30 साल पहले दी गई मंजूरी को इस आधार पर वापस नहीं लिया जा सकता कि पद सक्षम प्राधिकारी द्वारा सृजित नहीं किया गया: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Update: 2025-03-17 06:50 GMT
30 साल पहले दी गई मंजूरी को इस आधार पर वापस नहीं लिया जा सकता कि पद सक्षम प्राधिकारी द्वारा सृजित नहीं किया गया: इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि 30 साल पहले स्वीकृत किसी पद के लिए मंजूरी को केवल इस आधार पर वापस नहीं लिया जा सकता कि उसे सक्षम प्राधिकारी द्वारा सृजित नहीं किया गया था। इसने माना कि ऐसे पद पर कार्यरत व्यक्ति को 30 साल तक लगातार काम करने और धोखाधड़ी या कदाचार के आरोपों के बिना भुगतान किए जाने के बाद वेतन से वंचित नहीं किया जा सकता।

मदरसा जामिया आलिया अरबिया अलीनगर मऊ गैर-सरकारी सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थान है, जिसका संचालन और प्रबंधन जमीला आलिया अरबिया, मऊ नामक सोसायटी द्वारा किया जाता है, जिसका रजिस्ट्रेशन 14.09.2019 को पांच साल की अवधि के लिए नवीनीकृत किया गया। शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों की सेवाओं सहित मदरसा का मामला यू.पी. गैर सरकारी अरबी एवं फारसी मदरसा मान्यता नियमावली, 1987 के अनुसार वर्ष 2016 में इसमें संशोधन किया गया।

1990 में सहायक शिक्षा निदेशक (बेसिक) ने सूची प्रेषित की थी, जिसमें बताया गया कि शिक्षण एवं शिक्षणेत्तर कर्मचारियों के 27 पद स्वीकृत हैं तथा नियुक्त कर्मचारियों को वेतन दिया जा रहा है। विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि के कारण शिक्षण कर्मचारियों के लिए और अधिक पद स्वीकृत करने का अनुरोध किया गया। मामले की जांच के बाद जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी, मऊ ने 14 पदों के सृजन की संस्तुति की तथा निदेशक उर्दू/पश्चिमी भाषा, उ.प्र. लखनऊ को आवश्यक कार्रवाई हेतु संस्तुति प्रेषित की।

यद्यपि याचिकाकर्ता वर्ष 1988 से सहायक अध्यापक तहतानिया के पद पर कार्यरत था, लेकिन वर्ष 1995 से पदों की स्वीकृति के बाद उसे राजकीय कोष से वेतन मिलना शुरू हो गया। वर्ष 2021 में सहायक अध्यापक फौकानिया का पद रिक्त होने पर पदोन्नति की प्रक्रिया शुरू की गई। तत्पश्चात याचिकाकर्ता को उक्त पद पर पदोन्नत कर दिया गया तथा वह सहायक अध्यापक फौकानिया के पद पर कार्य करने लगा। पदोन्नति के कागजात जिला अल्पसंख्यक कल्याण अधिकारी, मऊ को भेजे गए, जिन्होंने वित्तीय स्वीकृति के लिए उन्हें रजिस्ट्रार/निरीक्षक, उ.प्र. मदरसा शिक्षा बोर्ड, लखनऊ को भेज दिया।

याचिकाकर्ता ने दलील दी कि वित्तीय स्वीकृति के बावजूद उन्हें और उनके उत्तराधिकारी सहायक अध्यापक तहतानिया को वेतन नहीं दिया गया। नतीजतन, उनके उत्तराधिकारी ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जहां रजिस्ट्रार/निरीक्षक, उ.प्र. मदरसा शिक्षा बोर्ड, लखनऊ को 3 महीने की अवधि के भीतर मामले में अंतिम निर्णय लेने का निर्देश दिया गया।

