न्यायालय का समर्थन करना चाहिए।”

इन टिप्पणियों के साथ पीठ ने जमानत याचिका खारिज की।

केस टाइटल: लताबाई जाधव बनाम महाराष्ट्र राज्य

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