किसानों को ज़मीन अधिग्रहण के बदले मुआवज़े में बढ़ोतरी मांगने के अधिकार के बारे में सूचित करना राज्य का कर्तव्य: बॉम्बे हाईकोर्ट
बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि लैंड एक्विजिशन एक्ट, 1894 की धारा 28-A के तहत मुआवज़े को फिर से तय करने की मांग करने वाले आवेदनों को सर्टिफाइड कॉपी जमा न करने जैसे बहुत ज़्यादा तकनीकी आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने कहा कि धारा 28-A एक फायदेमंद प्रावधान है जिसे ज़मीन मालिकों के बीच मुआवज़े में असमानता को खत्म करने के लिए बनाया गया। इसके उद्देश्य को पूरा करने के लिए इसकी उदारता से व्याख्या की जानी चाहिए। इसने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि जिन किसानों की आजीविका का एकमात्र स्रोत अनिवार्य अधिग्रहण के कारण छिन जाता है, उन्हें प्रक्रियात्मक तकनीकी कारणों से कानूनी लाभ से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।
जस्टिस एम. एस. कर्णिक और जस्टिस अजीत बी. कडेथंकर की एक डिवीज़न बेंच 96 साल के किसान द्वारा दायर रिट याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसकी ज़मीनें किटवाड़ माइनर इरिगेशन टैंक प्रोजेक्ट के लिए अधिग्रहित की गईं, जिसके बदले में उसे 77,700 का मुआवज़ा दिया गया। उसी अधिग्रहण के संबंध में एक पड़ोसी ज़मीन मालिक एक फैसले के ज़रिए अपने मुआवज़े को बढ़ाने में सफल रहा।
उस फैसले पर भरोसा करते हुए याचिकाकर्ता ने 1 नवंबर, 2008 को धारा 28-A के तहत मुआवज़े को फिर से तय करने के लिए एक आवेदन दायर किया। हालांकि यह आवेदन संदर्भ अदालत के फैसले की तारीख के तीन महीने के भीतर दायर किया गया लेकिन उप-विभागीय अधिकारी ने 14 फरवरी 2019 को इसे इस आधार पर खारिज कर दिया कि फैसले की सर्टिफाइड कॉपी संलग्न नहीं की गई।
कोर्ट ने कहा कि एक्ट की धारा 28-A के तहत आवेदन समय सीमा के भीतर दायर किया गया लेकिन याचिकाकर्ता ने सर्टिफाइड कॉपी जमा करने के बजाय फैसले की सही कॉपी संलग्न की थी।
कोर्ट ने कहा कि अथॉरिटी ने एक ऐसे किसान के साथ व्यवहार करने में बहुत ज़्यादा तकनीकी दृष्टिकोण अपनाया, जिसने अनिवार्य अधिग्रहण के कारण अपनी आजीविका का एकमात्र स्रोत खो दिया। उन्होंने कहा कि सर्टिफाइड कॉपी की आवश्यकता का उद्देश्य केवल समय सीमा का पता लगाना है। कोर्ट ने कहा कि प्रक्रिया का उद्देश्य न्याय को आसान बनाना है, न कि मौलिक अधिकारों को बाधित करना, खासकर जब अनिवार्य अधिग्रहण से प्रभावित किसानों से निपटा जा रहा हो।
उन्होंने कहा,
"प्रक्रिया को उद्देश्य को बाधित नहीं करना चाहिए। प्रक्रिया हमेशा उद्देश्य के न्यायनिर्णयन को आसान बनाने के लिए होती है। उद्देश्य का न्यायनिर्णयन उसके अपने गुणों के आधार पर किया जाना चाहिए लेकिन इसे बहुत ज़्यादा तकनीकी आधार पर बाधित नहीं किया जाना चाहिए।”
कोर्ट ने टिप्पणी की कि यह राज्य मशीनरी की ड्यूटी है कि वह ज़मीन गंवाने वालों को मुआवज़े में बढ़ोतरी मांगने के उनके अधिकार के बारे में अलर्ट करे और जानकारी दे न कि उनके दावों को विरोधी मुकदमेबाज़ी की तरह देखे।
कोर्ट ने कहा,
“मौजूदा याचिकाकर्ता जैसे किसानों के मामलों में यह राज्य मशीनरी की ज़िम्मेदारी है कि वह मुआवज़े में बढ़ोतरी मांगने के उनके अधिकार के बारे में अलर्ट करे और जानकारी दे ज़मीन अधिग्रहण के लिए मुआवज़े में बढ़ोतरी एक कानूनी अधिकार है। उस किसान पर दोष डालना जो पहले से ही अपनी एकमात्र आजीविका खोने के सदमे में है और अपर्याप्त मुआवज़े के कारण निराश है बिल्कुल भी सही नहीं है।"
आर्टिकल 226 के तहत अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए हाईकोर्ट ने 14 फरवरी, 2019 का आदेश रद्द कर दिया और मामले को सब-डिविज़नल ऑफिसर के पास वापस भेज दिया ताकि वह आवेदन पर मेरिट के आधार पर फैसला करें न कि उसे लिमिटेशन या सर्टिफाइड कॉपी की कमी के आधार पर खारिज करें।