दूसरी अवमानना ​​कार्यवाही में रजिस्ट्रार/निरीक्षक, उ.प्र. मदरसा शिक्षा बोर्ड, लखनऊ ने न्यायालय को सूचित किया कि वित्तीय स्वीकृति देने वाले आदेश को वापस ले लिया गया। उत्तराधिकारी ने वापस लेने के आदेश के खिलाफ एक और रिट याचिका दायर की, जिसमें हाईकोर्ट ने जिला अल्पसंख्यक कल्याण अधिकारी, मऊ को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने का निर्देश दिया।

इसके बाद न्यायालय ने निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता के सहायक अध्यापक तहतानिया या फौकानिया के पद पर वेतन संबंधी निर्णय से उसके उत्तराधिकारी को वेतन भुगतान प्रभावित नहीं होगा। उक्त आदेश के परिणामस्वरूप जिला अल्पसंख्यक कल्याण अधिकारी मऊ ने आदेश पारित कर कहा कि याचिकाकर्ता की सहायक अध्यापक तहतानिया के पद पर पूर्व में की गई नियुक्ति स्वीकृत पद के विरुद्ध नहीं थी। इसलिए याचिकाकर्ता की सहायक अध्यापक फौकानिया के पद पर पदोन्नति के लिए दी गई वित्तीय स्वीकृति भी वापस ली जाती है। याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि आदेश में यह नहीं बताया गया कि पद स्वीकृत कैसे नहीं हुआ, जबकि 1996 में जारी शासनादेश द्वारा इसे स्वीकृत किया गया।

यह भी तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ उसकी नियुक्ति रद्द करने के लिए धोखाधड़ी या कदाचार का कोई आरोप नहीं लगाया गया। न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्ता को 1995 से फरवरी 2024 तक राज्य के खजाने से वेतन दिया जा रहा था और याचिकाकर्ता द्वारा धोखाधड़ी का कोई आरोप नहीं था। यह देखा गया कि प्रतिवादी प्राधिकारी का एकमात्र तर्क यह था कि निदेशक, उर्दू द्वारा पद की स्वीकृति राज्य सरकार की पूर्व अनुमति से जारी नहीं की गई।

शिवनंदन सी.टी. और अन्य बनाम हाईकोर्ट केरल और अन्य में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि 10 वर्षों से सेवा में रहे न्यायिक अधिकारियों को पद से हटाना जनहित के विरुद्ध होगा, जब उनके चयन पर सवाल उठाया गया हो।

राधेश्याम यादव और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य में सुप्रीम कोर्ट ने उपर्युक्त निर्णय पर भरोसा करते हुए माना कि जिन आवेदकों की नियुक्ति पर सवाल उठाया गया, उनके प्रति पक्षपात किया जाएगा, जबकि उनकी ओर से कोई शरारत या धोखाधड़ी नहीं की गई।

तदनुसार, जस्टिस प्रकाश पाडिया ने माना,

“पिछले करीब 30 वर्षों से इस बात पर कोई विवाद या आरोप नहीं था कि याचिकाकर्ता को गैर-स्वीकृत पद के विरुद्ध वेतन दिया गया। सक्षम प्राधिकारी, जिसने वित्तीय स्वीकृति प्रदान की और राज्य के खजाने से याचिकाकर्ता को वेतन का भुगतान करना शुरू किया, उसके लिए वर्ष 1996 में ही वित्तीय स्वीकृति या वेतन का भुगतान अस्वीकार करना खुला था। अधिकारी इस बात से पूरी तरह संतुष्ट थे कि याचिकाकर्ता की नियुक्ति स्वीकृत पद के विरुद्ध है, इसलिए उसे लगातार वेतन मिल रहा था। इस प्रकार, याचिकाकर्ता की कोई गलती नहीं थी। याचिकाकर्ता के खिलाफ धोखाधड़ी या कदाचार का कोई उल्लेख नहीं है, जिसने करीब 30 वर्षों तक सेवा की थी।”

तदनुसार, न्यायालय ने विवादित आदेश रद्द कर दिया और माना कि याचिकाकर्ता सभी परिणामी लाभों का हकदार है।

केस टाइटल: शफीक अहमद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 3 अन्य [रिट - ए संख्या - 6586/2024]

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