झूठी FIR पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सरकारी अधिकारियों को लताड़ा, 50,000 का जुर्माना लगाया
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 (UP Anti-Conversion Law) के तहत दर्ज FIR रद्द करते हुए सरकारी अधिकारियों की अत्यधिक सक्रियता पर कड़ी फटकार लगाई।
कोर्ट ने कहा कि यह मामला ब्राउनी पॉइंट्स बटोरने के लिए एक-दूसरे पर हावी होने वाले राज्य अधिकारियों का एक ज्वलंत उदाहरण है।
जस्टिस अब्दुल मोइन और जस्टिस बबिता रानी की खंडपीठ ने न केवल FIR रद्द की बल्कि याचिकाकर्ता नंबर 1 (उमेद @ उबैद खाँ) को तत्काल रिहा करने का भी निर्देश दिया।
कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को आदेश दिया कि याचिकाकर्ता को 50,000 का मुआवजा दिया जाए, क्योंकि वह डेढ़ महीने से अधिक समय से बिना किसी गलती के जेल में बंद था।
इसके अलावा राज्य को कोर्ट की कानूनी सहायता सेवाओं में 25,000 की अतिरिक्त राशि भी जमा करने का निर्देश दिया गया।
झूठी FIR दर्ज कराने की प्रकृति
यह मामला तब शुरू हुआ जब शिकायतकर्ता (प्रतिवादी नंबर 4) ने आरोप लगाया कि उसकी पत्नी ('बीबी') कुछ नकदी और आभूषण लेकर धार्मिक परिवर्तन में शामिल याचिकाकर्ताओं के उकसावे पर लापता हो गई। याचिकाकर्ताओं पर धर्म परिवर्तन में शामिल गिरोह चलाने का भी आरोप था।
हालांकि जैसे ही बीबी को FIR की जानकारी हुई उसने इसे तुच्छ और झूठा मानते हुए स्वेच्छा से आभूषणों के साथ घर लौट आई। यद्यपि उसने शुरू में डर और दबाव के तहत FIR के आरोपों का समर्थन किया बाद में उसने सभी आरोपों से इनकार कर दिया।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अगले ही दिन यानी 19 सितंबर को BNSS (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) की धारा 183 के तहत दर्ज अपने बयान में बीबी ने साफ तौर पर कहा कि वह अपने पति द्वारा नियमित पिटाई के कारण अपनी मर्जी से घर छोड़कर गई और उसने धार्मिक परिवर्तन के आरोपों से भी इनकार किया।
अधिकारियों का गैर-जिम्मेदाराना आचरण
खंडपीठ ने पाया कि बीबी के बाद के बयान ने यह असंदिग्ध कर दिया कि वह अपनी मर्जी से दिल्ली गई थी और स्वेच्छा से लौटी थी, जिससे अपहरण या धर्म परिवर्तन का कोई अपराध नहीं बनता।
कोर्ट ने इस बात पर घोर आश्चर्य व्यक्त किया कि बीबी का स्पष्ट बयान दर्ज होने के बावजूद जांच अधिकारी ने BNSS की धारा 189 (साक्ष्य अपर्याप्त होने पर आरोपी को रिहा करना) के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं किया।
खंडपीठ ने टिप्पणी की,
"पीड़ित का बयान FIR को पूरी तरह से झूठा साबित कर रहा है। फिर भी अधिकारियों ने कोई सुधारात्मक कार्रवाई करना उचित नहीं समझा। यह इस न्यायालय को उत्तर प्रदेश राज्य पर 75,000 का जुर्माना लगाने के लिए बाध्य करता है।"
अदालत ने कहा कि आरोपी नंबर 1 की निरंतर हिरासत अवैध थी और दुर्भावनापूर्ण इरादे से दायर की गई इस FIR पर आगे की कार्रवाई जारी रखने का कोई उचित आधार नहीं था।
अदालत ने राज्य को यह भी छूट दी कि वह दोषी अधिकारियों (शिकायतकर्ता सहित) के खिलाफ उचित कार्रवाई कर सकता है।